Tuesday, October 29, 2013

बाजार की सल्तनत

खबर का मुंह विज्ञापन से ढका है
बृजराज सिंह


दिवाली आ रही है. विज्ञापन का बाजार गर्म है. अभी महीने भर भी नहीं बीता है जब भारत की आर्थिक स्थिति के ख़राब होने की ख़बरों से अख़बार और न्यूज चैनल भरे पड़े थे. महंगाई दर बढती जा रही थी. अचानक ऐसा क्या हो गया कि सब ठीक हो गया. अब कोई खबर नहीं आ रही है. संदेह होता आंकड़ों पर. देश में गरीबों की संख्या यदि लगभग अस्सी प्रतिशत है तो यह बाजार किनके भरोसे चल रहा है. त्यौहार का मौसम सबके लिए कमाई का होता है. अख़बारों के पन्ने विज्ञापन से ढके पड़े हैं. अद्भुत है यह देश. सच में खबर का मुंह विज्ञापन से ढका है. अमेरिका जैसे देशों में भी शटडाउन की नौबत आ गयी है. अभी दशहरा बीता है. क्या कहीं ऐसा लगा कि किसी को कोई दिक्कत है. बाजार में भीड़ उसी तरह थी जैसी पिछले साल देखी गयी थी. कुछ लोगों को शिकायत भी रहती है कि त्योहारों पर आजकल बाजारों में बहुत भीड़ रहती है, पहले इतनी भीड़ नहीं हुआ करती थी. अमीर लोग मध्यवर्ग को कोसते हैं कि ये सब भीड़ बढ़ा रहे है और मध्य वर्ग बहुसंख्यक निम्न वर्ग को कोसता है कि बाजार में अब क्लास मेंटेन नहीं रह गया है. उन्हें शिकायत रहती है कि अब ये मॉल और मल्टीप्लेक्स में भी आने लगे हैं.
बाजार हमारे रोज के जीवन में इस तरह घुस चुका है कि इससे दूर जा पाना मुश्किल है. आश्चर्य है कि जो लोग कल तक बाजार और उपभोक्तावाद के पैरोकार थे वही लोग अब शटडाउन और फिजूलखर्ची रोकने की बाते कर रहे हैं. दुनियाभर में उपभोक्तावाद और भूमंडलीकरण को जरूरी बताने वाले अमेरिका जैसे देश आज बेहद आर्थिक संकट से गुजर रहे हैं. भारत की पारंपरिक अर्थ व्यवस्था इस संकट से निकलने में सक्षम थी. पिछले दस वर्षों से देश के प्रधानमंत्री और अर्थशास्त्री कहे जाने वाले मनमोहन सिंह को आज कहना पड़ रहा है कि इस बार दिवाली पर उन्हें उपहार देने वाले लोग उस धनराशि को प्रधानमंत्री राहत कोष में जमा कर दें. यही कभी देश के बित्तमंत्री और रिजर्व बैंक के गवर्नर भी रहे थे. जिन्होंने अपनी दूरदर्शी नीति के तहत देश को भुमंडलीकरण और उपभोक्तावाद की तरफ धकेला. अभी दो महीने पहले ही प्रधानमंत्री ने यह भी कहा था कि हमारे देश के लोग फिजूलखर्ची ज्यादा करते है. विदेशी शोपीस पर करोड़ों रुपये लुटाते हैं. देश की स्थिति को देखते हुए उन्हें इसे बंद कर देना चाहिए. सवाल यह है कि प्रधानमंत्रीजी को अब जाकर पता चला है कि जिसे वे समझते थे कि विकास का रास्ता है वह तो बड़ी सी खाई निकली. चार-पांच साल पहले जब दुनिया आर्थिक मंदी से गुजर रही थी तब भी भारत पर उसका असर कम पड़ा था. उसका कारण यहाँ की पारंपरिक अर्थ व्यवस्था तथा नागरिकों की संचय करने की प्रवृत्ति. देश के नीति निर्माता लोग आंख बंद करके नीतियाँ बनाते हैं. माना कि बाजार से लड़ पाना नामुमकिन है परन्तु उसे पूरी तरह से स्वीकार कर लेना उसके सामने घुटनों टेक लेने जैसा है. बुद्धजीवियों का एक वर्ग हमेशा से इसके खतरों की तरफ ईशारा करता रहा है, सचेत भी करता रहा है;परन्तु उनकी कौन सुनता है. अपने देश में वह पुरानी पीढ़ी समाप्त होने लगी है। जिसका जोर अपरिग्रह, बचत और सादा रहनसहन पर था.
उपभोक्ता को अंग्रेजी में कंज्यूमर कहते हैं. अंग्रेजी में कंज्यूम शब्द का इस्तेमाल पहले ख़त्म कर देने या नष्ट कर देने के अर्थ में किया जाता था. इसीलिए आज भी जल कर ख़त्म हो जाने या खाक हो जाने के लिए ‘कन्ज्युम्ड बाय फायर’ पद  का इस्तेमाल किया जाता है. त्यौहार पहले भी आते थे परन्तु उनपर बाजार का प्रभाव इतना नहीं था. दिवाली  पर मिट्टी के दिए तेल में जलाये जाते थे. अब इलेक्ट्रिक बल्ब ने उसकी जगह ले ली है. अब बाजार हमें यह बताता है कि हमें त्यौहार कैसे मनाना चाहिए. उसमें बाजार आपकी मदद करेगा. इस त्यौहार खुशियाँ घर लाना चाहते हैं तो डेरी मिल्क का उपहार पैकेट लायें. यदि आप अपने घरवालों से प्यार करते हैं तो उन्हें पेप्सी पिलाएँ. अब बाजार हमारी आवश्यकताएं भी निर्मित करता है. छद्म आवश्यकताओं का सृजन किया जाता है. भारत के लोग अपरिग्रह और संचय में विश्वास करते थे. गमछे(तौलिया) को महीनों पहले कंधे पर रखते थे, फिर उसे तौलिया के रूप में इस्तेमाल करते थे. पुराना हो जाने पर उसे कई और कामों में लाया जाता था. फिर अंत में उससे घर में पोछा लगाने का काम लिया जाता था. कहने का मतलब यह है कि वस्तु के रेसे- रेसे का इस्तेमाल किया जाता था. अब हर चीजें बाजार में उपलब्ध हैं. हर वर्ग के लिए. जुगाड़ तकनीक इतनी भी बुरी चीज नहीं है. बाजार जाने वाला हर व्यक्ति अब केवल उपभोक्ता है, ग्राहक नहीं. उपभोक्तावाद के सबसे बड़े शिकार महिलाएं और बच्चे हैं. अभी एक दिन एक खिलौनों के दूकानदार ने बताया कि एक सज्जन रोज अपने बच्चे के लिए नया खिलौना ले जाते हैं. एक दिन किसी कारण से खिलौना नहीं ले जा पाए तो बच्चे ने रात में खाने से इंकार कर दिया. रात हो चुकी थी.बाजार बंद हो चुके थे. उन्होंने दूकानदार को फोन किया. दुकानदार घर से आकर उन्हें खिलौना दिया.
इतने सब के बावजूद आज जब खुदरा बाजार में एफडीआई का विरोध किया जाता है तो सरकार को यह विकास विरोधी बात लगती है. उपभोक्तावाद जन विरोधी नीति है. इसपर अंकुश लगाना चाहिए. देर से ही सही. इस मामले में गाँधी जी सचमुच दूरदृष्टि वाले ठहरते हैं. बाजार का वैसा सतर्क विरोध और कोई नहीं कर पाया. अपनी आवश्यकताओं को इतना कम कर लेना कि बाजार की कोई भी ताकत उसे छल ना सके. आज इस बात की बेहद जरूरत है कि हम समय के साथ चलते हुए अपनी जड़ों से जुड़े रहें. उत्तराखंड और फिलिन जैसे प्राकृतिक आपदाओं बाद तो यह और भी जरूरी है.