Monday, September 17, 2012

आरक्षण


बृजराज सिंह 
वाराणसी 

सरकारी नौकरियों में पदोन्नति आरक्षण के आधार पर नहीं होगी‌‍‌

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने पिछले दिनों एक महत्वपूर्ण एवं साहसिक फैसला लिया कि सरकारी नौकरियों में पदोन्नति आरक्षण के आधार पर नहीं होगी‌‍‌। उनके इस फैसले कि जहाँ कुछ लोगों ने सराहना की वहीं कुछ लोगों निंदा। आरक्षण बचाओ समिति जैसी संस्थाओं ने इसके विरोध में धरना-प्रदर्शन भी किया। आज आरक्षण हमारे समय का ऐसा मुद्दा बन गया है जिस पर बोलने का साहस कोई नहीं जुटा पा रहा है। राजनीतिक दलों को अपना वोट बैंक बिगड़ जाने का खतरा है तो बुद्धिजीवियों को गैर प्रगतिशील कहे जाने का डर। हमारे समय के लगभग सभी बुद्धिजीवियों ने इस मुद्दे पर चुप्पी साध ली है, जबकि यह बहस की मांग करता है। नामवर सिंह हिन्दी समाज के शिखर पुरुष हैं। दूरदर्शी हैं। समाज पर पैनी निगाह रखते हैं। हिन्दी साहित्य को नयी पहचान दिलाने में उनका योगदान अद्वितीय योगदान है। नामवर सिंह मुंहदेखी नहीं कहते। सत्य यदि कटु भी हो तो उसे कहने में नहीं हिचकते। अखिलेश के इस फैसले के कुछ ही दिनों पहले प्रगतिशील लेखक संघ की पिचहत्तरवीं सालगिरह पर आयोजित समारोह में बोलते हुए नामवर सिंह ने कहा कि यदि आरक्षण का यही हाल रहा तो आने वाले दिनों में सवर्णों के लड़के भीख माँगेगे। उनके वक्तव्य कि चारो ओर आलोचना हुयी। कई लेखकों-बुद्धिजीवियों ने उन्हें आड़े हाथों लिया। उनपर सवर्ण मानसिकता से ग्रसित होने का आरोप भी लगा। चारो तरफ से हो रही आलोचनाओं और हमलों से नामवर सिंह अकेले पड़ गए। इन सबसे विचलित नामवर सिंह ने अपनी बात वापस ले ली। एक बार फिर यह बहस का मुद्दा नहीं बन सका। दरअसल नामवर सिंह उस रोष को,उस वैमनस्य कि ओर इशारा कर रहे थे जो दलितों और सवर्णों के बीच पनप रहा है। गुर्जर-मीणा जैसे हालात पूरे देश में न पैदा हों इसलिए इस पर बातचीत होनी ही चाहिए। अगरचे संविधान में आरक्षण का प्रावधान है। समाज के पिछड़े तबके के लोगों को आगे बढ़ाने और उन्हें मुख्य धारा में लाने के लिए यह जरूरी है। निचले तबके के लोगों को सामाजिक हैसियत दिलाने के लिए आरक्षण व्यवस्था बनायी गयी। संविधान सभा के सदस्यों पर किसी को कोई संदेह नहीं हो सकता है परन्तु पिछले कुछ वर्षों से राजनीतिक दलों ने इसे जिस तरह वोट बैंक कि राजनीति से जोड़ दिया है उससे इस व्यवस्था पर संदेह होना लाजमी है।
आज आरक्षण के स्वरूप और उसके क्रियान्वयन पर कोई चर्चा नहीं होती है। विभिन्न जातियों के लोग जिनके पास थोड़ी सी भी सम्भावना है वे किसी न किसी आरक्षित श्रेणी में शामिल हो जाना चाहते हैं। कई जगहों पर लोगों ने फर्जी प्रमाणपत्रों के जरिये आरक्षण प्राप्त करने कि कोशिश कि है। इसके लिए यदि उन्हें खूनी संघर्ष भी करना पड़े तो वे तैयार रहते हैं। राजस्थान में गुर्जर और मीणा जाति कि लड़ाइयाँ सामने हैं। इस लड़ाई में बहुतों कि जान चली गयी। जब बेरोजगारी कि समस्या इतनी बढ़ गयी है तब आरक्षण व्यवस्था ने भीतर ही भीतर माहौल बिगाड़ने कि कोशिस कि है। कागजी तौर पर अपने को हीनतर साबित करने की इस होड़ को बढ़ावा देने की बजाय रोकने का प्रयास करना चाहिए। सवाल उठाने पर आरक्षण विरोधी कहा जाने लगता है; मुख्य सवाल आरक्षण के विरोध का नहीं है, सवाल है उसके स्वरूप और पात्रों का। आरक्षण का आधार क्या होना चाहिए? जो भी दलित, शोषित, असहाय, गरीब हो उसे मुख्य धारा में लाने के लिए, उसकी मदद करने के लिए होना चाहिए या सिर्फ़ जाति के आधार पर। वे लोग जो पिछली दो पीढ़ियों से आरक्षण का लाभ उठाकर धन-बल इकट्ठा कर लिया है उनकी अगली पीढ़ियां आरक्षण की कितनी हक़दार हैं इस पर तो बहस होनी ही चाहिए। क्या वे अब आरक्षण के मोहताज हैं। इसी तरह क्रीमी लेयर वाला सवाल हमेशा अधूरा छोड़ दिया जाता है। निश्चित रूप से आरक्षण के हक़दार वे नहीं हो सकते जिन्हें जीवन की सारी सुख-सुविधाएँ उपलब्ध हैं। यू.पी.ए. की पिछली सरकार ने जब मेडिकल में प्रवेश के लिए पिछड़ी जाति को सत्ताईस प्रतिशत आरक्षण देने का फैसला किया तब पूरे देश में इसका सबसे ज्यादा विरोध मेडिकल स्टूडेंट ने ही किया। लंबे चले इस आंदोलन में कई होनहार छात्रों की जान भी चली गयी। जब सवाल मेडिकल का हो जहाँ मामला लोगों की जान से जुड़ा हो वहाँ इस तरह के फैसले जल्दबाजी और राजनीतिक लाभ के लिए नहीं होने चाहिए। इस बात पर भी विचार करना चाहिए कि जो आरक्षण व्यवस्था सामाजिक परिवर्तन की सहयोगी बनने चली थी। कहीं वह राजनीतिक दलों की बिसात बनकर तो नहीं रह जायेगी। कहीं ऐसा न हो की आगे चलकर समाज दो वर्गों में बंटकर रह जाए एक आरक्षित वर्ग दूसरा अनारक्षित वर्ग। जब-जब चुनाव आता है आरक्षण वाला मुद्दा तूल पकड़ लेता है। उत्तर प्रदेश के चुनाव में भी अल्पसंख्यक आरक्षण का मुद्दा छाया रहा। कोई चार तो कोई चौदह प्रतिशत आरक्षण देने की बात कर रहा था। इस बात से भी यह अनुमान होता है कि राजनीतिक दल इसे सिर्फ़ चुनावी और वोट बैंक का मामला समझते हैं; जब कि यह बेहद गंभीर और संवेदनशील मामला है।
समाज को तोड़कर बाँटकर उसका विकास नहीं किया जा सकता है। संविधान के अनुसार हमारा देश धर्मनिरपेक्ष देश होगा अर्थात किसी भी धर्म को कोई विशेष सुविधा उपलब्ध नहीं कराई जायेगी। ऐसे में मुस्लिमों को हज सब्सिडी दिये जाने पर सवाल उठते रहे हैं। किसी ने भी इसे स्पष्ट करने कि जरूरत नहीं समझी कि यह क्यों जरूरी है। यह सीधे-सीधे धार्मिक मामला है; इससे अन्य धर्मों के लोगों में इस्लाम के प्रति रोष पैदा हो सकता है। जनता में भीषण असन्तोष है। मेरे कहने का आशय यह है कि जिस आरक्षण व्यवस्था को समाज जोड़ने के लिए लाया गया था वह समाज तोड़ने का काम कर रही है। गैर-आरक्षित वर्ग के लोगों में आरक्षित वर्ग के प्रति जबरदस्त रोष और क्रोध पनप रहा है। दोनों वर्गों में वैमनस्य बढ़ रहा है। इसे रोकने पर विचार करना चाहिए सिर्फ़ कड़े कानून बना देने से समस्या हल नहीं हो सकती। ‘बांटो और राज करो’ कि नीति अंग्रेजों की थी। अंग्रेज तो बाहरी थे। उनका उद्देश्य सिर्फ़ शासन करना था। लेकिन उन्होंने जो बिज बोया था वह अब पेड़ बन गया है। इस बरोह से निकली कई शाखाएं-उपशाखाएँ आजादी के साठ साल बाद भी उसी नीति पर चल रही हैं। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के एक छात्र ने आरक्षण विषय पर ही इसी साल अपनी पी.एच-डी पूरी की है। जिसमें उन्होंने बताया की आरक्षण का असली लाभ जिन्हें मिलना चाहिए उनके तक यह अभी पहुँच ही नहीं सका है। ग्रामीण इलाकों के लोगों के जीवन में इसका कोई फायदा नहीं दिखायी पड़ता हैव इसका मतलब यह हुआ कि इस व्यवस्था को अभी चलने दिया जाय। लेकिन सवाल उठता है कि कब तक?कब तक उन दूर-दराज के इलाकों में इसकी पहुँच बनेगी। मैंने पहले ही कहा है कि यह एक सामाजिक मुद्दा है, इसे राजनीति से हल नहीं किया जा सकता। सामाजिक आंदोलनों को राजनीतिक आंदोलनों से ऊपर रहना चाहिए, आगे चलना चाहिए; नहीं तो सरकारें बदलती रहेंगी समाज वहीं का वहीं रह जायेगा।
अभी कुछ दिनों पहले अख़बारों में एक आकड़ा प्रकाशित हुआ था, जिसके अनुसार २०१० में अनुसूचित जाति के लोगों पर हुए हमलों में पूरे देश के बीस फीसदी मामले अकेले उत्तर प्रदेश के हैं। यह कुल आंकड़े का सर्वाधिक हिस्सा है। यह इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि उत्तर प्रदेश में पिछले पांच वर्षों से बहुजन समाज पार्टी कि सरकार थी। सामाजिक आंदोलनों में जब राजनीति घुस जाती है तब इसका हश्र क्या होता है इसका भी एक उदाहरण मेरे सामने है। आज राजनीति का जो स्वरूप है उससे लोगों का उसमें विश्वास कम हो गया है। संविधान निर्माण और उसके नेताओं का मुख्य लक्ष्य था देश कि जनता में आपसी भाईचारे को बढ़ावा देना । आपसी सौहार्द्र के लिए जमीन तैयार करना। सामाजिक बंटवारे ने देश का पहले ही बहुत नुकसान किया है उसकी भरपाई कि कोशिस करना। सबको बराबर अधिकार और सम्मान प्रदान करना। लेकिन जो मौजूदा हालात हैं वे कहीं और ले जा रहे हैं। वे उस लक्ष्य को पूरा करते नही दिखायी देते। पिछले दिनों काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में एक उपन्यास का लोकार्पण समारोह था। उपन्यास लेखक दलित थे। समारोह के मुख्य अतिथि थे कालीचरण स्नेही; जिनकी ख्याति एक दलित चिन्तक के रूप में है। अपने एक घंटे के भाषण में उन्होंने उस कृति पर एक शब्द भी नही बोला। बल्कि अपने पूरे भाषण में वे सवर्णों को गलियां देते रहे। सिर्फ़ सवर्णों को ही नही बल्कि उस लेखक कि भी जमकर खिचायी की क्योंकि उसने सभा में सवर्णों को भी आमंत्रित किया था। उन्होंने साफ़ कहा कि दलितों को सवर्णों के साथ नहीं रहना चाहिए। लेखक को उन्होंने यह भी धमकी दी कि उसे दलित लेखकों कि सूची से निकल दिया जायेगा, तुम न इधर के रहोगे न उधर के। यह है साहित्य का आरक्षण; जिसके खतरे कि तरफ नामवर सिंह ने इशारा किया था। तो इस प्रकार हम भाईचारे कि मंजिल कैसे प्राप्त कार सकते हैं? दोनों समुदायों को पास लाने कि बजाय राजनीतिक शक्तियाँ उन्हें दूर ही रखना चाह रही हैं। हम देख रहे हैं कि हर जाति नाम पर एक राजनीतिक पार्टी बन गयी है। ऐसे माहौल में आरक्षण का मुद्दा और संवेदनशील हो जाता है। जिस तरह देश में बेरोजगारी कि समस्या बढ़ रही है। नौकरियां जरूरत के मुताबिक अपर्याप्त हैं। ऐसे में आरक्षण व्यवस्था से गैर आरक्षित वर्ग के लोगों में जबरदस्त रोष और क्रोध का पनपना स्वाभाविक है। इसीलिए जब मेडिकल में पिछड़ी जातियों को सत्ताईस प्रतिशत आरक्षण दिया गया तब पूरे देश में इसका विरोध हुआ। किसी ने उन विरोध करने वालों को यह समझाने कि जहमत नहीं उठाई कि यह क्यों जरूरी है। बल्कि बल प्रयोग से उसे दबाने की कोशिश कि गयी। दरअसल मंडल कमीशन से लेकर अब तक किसी ने भी गैर-आरक्षित वर्ग के लोगों को विश्वास में लेने या उनकी शंका समाधान कि कोई कोशिशि ही नही की। जिसकी वजह से अविश्वास बढाता गया। वे सवाल करते हैं कि योग्यता आधार होनी चाहिए या जाति। जब कि जाति,लिंग,धर्म के आधार पर किसी को कोई विशेष सुविधा नही दी जायेगी। इसका मतलब यह नही है कि अनुसूचित जाति या जनजातियों में योग्यता या प्रतिभा कि कोई कमी है। कमी है तो अवसर की, उनके पास अवसर कम हैं। संसाधन की कमी है। ऐसे में राष्ट्र की यह जिम्मेदारी बनती है की उन्हें बेहतर से बेहतर संसाधन उपलब्ध कराए। जबकि इसके विपरीत राष्ट्र अपनी जिम्मेदारी से भाग रहा है। सत्ताधारी लोग चाहे वे किसी भी वर्ग के हों उनकी मुख्य चिंता सत्ता पर काबिज रहने की है। इसके लिए वे समाज को तोड़फोड़ भी सकते हैं। राजनीतिक दलों की मंशा इस बात से भी पता चलती है कि इस देश में जहाँ महिलाओं कि स्थिति सबसे दयनीय है वहाँ महिला आरक्षण बिल संसद में लगभग बीस वर्षों से लटका पड़ा है। इसका एक कारण यह भी है कि महिलाएं वोट बैंक कि राजनीति में फिट नही बैठती हैं। उनकी कोई अलग जाति नही है। जब यह सुझाव दिया गया कि आरक्षण जनसँख्या के आधार पर देनी चाहिए। प्रत्येक जाति कि अलग-अलग जनगणना करा के, देश कि जनसंख्या में उस जाति का जितना फीसदी हिस्सा हो उसे उतना प्रतिशत आरक्षण दिया जाय। इसमें महिलाएं कहीं नही आएँगी। इसका विरोध भी किया गया।
बहरहाल कुल मिलाकर मुद्दा यह है कि आरक्षण जैसे संवेदनशील मामले पर गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए। यह समस्या राजनीतिक नही बल्कि सामाजिक है। सामाजिक कार्यकर्ताओं, सगठनों, बुद्धिजीवियों और सरकार सबको मिल इस पर विचार करना चाहिए। कोई ऐसी तरकीब निकली जाय जिससे वंचितों को उनका हक भी मिल जाय और किसी को यह भी न लगे कि उनका हक छीनकर दूसरे को दिया जा रहा है। समतामूलक समाज के निर्माण के साथ-साथ बंधुत्व को भी ध्यान में रखना चाहिए। घृणा का यह खेल कब तक चलता रहेगा। समाज में भाईचारे को बढ़ाना मुख्य लक्ष्य होना चाहिए। राजनीतिक दलों के मनमानेपन पर अंकुश लगाना जरूरी है। दलितों-सवर्णों के बीच जो संघर्ष और दुर्घटनाएं हो रही हैं उसके पीछे यह आरक्षण भी एक कारण है। इस मामले को और स्पष्ट करने कि जरूरत है। सबको विश्वास में लेना होगा। गैर-आरक्षित वर्ग के लोगों का असन्तोष निवारण करना ही होगा। तभी समाज में समता और बंधुत्व पनपेगा। विकास भी तभी होगा। पूना पैक्ट के खिलाफ़ जब गाँधी ने अनशन किया और मानाने पर भी नही माने, उनकी हालात बिगड़ती जा रही थी; तब अम्बेडकर ने अपनी मांग वापस ले ली। इसलिए नही कि वे गाँधी या किसी और से डरते थे, बल्कि इसलिए कि जिद में यदि गाँधी कि मृत्यु हो जाती तो इसका कारण दलितों ठहराया जाता और फिर हमेशा हमेशा के लए इस देश में दलितों के खिलाफ़ इसका इस्तमाल किया जाता। अम्बेडकर कि दूरदर्शिता ने इस दुर्घटना को बचा लिया। इससे भी हमें सीखना चाहिए।