Monday, July 22, 2013

क्या करूँ मैं.


क्या करूँ मैं.......
बनारस के अखबारों में एक खबर थी कि इटली की एक महिला-जो यहाँ घूमने आयी थीं- को एक अनाथ लावारिस बच्चा मिला जिसे लेकर वह शहर भर में घूमती रही कि उसे कोई जगह मिल जाये| चाइल्ड लाइन एवं स्वयं सेवी संस्थाओं से लेकर पुलिस तक| लेकिन कोई जगह नही मिली तो उसे मजबूरन उस बच्चे को लेकर धरने पर बैठना पड़ा, तब जाकर उसे कोई जगह मिल सकी| इस बच्चे को तो जगह मिल गयी परन्तु उस जैसे कई बच्चे हैं जिनके लिए कोई धरने पर बैठने वाला नही है| जिन्हें जगह नही मिल पायी उनका क्या होगा?

कुछ दिनों पहले बनारस में ही एक बच्चा चोर गिरोह के पास से लगभग एक दर्जन बच्चे बरामद हुए थे; जिनकी उम्र आठ से बारह वर्ष थी| आये दिन बनारस के आस-पास से बच्चों के गायब होने की खबरें आतीं रहतीं हैं| आखिर कहाँ जाते हैं ये बच्चे? एक तरफ भीख मांगनेवाले बच्चों की संख्या में लगातार इजाफा होता जा रहा है और दूसरी तरफ बच्चों के गायब होने की वारदातें भी बढ़ रही हैं| जब हम लोग काशी हिंदू विश्वविद्यालय में पढ़ने आये थे उस समय लंका पर इक्का-दुक्का लावारिस बच्चे दिख जाते थे, परन्तु अब लगभग दो दर्जन लड़के-लड़कियां भीख मांगते रहते हैं| इनमे बारह-चौदह साल कि एक-दो लड़कियां भी हैं| कहा जाता है कि बच्चे ही किसी देश के भविष्य होते हैं; तो जिस देश में बच्चे फुटपाथ और रेलवे स्टेशनों पर जीवन बिताने के लिए अभिशप्त हों, उस देश का भविष्य क्या होगा? मेरे मन में दो सवाल उठते हैं; एक तो यह कि इसमें गलती किसकी है और दूसरा यह कि जिम्मेदारी किसकी है| क्या कोई गलती उन बच्चों की  भी है जिन्हें दो शरीरों ने धरती पर लाकर पटक दिया| ऐसे में क्या कोई जिम्मेदारी उस राष्ट्र की भी बनती है या नही, जिस राष्ट्र के वे जन्मजात नागरिक हैं|

मुझे कुछ  दिनों पहले की एक घटना याद आती है| कवि केदारनाथ सिंह एक संगोष्ठी के सिलसिले में बनारस आये हुए थे| उन्हें मुगलसराय स्टेशन से रात एक बजे वाली राजधानी पकड़नी थी| हमलोग साढ़े बारह बजे स्टेशन पहुँच गए| रेलगाड़ी का समय बढ़ता जा रहा था और हम लोगों का धैर्य जवाब देता जा रहा था| वो तो केदार जी के सानिध्य का लोभ था कि आधी रात में भी चला गया था| वहीँ प्लेटफार्म पर बैठे रहे| मैं जिन साहित्यकारों से मिल चुका हूँ उनमें केदार जी का व्यक्तित्व बड़ा ही चुम्बकीय लगता है| रात करीब डेढ़ बजे चार-पांच बच्चे जिनकी उम्र आठ से बारह के बीच रही होगी; जो रेलवे स्टेशनों पर अपना जीवन बिताते हैं, हम लोगों की बगल में आकर लेट गए| उनमें से किसी के भी बदन पर ढंग के कपड़े नही थे| एक ने तो निक्कर के अलावा कुछ भी नही पहना था| मैंने अभी तक कोई विशेष ध्यान नहीं दिया था क्योंकि केदारजी की बातें सुनना प्रियकर था| लेकिन थोड़ी ही देर बाद दो लड़के और आये जिनमें एक की उम्र सात-आठ साल रही होगी| मेरा ध्यान उनकी तरफ गया| उनमें से एक के हाथ में पॉलिथिन थी जिसमें मुश्किल से सौ ग्राम नमकीन रही होगी| ताज्जुब मुझे इस बात पर हुआ की उसने सबको जगाया और थोड़ी-थोड़ी नमकीन दी| मैं सोचता हूँ की कुदरत ने इन्हें इतनी सहनशक्ति कहाँ से दी| उन्हें देखकर मैं अंदर से डर गया| यह सोच कर मेरा रोम-रोम सिहर उठा कि इनकी जगह यदि हमारे बच्चे होते तो? यूँ तो कोई न कोई तकलीफ सबको लगी ही रहती है लेकिन वह फ़िल्मी गीत मुझे बार-बार याद आता है-‘दुनिया में कितना गम है, मेरा गम कितना कम है|’
थोड़ी देर बाद एक लड़का और आया जिसके हाथ में कुछ मिठाई के टुकड़े थे; उसने फिर सबको जगाया और उसमें से थोडा-थोडा दिया| जो सबसे छोटा था सब उसे जगाने की कोशिश कर रहे थे| वह बिना कुछ खाए ही सो गया था| और उनका भोजन क्या है-रेलयात्रियों द्वारा फेका गया खाद्य पदार्थ| कोई भी ट्रेन आती तो वे दौड़ जाते, लेकिन मुझे आश्चर्य हुआ की राजधानी के आने पर हिले तक नहीं| मैंने पूछा तो बताया कि राजधानी वाले कुछ नहीं फेकते| जो सबसे छोटा बच्चा था उसको सब बाबू कहकर बुलाते थे| वह अभी नया-नया आया था| इलाहाबाद में उसे किसी ने ट्रेन में बिठाकर छोड़ दिया| वह कौन हो सकता है जिसने उस मासूम को छोड़ दिया होगा, यदि उसके माँ-बाप ने ही उसे छोड़ा है तो वह कौन सी परिस्थितियाँ होंगीं जिनसे मजबूर होकर उन्हें यह कदम उठाना पड़ा होगा| वह किसी तरह मुगलसराय पहुँच गया| इन लड़कों ने यथासामर्थ्य उसकी जिम्मेदारी ले रखी थी| फिर दिल्ली कि ट्रेन पर बिठाया भी कि वापस घर चला जाए परन्तु वह किस घर जाता? बीच रास्ते से ही वापस आ गया और उन्हीं बच्चों के साथ रहने लगा| वह सबका स्नेह पात्र बन गया था| अब सब जग गए थे और बैठकर खेल रहे थे| बाबू बार-बार यह कह रहा था कि वह बड़ा होकर एक बहुत बड़ा मकान बनवाएगा और सबको अपने साथ रखेगा| वह सबको अच्छा-अच्छा खाना खिलाएगा फिर सबकी शादी करेगा| इस बात पर सब जोर-जोर से हंसने लगते और बाबू को फिर से कहने के लिए कहते| बार-बार उससे कहलवाकर सुनते जाते और हंसते जाते| ‘वह हंसी बहुत कुछ कहती थी’|

रात के तीन बज चुके थे, मैं अभी उनसे बात कर ही रहा था कि इतने में राजधानी एक्सप्रेस आ गयी| केदारजी को ट्रेन में बिठाकर हम लोग वापस आ गए| रास्ते में मुझे केदारजी की ही एक कविता याद आती रही- “क्या करूँ मैं/ क्या करूँ, क्या करूँ/ कि लगे कि मैं इन्हीं में से हूँ/ इन्हीं का हूँ/यही हैं मेरे लोग/जिनका मैं दंभ भरता हूँ अपनी कविता में/और यही,यही/जो मुझे कभी नही पढ़ेंगे/छू लूँ किसी को,लिपट जाऊं किसी से/मिलूं, पर किस तरह मिलूँ/ कि बस मैं ही मिलूँ/ और दिल्ली न आए बीच में/क्या है कोई उपाय/कि आदमी सही साबूत निकल जाए गली से/और बिल्ली न आए बीच में|”