Sunday, September 22, 2013

जो रचेगा वही बचेगा- बृजराज सिंह


जनसत्ता, 7 सितम्बर को अपने आलेख ‘अभिव्यक्ति की आजादी और दलित’ में एक बार फिर धर्मवीर ने अपना अलगाववादी सुर अलापा है। धर्मवीर बहुत पढ़े लिखे और बुद्धिमान लेखक हैं; लेकिन उनके लेखन को देखकर यह कहा जा सकता है कि उनका सारा ज्ञान केवल किताबी है। कहा जाता है कि जब किसी रेखा को बिना छुए छोटा करना हो तो उसके समान्तर एक बड़ी रेखा खींच देनी चाहिए. लेकिन यह जहमत कौन उठाए. जो पहले से बनी है उसी को मिटा देना चाहिए. धर्मवीर जैसे लोग यही कर रहे हैं. बड़ी रेखा नहीं खींच सकते तो पहले की रेखा को ही मिटा देना चाहते हैं. यह लेख पढ़कर मुझे दो घटनाएं याद आ रहीं हैं; जिसमें से एक इतिहास से संबंधित है तो दूसरी वर्तमान से.
पहली घटना बनारस की है. पिछले दिनों काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में एक उपन्यास का लोकार्पण समारोह था. उपन्यास लेखक दलित थे. कालीचरण सनेही समारोह के मुख्य अतिथि थे; जिनकी ख्याति एक दलित चिन्तक के रूप में है। अपने एक घंटे के भाषण में उन्होंने उस कृति पर एक शब्द भी नही बोला। बल्कि अपने पूरे भाषण में वे सवर्णों को गलियां देते रहे। सिर्फ़ सवर्णों को ही नही बल्कि उस लेखक की भी जमकर खिचायी की; क्योंकि उसने सभा में सवर्णों को भी आमंत्रित किया था। उन्होंने साफ़ कहा कि दलितों को सवर्णों के साथ नहीं रहना चाहिए। लेखक को उन्होंने यह भी धमकी दी कि तुम्हें दलित लेखकों कि सूची से निकाल दिया जायेगा, तुम न इधर के रहोगे न उधर के। यह है साहित्य का आरक्षण; जिसके खतरे की तरफ प्रगतिशील लेखक संघ की पिचहत्तरवीं सालगिरह पर आयोजित समारोह में बोलते हुए नामवर सिंह ने इशारा किया था। दरअसल नामवर सिंह उस वैमनस्य की ओर इशारा कर रहे थे जो दलितों और सवर्णों के बीच पनप रहा है। जिसे गाँधी जी ने कहा था कि अंग्रेज सरकार हिन्दुओं को भी दो फाड़ कर देना चाहती है.
ऐसी स्थिति में समता, समानता और भाईचारे की मंजिल कैसे प्राप्त कर सकते हैं? हम देख रहे हैं कि हर जाति के नाम पर एक राजनीतिक पार्टी बन गयी है। कुछ दिनों पहले अख़बारों में एक आकड़ा प्रकाशित हुआ था, जिसके अनुसार २०१० में अनुसूचित जाति के लोगों पर हुए हमलों में पूरे देश के बीस फीसदी मामले अकेले उत्तर प्रदेश के हैं। यह कुल आंकड़े का सर्वाधिक हिस्सा है। यह इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि उत्तर प्रदेश में पिछले पांच वर्षों से बहुजन समाज पार्टी की सरकार थी। इस तरह की फिरकापरस्त ताकतों को किसी भी तरह से बढ़ावा नही दिया जा सकता. चाहे वह लेखक ही क्यों न हो. प्रकारांतर से धर्मवीर जैसे लेखक भी इन्ही फिरकापरस्तों का साथ दे रहे हैं.
दूसरी घटना ‘पूना पैक्ट’ से संबंधित है. ब्रितानी सरकार ने पूरी तरह से तय कर लिया था कि ‘कम्यूनल अवार्ड’ के तहत अस्पृश्य जातियों को अल्पसंख्यकों और अन्य समुदायों की तरह अलग से संविधान में पृथक निर्वाचन की व्यवस्था की जाएगी. महात्मा गाँधी ने इस फैसले को भारत की एकता को खंडित करने का षड़यंत्र बताकर इसके विरोध में आमरण अनशन करने की घोषणा कर दी. गाँधी जी की तबियत इस अनशन की वजह से बहुत तेजी से बिगड़ने लगी. अब सामने विकट प्रश्न खड़ा था कि क्या होगा। देश के बड़े-बड़े नेता मदनमोहन मालवीय, राजगोपालचारी तथा दलित वर्गों के नेता अंबेडकर और दूसरे प्रतिनिधि इस गुत्थी को सुलझाने के लिए इकट्ठा हुए। । तीन दिन तक खूब विचार विमर्श हुआ। चर्चा में कई उतार चढ़ाव आए। अंत में 24 सिंतबर को सबने एकमत से  समझौते पर हस्ताक्षर कर दिए, जो ‘पूना पैक्ट’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसमें अम्बेडकर को अपने निर्णय से समझौता करना पड़ा. न चाहते हुए भी अम्बेडकर को पीछे हटना पड़ा. उन्होंने अपना फैसला वापस ले लिया इसलिए नही कि वे गाँधी या किसी और से डरते थे, बल्कि इसलिए कि जिद में यदि गाँधी की मृत्यु हो जाती तो इसका कारण दलितों को ठहराया जाता और फिर हमेशा हमेशा के लिए  दलितों के खिलाफ़ इसका इस्तेमाल किया जाता। अम्बेडकर की  दूरदर्शिता ने इस दुर्घटना को बचा लिया। यह अम्बेडकर की कायरता नहीं थी बल्कि कृष्ण की तरह युद्ध की स्थितियों से बचने के लिए रणछोड़ कहे जाने की विवशता थी. अम्बेडकर यह जानते थे कि यदि इस मुद्दे की वजह से गाँधी की मृत्यु हो गयी तो देश भर में अछूतों के खिलाफ हिंसा होगी और  कभी न खत्म होने वाली कटुता फैल  जाएगी. दलित लेखक माता प्रसाद ने एक बार कहा था कि कल्पना कर के देखिए कि यदि अम्बेडकर ऐसा नहीं करते तो क्या होता. अम्बेडकर समर्थकों को इससे भी कुछ सीखना चाहिए या नहीं।
जहाँ तक दलित साहित्य का सवाल है तो हमारी तरफ एक कहावत कही जाती है कि “घी का लड्डू टेढ़ा भला”. लेकिन यह सिर्फ स्वाद का मामला है । यदि लड्डू की बात कहेंगे तो उसे गोल होना ही पड़ेगा. वह लम्बा या अंडाकार नहीं हो सकता. कला या साहित्य का भी कुछ-कुछ यही नियम होना चाहिए. दलित लेखकों की रचनाओं का स्वागत है. उनकी उत्कृष्टता से भी कोई परहेज नहीं है लेकिन शर्त यह कि उसे तुलसीराम की ‘मुर्दहिया’ जैसा होना पड़ेगा. है किसी की मजाल जो मुर्दहिया पर प्रश्न उठा दे सिर्फ इसलिए कि उसका लेखक एक दलित है. साहित्य में आरक्षण जैसी व्यवस्था के हिमायती लोग दरअसल अपनी कमजोरियों को छिपाना चाहते हैं. एक बार तुलसीराम जी ने कहा था कि जो लोग यह कहते हैं कि सिर्फ दलित ही दलित साहित्य लिख सकता है दरअसल वे दलितों और उनके साहित्य के साथ षड़यंत्र कर रहे होते हैं. उसे उसकी समृद्ध परंपरा से काट देना चाहते हैं.
धर्मवीर कहते हैं कि साहित्य में ऐसी दबंगई चल रही है कि लोकतंत्र का नामोनिशान तक नही है. वे भूल जाते हैं कि देश में जो थोड़ा बहुत लोकतंत्र बचा है वह सिर्फ साहित्यकारों, लेखकों और पत्रकारों के जोखिम और साहस से ही बचा है. उन्हें संसद में साहित्य से ज्यादा लोकतंत्र दिखाई पड़ता है. इतनी कमजोर स्मृति होगी उनकी इसकी कल्पना भी नहीं थी मुझे. अभी कुछ दिनों पहले कंवल भारती की गिरफ्तारी उन्हें याद रहती तो वे शायद ऐसा नहीं कह पाते. दरअसल धर्मवीर जिस वर्ग(क्लास) से आते हैं उसे देखते हुए यह कोई अनहोनी बात नहीं है. लेकिन उन्हें चाहिए कि जमीनी सच्चाई से रूबरु हों. इतनी कोशिशों के बावजूद पिछले कुछ वर्षों में अवर्णों और सवर्णों की बीच की दूरियां बढीं हैं. एक बार जब मैंने अपनी इस दुविधा को दलित लेखक(हांलाकि मैं दलित लेखक विशेषण से इत्तेफाक नहीं रखता) मलखान सिंह से साझा किया तो उनका जवाब मुझे कुछ हद तक सही लगा. उन्होंने कहा कि ‘वाद विवाद संवाद’ तीन स्थितियां होती हैं. वाद और विवाद की स्थिति चल रही है फिर संवाद की स्थिति भी आएगी. बस हमें ख्याल रखना चाहिए कि संवाद के लिए जगह बची रहे. धर्मवीर जैसे लोग उस संवाद की स्थिति को भी नहीं रहने देना चाहते हैं.

साहित्य अकादेमी पुरस्कार न पाना कहीं से भी किसी भी लेखक चाहे वह अवर्ण हो या सवर्ण की गुणवत्ता पर प्रश्न चिन्ह नहीं लगा सकता. न वह अभिव्यक्ति की आजादी से जुड़ा मसला है. अभियक्ति की आजादी को इतना तुच्छ करके नहीं देखना चाहिए. कोई भी लेखक पुरस्कारों के लिए नहीं लिखता. कबीर,तुलसी या रैदास को साहित्य अकादेमी नहीं मिला था । किसी भी लेखक का उद्देश्य पुरस्कार पाना नहीं हो सकता. एक छोटी सी कविता याद  आ रही है-वे पेंड़ नहीं/ शाखा लगाते हैं.दरअसल धर्मवीर जैसे लोग भी पेड़ उखाड़कर शाखा की सिचाई करना चाहते हैं.  

Saturday, September 21, 2013

क़दमों ने ही बनाए हैं सारे रास्ते

क़दमों ने ही बनाए हैं सारे रास्ते

एक कहावत के अनुसार कहा जाता है कि जब दुनिया बनी थी तब इस पर रास्ते नहीं थे. सारे रास्ते लोगों ने ही चल चल कर बनाये हैं. पगडंडियाँ आज भी इस कहावत को चरितार्थ करती हैं. किसी एक रास्ते पर बार-बार चलने से पगडंडियाँ बनती हैं. यह व्यक्ति की अदम्य जिजीविषा और उसके दृढ़ आत्मविश्वास का परिचायक होती है. ये पुरुष और प्रकृति के साहचर्य का सबसे जीवंत उदाहरण होती हैं. बालक उंगली पकड़ कर चलना सीखता है तथा पगडंडियाँ पकड़ कर मंजिल की ओर बढ़ता है. मनुष्य का बालहठ कि उसे रास्ता चाहिए ही चाहिए. प्रकृति लम्बे समय के मनुहार के बाद उसे पतली-सी धारीनुमा रास्ता बनाने की अनुमति देती है. पगडंडियाँ मनुष्य को रास्ता बताती हैं; उसे अपने पूर्वजों के बनाये रास्ते पर चलना भी सिखाती हैं. पगडंडियाँ मनुष्य को परम्परा से जोड़ती हैं; आदमी के लम्बे संघर्ष की द्योतक होती हैं. पगडंडियों की गवाही देना अपनी परम्परा से जुड़ना है; लगाव है. चमचमाते नेशनल हाइवे के जमाने में पगडंडियों की गवाही देना मनुष्य के लम्बे जीवन संघर्ष को स्वीकार करना और उसे आदर देना है. यह आधुनिकता और परम्परा के द्वंद्व जैसा है. अत्याधुनिक औजारों ने पगडंडियाँ नहीं बनायीं हैं. आदमी के अनवरत चलने वाले पैरों की गवाह हैं पगडंडियाँ. दैत्याकार मशीनों द्वारा पृथ्वी का सीना चीर कर बनाये गए रास्तों में इतनी आत्मीयता नही हो सकती.
डिगे भी हैं/लड़खड़ाए भी/ चोटें भी खाई कितनी ही/ / पगडंडियाँ गवाह हैं/ कुदालियों, गैतियों/ खुदाई मशीनों ने नहीं/ क़दमों ने ही बनाए हैं-/ रास्ते.
पगडंडियों की गवाही देना साबित करता है कि कवि की चिंता का केंद्र सामान्य मनुष्य है जिसका जीवन उसकी परम्परा से गहरे जुड़ा होता है. इससे कवि कि पक्षधरता का सहज ही अनुमान लग जाता है कि उसकी आत्मीयता उस बहुसंख्यक समाज से है जो आज भी अपनी धरती और अपने लोगों से प्यार करते हैं. कवि को कंकड़ छांटती औरत, पत्थर चिनाई तथा रंग पुताई करता मजदूर, लोक वृक्ष, एवं अन्य कविता के लिए प्रेरित करते हैं. कवि को धरती से बहुत लगाव है. इसीलिए वह कहता है-
पृथ्वी पर लेटना/ पृथ्वी को भेटना भी है/ खास कर इस तरह/ जिंदा देह के साथ/ जिंदा पृथ्वी पर लेटना.
उसे पृथ्वी की अवमानना बिल्कुल भी पसंद नहीं. एक तरफ वह जहाँ अत्याधुनिक कहे जाने वाले समय में पगडंडियों की गवाही देता है, वही दूसरी तरफ पृथ्वी और उससे जुड़े पुराने मुहावरों को दुरुस्त भी करता जाता है. कृष्ण कुमार ने अपने एक भाषण में कहा था कि कवि शब्दों में नया अर्थ भरता है. शब्दकोश में पड़े शब्द किसी कवि का इंतजार करते हैं. कहने की जरूरत नहीं कि भाषा को परिष्कार की जरूरत होती है. आधुनिक साहित्य ने तमाम ऐसे मुहावरों को बाहर कर दिया या उनके अर्थ बदल डाले जो किसी न किसी रूप में मनुष्यता और सामाजिक व्यवस्था के अनुकूल नहीं थे. यहाँ कवि ने पृथ्वी से जुड़े महावरों पर नया दृष्टिकोण दिया है-
मिट्टी में मिलाने/ धूल चटाने जैसी उक्तियाँ/ विजेताओं के दंभ से निकली हैं/ पृथ्वी की अवमानना है/ इसी दंभ ने रची है दरअसल/ यह व्याख्या और व्यवस्था/ जीत और हार की.
कवि की यह पक्षधरता कोरी भाउकता भर नहीं है. वह पृथ्वी के साथ-साथ उन लोगों पर भी कविता लिखता है जो इस पृथ्वी को सुंदर बनाने में दिन रात लगे रहते हैं. अत्मरंजन ने कामगारों पर कविताएँ लिखी हैं. इनमें एक मजदूर को सिर्फ उसकी मजबूरी से उपजी विवशता के तहत प्रदर्शित नहीं किया गया है बल्कि उसके काम के प्रति लगाव और तन्मयता को बखूबी चित्रित किया गया है. मजदूर सिर्फ मजदूर नहीं होता. वह सर्जक होता है. वह एक तरह का कलाकार होता है. जिस एकाग्रता और रचनात्मकता के साथ वह काम करता है वैसा सिर्फ एक कलाकार ही कर सकता है. अत्मारंजन के यहाँ पत्थर चिनाई करने वाला एक मूर्तिकार से कम नहीं है और घरों में रंग पुताई करने वाला मजदूर किसी चित्रकार से कम नहीं है. सबसे बड़ी और लोगों को आश्चर्यचकित कर देने की छमता रखने वाली पंक्तियाँ कि पत्थर से चौबीस घंटे के  संग-साथ के बावजूद वह मजदूर पत्थर का नहीं हुआ है. वहीं रंग पुताई करने वाला मजदूर घर की दीवारों से सीलन निकालने के क्रम में पृथ्वी की सीलन को निकल रहा है. उसके हुनरमंद हाथ पृथ्वी की देह पर मरहम लगाने का काम करते हैं. विकास की अंधी दौड़ में शामिल होने के लिए प्रकृति से जो जबरदस्ती की जा रही है उससे उपजे घावों पर यही लोग मरहम लगाते हैं. याद रखना चाहिए कि यही लोग पगडंडियाँ बनाते हैं और उसपर चलते भी हैं.
पत्थर चुनता है वह/ पत्थर बुनता है/ पत्थर गोड़ता है/ तोड़ता है पत्थर/पत्थर कमाता है पत्थर खाता है/../ पत्थर के हैं उसके हाथ/ पत्थर का जिस्म/ बस नहीं है तो रूह नहीं है पत्थर// एक एक पत्थर को सौंपता अपनी रूह.
आत्मारंजन के यहाँ पहाड़ों का जन जीवन अपनी पूरी शिद्दत के साथ प्रकट होता जरूर है परन्तु इन्हें केवल पहाड़ी जीवन के साथ सीमित कर के देखना उन्हें कम कर के आंकने के बराबर है. उनकी चिंता में लुप्तप्राय लोक गीतों का अमर वृक्ष मदनू और लोकगीतों का एक प्रकार जुल्फिया शामिल है जो पूरे भारतीय एवं वैश्विक परिदृश्य पर समकालीन चिन्तन के केंद्र में हैं. विकास और विनाश के बीच झूझती मानवीयता के लिए इन प्रश्नों का महत्त्व बढ़ गया है. ये वे संस्कृतियाँ हैं जो कवि के शब्दों में कहें तो इन्हें ‘पीपल की तरह बस्ती के बीचो-बीच शुचिता के ऊँचे चबूतरे बिराजमान’ तथा ‘देवदार की मानिंद देव संस्कृति से जुड़े होने का गौरव’ प्राप्त नही है. बेहतर समाज निर्माण के स्वप्नों में श्रम के महत्त्व को दुनिया भर में स्वीकृति मिली है. लोक जीवन और लोक संस्कृति को अपनी चिंता में स्थान देना उसी श्रम के महत्त्व को स्वीकार करना है. उसी बेहतर दुनिया के स्वप्न में शामिल होने जैसा जिसमें श्रम की केन्द्रीयता होगी. जुल्फिया लोक गायन शैली के विलुप्त होने के दुःख के साथ कवि कवि प्रश्न करता है –
कैसे और किसने किया/ श्रम के गौरव को अपदस्थ/ क्यों और कैसे हुए पराजित तुम खामोश/ अपराजेय सामूहिक श्रम की/ ओ सरल सुरीली तान/ कुछ तो बोलो जुल्फिया रे!



Wednesday, September 4, 2013

भाषा की क्षति आर्थिक क्षति भी है

भाषा की क्षति आर्थिक क्षति भी है

बृजराज सिंह


वडोदरा के भाषा शोध और प्रकाशन केंद्र के पीपुल लिंगुइस्टिक सर्वे के अनुसार पिछले पचास वर्षों में भारत की बीस फ़ीसदी मातृभाषाएं बिलुप्त हो गयीं हैं. यह कहना है पीपुल लिंगुइस्टिक सर्वे के मुख्य संयोजक गणेश दवे का. पिछले दिनों इस सम्बन्ध में पीपुल लिंगुइस्टिक सर्वे ने एक रिपोर्ट पेश की है. 1961 की जनगणना के बाद भारत में करीब 1650 मातृभाषाओं का पता चला था. इसमें सरकार ने माना था की लगभग 1100 भाषाएँ अस्तित्व में हैं; और यह भी तब जब प्रत्येक भाषा को बोलने वाले कम से कम 10 हजार की संख्या में हों. गणेश दवे का कहना है कि उसके बाद ऐसी कोई भी सूची नहीं बनाई गयी. इस पूरे सर्वे में लगभग तीन हजार लोग शामिल थे जिन्होंने मिलकर कुल 800 के आसपास भाषाओँ की खोज कर सके. बाकी की भाषाओँ का पता नहीं चला. इसका मतलब था कि बाकी की भाषाएँ मर गयीं. इस सर्वे के अनुसार जो भाषाएँ लुप्त हुयी हैं उनमें ज्यादातर समुद्री किनारे के क्षेत्रों तथा बंजारा समुदायों की भाषाएँ थीं. शहरों का बढ़ता दायरा भी उसके पीछे कारण है. इसीलिए वे कहते हैं कि शहरों में भाषाओँ को बचाने के लिए जगह रखनी चाहिए. रमेश दवे ने एक और बहुत अच्छी बात कही है कि भाषाओँ की क्षति आर्थिक क्षति भी है. भाषा के सम्बन्ध में यह एक नयी बात है. वे कहते हैं कि हर भाषा में पर्यावरण से संबंधित एक खास तरह का ज्ञान जुड़ा होता है. जब एक भाषा चली जाती है तो उसे बोलने वाले पूरे समूह का ज्ञान लुप्त हो जाता है. जो एक बहुत बड़ा नुकसान है क्योंकि भाषा  एक ऐसा माध्यम है जिससे लोग अपनी सामूहिक स्मृति और ज्ञान को जीवित रखते हैं.
अब यह देखना भी दिलचस्प होगा कि जिनकी भाषाएँ मर रही हैं वे लोग खुद भी मर रहे हैं. उन्हें मारने के लिए पहले उनकी भाषाओँ को मारा जा रहा है. देश में आदिवासी आज भारी संकट में हैं. उन्हें उनके मूल निवासों से भगाया जा रहा है ताकि वहां पर खनन का लूटतंत्र निर्बाध रूप से चलाया जा सके. देश को बड़ी बड़ी कंपनियों के हवाले करने का खेल जोरो शोरो से चल रहा है. उनकी भाषा को, उनकी अभिव्यक्ति को, उनकी सोच को पहले मार दिया जाये तो फिर उनको मारना आसान हो जाएगा. उनके लिए बोलने वालों को डरा दिया जाएगा. फिर जंगलों, पहाड़ों को बिना रोक टोक के लूटा जा सकेगा. भाषा का संबंध जातीय चेतना से जुड़ा होता है; सामूहिक चेतना से जुड़ा होता है. भाषा आत्मसम्मान तथा आत्मगौरव सिखाती है.
भाषा का संबंध सत्ता और बर्चस्व की संस्कृति से भी जुड़ा होता है. अगर ऐसा नहीं होता तो डोगरी संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल नहीं हो जाती-जिसे बोलने वाले बहुत ही कम रह गए हैं-और भोजपुरी, ब्रजी, अवधी तथा अन्य कई भाषाओँ को आज तक इतने लम्बे आंदोलनों के बावजूद जगह नहीं मिल पाई है. अंग्रेजी के बढ़ते बर्चस्व को भी हमें इसी रूप में देखना चाहिए. उपभोक्तावादी संस्कृति के समर्थक और उसके वाहक लोगों की भाषा अंग्रेजी ही है. विश्व को एक गाँव बना देने की मंशा तभी सफल हो पायेगी जब विश्व की भाषा भी एक हो. यह तभी होगा जब दुनिया की बाकी भाषाएँ दम तोड़ देंगी. दुनिया के कुछ देश इस समस्या और षड़यंत्र से सचेत रूप से लड़ भी रहे हैं. लेकिन भारत स्थानीय स्तर पर और वैश्विक स्तर दोनों पर असफल है. जो लोग आज छोटी मोटी भाषाओँ के मरने पर चिंतित नहीं हैं वे कल देश की बड़ी भाषाओँ के लुप्त होने पर भी चिंतित नहीं होंगे. अंग्रेजी आज हिंदी के साथ-साथ अन्य भारतीय भाषाओँ के लिए खतरे उत्पन्न कर रही है. दुनिया के व्यापार में भारत एक बड़े बाजार के रूप में देखा जा रहा है. अंग्रेजी के स्वीकार से यहाँ व्यापार करना आसान हो जाएगा. यही तो चाहती हैं उपभोक्तावादी और साम्राज्यवादी शक्तियाँ. जिस तरह से यह कहा जाता है कि ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में स्थानीय भाषाएँ हिंदी का मुकाबला नहीं कर पाएंगी उसी तरह बाद में यह कहा जाएगा कि हिंदी अंग्रेजी का मुकाबला नहीं कर सकती इसलिए हिंदी छोड़ अंग्रेजी को अपना लिया जाए. इसीलिए कभी-कभी हिंदी को भी रोमन लिपि में लिखने का सवाल उठ खड़ा होता है.
कोई भी व्यक्ति अपनी मातृभाषा में ही सबसे बेहतर सोच सकता है तथा उसे अभिव्यक्त कर सकता है. आजादी का मतलब भी अपनी भाषा में ही समझ और समझा सकता है. मैकाले का भारतीय शिक्षा नीति को लेकर ब्रिटेन की संसद में दिया गया भाषण तो सबको याद ही होगा जिसमें उन्होंने कहा था कि यदि भारत को लम्बे समय तक गुलाम बना कर रखना है तो उसे उसकी भाषा से दूर करना होगा. साम्राज्यवादी शक्तियों का मुकाबला अपनी भाषा को महत्व देकर ही किया जा सकता है. आजादी मिलने के इतने सालों बाद भी हम पूरी तरह से औपनिवेशिक मानसिकता से उबर नहीं पाए हैं. अंग्रेजी हमारी सोच को हर स्तर पर प्रभावित कर रही है. शिक्षा व्यवस्था पब्लिक स्कूलों के चंगुल में फसती जा रही है. सरकारी प्राथमिक स्कूल सिर्फ उनके लिए रह गए हैं जो किसी तरह से पब्लिक स्कूलों में नहीं जा सकते या जो आज भी बेहतर शिक्षा के प्रति उदासीन हैं. सरकारें जिस तरह से पब्लिक स्कूलों को सुविधाएँ मुहैया करा रही हैं तथा सरकारी स्कूलों के प्रति उदासीनता दिखा रही हैं; उससे तो साफ जाहिर है कि आने वाले दिनों में भारतीय शिक्षा व्यवस्था भी प्राइवेट हाथों में चली जाएगी. यह वैश्विक षड़यंत्र और उससे उपजे संकट हैं. अंग्रेजी को इन्टरनेशनल लैंग्वेज का नाम दिया जा रहा है. उसे आर्थिक अथवा व्यापार की भाषा के रूप में प्रस्तावित किया जा रहा है. यही साम्राज्यवादी एजेंडा है. ऐसे में कोई लेखक बुद्धिजीवी भाषाओँ को बचाने और उनकी अस्मिता के लिए लड़ने को साम्राज्यवादी एजेंडा या एजेंट कहे तो उसे क्या कहा जा सकता है.

छोटी छोटी अस्मिताओं का उभरना साम्राज्वाद के लिए सबसे बड़ा खतरा बन रहा है. इसीलिए थ्योंगो जैसे लोग गिरफ्तार किये जाते हैं. थ्योंगो ने कहा भी है कि जब मैं उनकी भाषा में लिखता था तब वे मुझे पुरस्कार देते थे  और जब मैं अपनी भाषा में लिखने लगा तो जेल में डाल दिया. हिंदी और उससे जुड़ी भाषाओँ (आम तौर पर जिन्हें बोलियाँ कहा जाता है) के संबंध में भी यही सच है कि जो लोग इन भाषाओँ के अस्तित्व को नकार रहे हैं वे जाने अनजाने साम्राज्यवादी एजेंडे को मदद पहुंचा रहे हैं. जो व्यवहार अंग्रेजी का हिंदी के प्रति है वही व्यवहार हिंदी को अपनी अन्य भाषाओँ के साथ नहीं करना चाहिए. संविधान कें शामिल सिर्फ 22 भाषाओँ को ही नहीं बल्कि भारत की सभी भाषाओँ को सरकारी सहायता और संरक्षण मिलना चाहिए. छोटी भाषाओँ को बचाने के हर संभव प्रयास किए जाने चाहिए. और यकीन मानिए इससे हिंदी को कोई नुकसान नहीं होगा.