Wednesday, December 25, 2013

देख लो काशी में तुम जाकर निशाने मालवीय।।

मदन मोहन मालवीय



मदन मोहन मालवीय का जन्म आज ही के दिन यानी 25 दिसम्बर 1861 को हुआ था. वे एक महान राष्ट्रीय नेता, स्वतंत्रता सेनानी, भारतीय नवजागरण के सक्रिय सदस्य, शिक्षाविद् तथा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक थे. काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का छात्र होने के नाते मालवीय जी से परिचय तो विश्वविद्यालय के पहले दिन से ही हो गया था। यहाँ पढ़ने-पढ़ाने वाले हर व्यक्ति की जुबान पर मालवीय जी नाम रहता है। अपने संस्थापक के प्रति जैसी कृतज्ञता का भाव काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का रहता है, वैसा अन्यत्र देखने को नहीं मिलता है। लेकिन उसमें पूजा भाव ही ज्यादा रहता है। मालवीय जी को लेकर प्रगतिशील लोग अजीब पशोपेश में रहते हैं। कांग्रेस में उनकी पहचान हिंदूवादी धड़े के मुखिया के रूप में ज्यादा थी। विश्वविद्यालय के नाम का ‘हिन्दू’ शब्द, उनकी वेशभूषा, पगड़ी, तिलक लगा ललाट, उनके बारे में प्रचलित अनेक कहानियाँ- कुल मिलाकर उनकी जो तस्वीर बनती थी, उसमें वे प्रतिक्रियावादी, शुद्धतावादी, कर्मकांडी ही ठहरते थे। लगभग दस साल बी.एच.यू. में रहने के बाद धीरे-धीरे मेरी धारणा बदलती रही. इधर समीर पाठक ने उनके लेखों/ निबंधों का एक संग्रह तैयार किया है जिसमें कई दुर्लभ दस्तावेज हैं; जिन्हें देखने/पढ़ने के बाद कोई भी उन्हें इतनी बेबाकी से हिंदूवादी नहीं कह सकता. काशी हिन्दू विश्वविद्यालय आज जिस ऊँचाई पर पहुंचा है उसमें निःसंदेह मालवीय जी का विजन काम कर रहा है। वहां सिद्धांत के साथ-साथ व्यवहार की शिक्षा भी दी जाती है. वहां सत्य पहले फिर आत्मरक्षा की बात कही जाती है. वह सच्चे अर्थों में विद्या की राजधानी है. समीर पाठक के शब्दों में कहें तो मालवीय जी कांग्रेस के माध्यम से राजनीतिक-सांस्कृतिक कार्यों में सक्रिय होते हैं; अभ्युदय, मर्यादा, लीडर, की पत्रकारिता से नवजागरण की विचार चेतना का विकास करते हैं। ‘प्रेस एक्ट’ की बर्बरता का विरोध करते हैं; स्वदेशी का उद्घोष करते हैं। भारत की आर्थिक बदहाली के लिए ब्रिटिश साम्राज्यवाद की आलोचना करते हैं। हिन्दू-मुस्लिम एकता के सामूहिक प्रयास का आह्वान करते हैं; हिंदी भाषा और देवनागरी लिपि की वकालत करते हैं, शिक्षा का भविष्य और भविष्य की शिक्षा का ध्यान रखकर हिन्दू विश्वविद्यालय कि स्थापना करते हैं। मदन मोहन मालवीय के सभी कार्य नवजागरण की विकास यात्रा के द्योतक हैं और महत्वपूर्ण सन्दर्भ भी। बावजूद इसके हिंदी क्षेत्र के नवजागरण के सन्दर्भ में मदन मोहन मालवीय की चर्चा कम ही होती है।

मालवीय जी के बारे में बात करते हुए हम अक्सर कुछ पूर्वाग्रहों से ग्रसित हो जाते हैं और इसके शिकार बहुतेरे लोग रहे हैं। मालवीय जी को छोड़कर हिंदी प्रदेश के नवजागरण पर चर्चा नहीं की जा सकती है। नवजागरण पर काम करने वाले अध्येताओं में प्रो. शम्भुनाथ तथा प्रो. वीरभारत तलवार भी उस पूर्वाग्रह से अछूते नहीं हैं। वीरभारत तलवार ने मालवीय जी के व्यक्तित्व को गोरक्षा तक सीमित कर दिया है। मालवीय जी बारे में वीर भारत तलवार का कहना है कि उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत गोरक्षा के सवाल से की थी; और उनका कहना है कि मदन मोहन मालवीय ने गोशाला और च्यवन आश्रम खोलने के अलावा काशी में गोरक्षा मण्डल कायम किया। उन्हें काशी हिन्दू विश्वविद्यालय जैसी महत्वपूर्ण संस्था दिखाई नहीं देती. इन महापुरुषों के बारे में कोई भी बात करते समय हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि इनका समय औपनिवेशिक दासता का समय था।
यह बात कई बार कही जा चुकी है कि नवजागरणकालीन लेखकों-नेताओं की धार्मिकता को कट्टरता से जोड़कर नहीं देखना चाहिए। धर्म के भीतर रहकर ही उसके सुधार की गुंजाईश हो सकती थी। इसके परिणाम भी बेहतर देखने को मिले। इतिहास भी गवाह है कि आगे चलकर धर्म को खुली चुनौती देने पर वह और भी उग्र और कट्टर हुआ। नवजागरण के अग्रदूतों के व्यक्तित्व को धर्म से अलग रखकर नहीं देखा जा सकता। मालवीय जी व्यक्तित्व का भी धर्म एक पहलू है, परन्तु धार्मिक कट्टरता जैसी चीज देखने को नहीं मिलती है। मुल्तान दंगों के बाद वहां मालवीय जी ने जो भाषण दिया था उसे देखा जा सकता है। कई बार इतिहास के साथ छेड़छाड़ तथा उसकी मनमानी प्रस्तुति की जाती है। मालवीय जी कई गैर हिन्दू लोगों को भी बी.एच.यू. लाये थे। रुस्तम सैटिन (पाकिस्तान से) भागकर मालवीय जी के पास पहुंचे थे और उनसे मिलकर कहा था कि उन्हें पढ़ना है परन्तु उनके पास पैसे नहीं हैं। मालवीय जी ने उनके पढ़ने का इंतजाम किया। रुस्तम सैटिन की तरह ऐसे कई नाम हैं जिनकी मदद मालवीय जी ने किसी दुराग्रह के बिना की थी। वही रुस्तम सैटिन आगे चलकर कम्युनिस्ट पार्टी के बहुत बड़े और प्रतिबद्ध नेता बने।

इन्डेम्निटी बिल पर भाषण देते हुए मालवीय जी ने इस बात का पुरजोर विरोध किया जिसके अन्तर्गत यह प्रावधान था कि प्रत्येक हिन्दुस्तानी जो किसी गोरे (अंग्रेज) के पास से गुजरे, उसे सलाम करे और यदि बाहर गाड़ी में बैठकर जाते हुए कोई गोरा मिल जाये तो गाड़ी से उतरकर सलाम किया करे।
नवजागरणकालीन लेखकों-नेताओं का सबसे बड़ा मूल्य उपनिवेश विरोध था; धार्मिक मान्यताएँ आदि सब उसके बाद। 1923 में लाहौर के मोती दरवाजे के भाषण में मालवीय जी कहते हैं कि-“भारत में अनेक जातियां रहती हैं। यदि कोई जाति चाहती है कि दूसरी जाति यहाँ से चली जाये तो यह उसकी भूल है। हिन्दू भी यहीं रहेंगे और मुसलमान भी यहीं रहेंगे। वे स्त्री शिक्षा के भी समर्थक थे. स्त्री शिक्षा के विरोधियों को जवाब देते हुए मालवीय जी अभ्युदय में लिखते हैं कि-“जिस शिक्षा द्वारा पुरुषों के मानसिक, नैतिक और आध्यात्मिक गुणों का प्रकाश होता है, उसी शिक्षा को पाकर स्त्रियों के मन और हृदय उन्नत ना होकर अधोगति की ओर आकर्षित होंगे- यह कैसी आश्चर्य की बात है कि जो शिक्षा पुरुषों को प्रकाश की ओर ले जाएगी, वही शिक्षा स्त्रियों को अंधकार की ओर ले जाएगी। यह कहाँ का विचित्र न्याय है।” 12 जनवरी 1946 को उनका देहांत हो गया. गांधीजी ने उनकी मृत्यु पर कहा था कि उनकी मृत्यु से भारत ने अपना सबसे वरिष्ठ तथा योग्यतम सेवक खो दिया है. अंतिम समय तक वे भारत और इसकी स्वतंत्रता के बारे में सोचते रहे.
उनके बारे में बिस्मिल इलाहाबादी का यह शेर याद आ रहा है -
ज़र्रा-ज़र्रा उस जमीने पाक का है अब गवाह।
देख लो काशी में तुम जाकर निशाने मालवीय।।


Monday, December 2, 2013

यह चुप बैठने का समय नहीं है
बृजराज सिंह
21 तारीख को आगरा में भाजपा की विजय शंखनाद रैली थी. जिसमें प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी ने आगरा की जनता को संबोधित किया. ना तो रैली में मेरी कोई दिलचस्पी थी न नरेन्द्र मोदी के भाषण में. तमामलोगों की तरह मेरा भी मानना है कि मोदी के विरोध में कुछ कहना भी उनका प्रचार करना है, इसलिए उन्हें कोई तवज्जो देने के इरादे मेरे नहीं हैं. बस रैली स्थल के एक बड़े से होर्डिंग ने मेरा ध्यान आकर्षित किया, जिसमें सरदार पटेल की एक फोटो के साथ नरेंद्र मोदी की तस्वीर थी और उसपर जो वाक्य लिखा था वह और भी आकर्षित करने वाला था. उस होर्डिंग पर पटेल के शब्दों में लिखा था कि मोदी मेरे रूप में आ रहा है. मोदी अपने भाषणों में न सिर्फ इतिहास संबंधी अपने अज्ञान को प्रदर्शित कर रहे हैं बल्कि इतिहास का इस्तेमाल भी अपने लिए कर रहे हैं. पिछले कुछ दिनों से नरेंद्र मोदी का पटेल प्रेम जगजाहिर है. नरेन्द्र मोदी ने इसे एक बड़ी बहस के रूप में प्रस्तुत कर दिया है. अखबारों से लेकर इलेक्ट्रोनिक मीडिया में भी यह बहस चल रही है. दुर्भाग्य यह है कि यह बहस कुछ-कुछ उसी रूप में चल रही है जैसी कि नरेंद्र मोदी चाहते हैं. आज यह बहस पटेल बनाम नेहरू के रूप में चल रही है. यही तो मोदी चाहते थे. सवाल यह है कि भारतीय राष्ट्र के तमाम नेताओं के बीच मोदी ने पटेल को ही क्यों पसंद किया. इसमें गुजरात कनेक्शन को खोजना भी बेमानी होगा. गुजराती राष्ट्रीयता की बात होती तो उसमें गांधीजी सबसे पहले आते. गाँधी के साथ यह सुविधा भी होती कि उनकी स्वीकृति ना सिर्फ गुजरात में बल्कि पूरे देश में बड़े आसानी से हो जाती; लेकिन वह गाँधी बनाम नेहरू की बहस के रूप में नहीं चल पाती. इस बहस में मोदी और उनके समर्थकों का स्वार्थ सिद्ध नहीं हो पाता.
यह सही है कि स्वंत्रता संग्राम के नेताओं से असहमतियां हो सकती हैं परन्तु उनकी नीयत पर शक नहीं किया जा सकता. क्या वाकई नरेंद्र मोदी पटेल को भारतीय राष्ट्र का सर्वश्रेष्ठ नेता मानते हैं या पटेल में ही कुछ ऐसी बात है जिससे कि मोदी और उनकी विचारधारा को संरक्षण प्राप्त हो सकता है. इतिहासकार रामचंद्र गुहा पटेल और नेहरू को एक दूसरे का पूरक कहते हैं. उन्होंने पटेल बनाम नेहरू विवाद को प्रथम एवरेस्ट पर्वतारोही एडमंड हिलेरी और तेनजिंग के विवाद जैसा बताया है. जबकि पटेल और नेहरू के राष्ट्रवाद में पर्याप्त अंतर है. दोनों अलग-अलग विचारों के नेता थे. उनके राष्ट्र निर्माण के स्वप्न अलग-अलग थे. इसे हम सिर्फ एक उदाहरण से समझ सकते हैं. देश के बंटवारे के बाद जो स्थितियां थीं उससे दोनों दुखी थे. नेहरू जहाँ यह सोचते थे कि यह हिन्दुस्तान की जिम्मेदारी है कि वह यहाँ के अल्पसंख्यकों को यह भरोसा दिलाये कि वे यहाँ पूरी तरह सुरक्षित हैं. जबकि वहीँ दूसरी तरफ पटेल यह कहते थे कि मुस्लिम अल्पसंख्यकों को भारतीय राष्ट्र के प्रति अपनी ईमानदारी सिद्ध करनी चाहिए. यहाँ के बहुसंख्यक हिन्दुओं को यह भरोसा दिलाएं कि वे भारत के प्रति पूरे इमानदार हैं. भाजपा और नरेन्द्र मोदी को इस बहस के आलोक में देखने की कोशिश करें तो स्पष्ट हो जाता है कि पटेल ही वह नेता हैं जहाँ इन्हें अपनी विचारधारा सुरक्षित दिखाई देती है. वे यह भी बताना चाहते हैं कि मोदी जैसा सोचते है ठीक उसी तरह सरदार बल्लभभाई पटेल भी सोचते थे.  भारतीय इतिहास में जो छवि पटेल की है उसके अनुसार वे एक कट्टर और दृढ़ निश्चयी व्यक्तित्व के नेता थे, जबकि नेहरू लोकतांत्रिक और जनवादी प्रक्रिया के समर्थक थे. यही कारण है कि नेहरू अपने समय में एशिया के नायक बनकर उभर रहे थे. विश्व स्तर पर पर उनकी स्वीकृति बन रही थी. देश के भीतर उनकी जो लोकप्रियता थी वह किसी भी व्यक्ति के लिए इर्ष्या का विषय हो सकती थी.
मोदी ने पटेल को अपनाकर न सिर्फ अपने लिए रास्ता सुगम किया बल्कि भाजपा और उसकी वैचारिक स्रोत संघ को भी नया जीवनदान देने का प्रयास किया है. भारतीय राजनीति में भाजपा के पास ऐसा कोई चेहरा नहीं है जिससे वे अपने को जनमानस से जोड़ सकें. उनके जो नेता हैं चाहे वह हेडगेवार हों या गोलवरकर, जनता में उनकी स्वीकृति नहीं रही है. जनमानस के लोक मन में वे जगह बनाने में असफल रहे हैं. वहीँ पटेल और नेहरू जैसे नेता अपार जन लोकप्रियता के साथ सम्पूर्ण भारतीय जनता के नेता थे. मोदी ने एक नया नाम खोज लिया है पटेल के रूप में. पटेल ही ऐसे नेता हैं जहाँ भाजपा और मोदी को अपने लिए जगह मिल सकती है. यह तलाश बहुत पहले से की जा रही थी. भगत सिंह जैसे के साथ भी यह प्रयोग किया जा चुका है परन्तु वहां असफलता हांथ लगी. पटेल के विचार और व्यक्तित्व उन्हें इस काबिल बनाते हैं कि मोदी वहां असरा पा सकते हैं.
मोदी का पूंजीवाद से प्रेम जगजाहिर है. देश भर के पूंजीपतियों के लिए गुजरात में बेहतर माहौल दिया जा रहा है. अमीरों की झोली को भरकर मोदी ने गुजरात माडल तैयार किया है. गुहा ने अपनी किताब भारत: गाँधी के बाद में किसी पर्यवेक्षक का जिक्र किया है जिसने कहा था कि ‘भारत में पटेल का वाम विचारों का विरोधी होना राजनीतिक सामंजस्य की दिशा में एक बड़ी समस्या है, जिसका सामना देश कर रहा है; साथ उसने यह भी कहा कि पटेल पूंजीवादी तत्वों के ज्यादा नजदीक थे जबकि नेहरू अर्थव्यवस्था पर सरकारी नियंत्रण के पैरोकार थे. पटेल का हिन्दू अतिवाद पर भी नरम रुख था और पाकिस्तान के साथ वे कड़ाई से पेश आना चाहते थे’. नेहरू के जनवादी मूल्यों की वजह से ही उस समय के देशी रजवाड़े और सामंत उनसे डरते थे इसीलिए वे पटेल के साथ जल्दी से समझौता कर लेना चाहते थे. पटेल के साथ समझौता करके वे ज्यादा से ज्यादा अपने हितों की रक्षा कर सकते थे. एफिल टावर से बड़ी मूर्ति का निर्माण करके मोदी अपने समर्थकों से ज्यादा अपने विरोधियों को जवाब देना चाहते हैं. यह भारतीय राजनीति में उनके शक्ति प्रदर्शन का हिस्सा होगा. यह राष्ट्रवादी ताकतों के विजय के रूप में देखा जाएगा. गैर सांप्रदायिक ताकतों के हौसलों को पस्त करने का एक और प्रयास है यह.

एक तरह से अब यह अंतिम समय आ गया है जब साम्प्रदायिकता विरोधी ताकतों को पूरी ताकत से एकजुट हो जाना चाहिए. भारतीय राजनीति में साम्प्रदायिक ताकतें आज से पहले इतनी ताकतवर कभी नहीं रही हैं. इन्हें यहीं रोकना होगा. संगठित होकर मुकाबला करना होगा. प्रसिद्ध कवि अरुण कमल के शब्दों में कहें तो कहना चाहिए-‘नहीं यह चुप बैठने का समय नहीं है/ संभालो अपने टूटे बिखरे औजार/ हमारे हथियार कमजोर हैं पर पक्ष मजबूत.’