Wednesday, December 25, 2013

देख लो काशी में तुम जाकर निशाने मालवीय।।

मदन मोहन मालवीय



मदन मोहन मालवीय का जन्म आज ही के दिन यानी 25 दिसम्बर 1861 को हुआ था. वे एक महान राष्ट्रीय नेता, स्वतंत्रता सेनानी, भारतीय नवजागरण के सक्रिय सदस्य, शिक्षाविद् तथा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक थे. काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का छात्र होने के नाते मालवीय जी से परिचय तो विश्वविद्यालय के पहले दिन से ही हो गया था। यहाँ पढ़ने-पढ़ाने वाले हर व्यक्ति की जुबान पर मालवीय जी नाम रहता है। अपने संस्थापक के प्रति जैसी कृतज्ञता का भाव काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का रहता है, वैसा अन्यत्र देखने को नहीं मिलता है। लेकिन उसमें पूजा भाव ही ज्यादा रहता है। मालवीय जी को लेकर प्रगतिशील लोग अजीब पशोपेश में रहते हैं। कांग्रेस में उनकी पहचान हिंदूवादी धड़े के मुखिया के रूप में ज्यादा थी। विश्वविद्यालय के नाम का ‘हिन्दू’ शब्द, उनकी वेशभूषा, पगड़ी, तिलक लगा ललाट, उनके बारे में प्रचलित अनेक कहानियाँ- कुल मिलाकर उनकी जो तस्वीर बनती थी, उसमें वे प्रतिक्रियावादी, शुद्धतावादी, कर्मकांडी ही ठहरते थे। लगभग दस साल बी.एच.यू. में रहने के बाद धीरे-धीरे मेरी धारणा बदलती रही. इधर समीर पाठक ने उनके लेखों/ निबंधों का एक संग्रह तैयार किया है जिसमें कई दुर्लभ दस्तावेज हैं; जिन्हें देखने/पढ़ने के बाद कोई भी उन्हें इतनी बेबाकी से हिंदूवादी नहीं कह सकता. काशी हिन्दू विश्वविद्यालय आज जिस ऊँचाई पर पहुंचा है उसमें निःसंदेह मालवीय जी का विजन काम कर रहा है। वहां सिद्धांत के साथ-साथ व्यवहार की शिक्षा भी दी जाती है. वहां सत्य पहले फिर आत्मरक्षा की बात कही जाती है. वह सच्चे अर्थों में विद्या की राजधानी है. समीर पाठक के शब्दों में कहें तो मालवीय जी कांग्रेस के माध्यम से राजनीतिक-सांस्कृतिक कार्यों में सक्रिय होते हैं; अभ्युदय, मर्यादा, लीडर, की पत्रकारिता से नवजागरण की विचार चेतना का विकास करते हैं। ‘प्रेस एक्ट’ की बर्बरता का विरोध करते हैं; स्वदेशी का उद्घोष करते हैं। भारत की आर्थिक बदहाली के लिए ब्रिटिश साम्राज्यवाद की आलोचना करते हैं। हिन्दू-मुस्लिम एकता के सामूहिक प्रयास का आह्वान करते हैं; हिंदी भाषा और देवनागरी लिपि की वकालत करते हैं, शिक्षा का भविष्य और भविष्य की शिक्षा का ध्यान रखकर हिन्दू विश्वविद्यालय कि स्थापना करते हैं। मदन मोहन मालवीय के सभी कार्य नवजागरण की विकास यात्रा के द्योतक हैं और महत्वपूर्ण सन्दर्भ भी। बावजूद इसके हिंदी क्षेत्र के नवजागरण के सन्दर्भ में मदन मोहन मालवीय की चर्चा कम ही होती है।

मालवीय जी के बारे में बात करते हुए हम अक्सर कुछ पूर्वाग्रहों से ग्रसित हो जाते हैं और इसके शिकार बहुतेरे लोग रहे हैं। मालवीय जी को छोड़कर हिंदी प्रदेश के नवजागरण पर चर्चा नहीं की जा सकती है। नवजागरण पर काम करने वाले अध्येताओं में प्रो. शम्भुनाथ तथा प्रो. वीरभारत तलवार भी उस पूर्वाग्रह से अछूते नहीं हैं। वीरभारत तलवार ने मालवीय जी के व्यक्तित्व को गोरक्षा तक सीमित कर दिया है। मालवीय जी बारे में वीर भारत तलवार का कहना है कि उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत गोरक्षा के सवाल से की थी; और उनका कहना है कि मदन मोहन मालवीय ने गोशाला और च्यवन आश्रम खोलने के अलावा काशी में गोरक्षा मण्डल कायम किया। उन्हें काशी हिन्दू विश्वविद्यालय जैसी महत्वपूर्ण संस्था दिखाई नहीं देती. इन महापुरुषों के बारे में कोई भी बात करते समय हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि इनका समय औपनिवेशिक दासता का समय था।
यह बात कई बार कही जा चुकी है कि नवजागरणकालीन लेखकों-नेताओं की धार्मिकता को कट्टरता से जोड़कर नहीं देखना चाहिए। धर्म के भीतर रहकर ही उसके सुधार की गुंजाईश हो सकती थी। इसके परिणाम भी बेहतर देखने को मिले। इतिहास भी गवाह है कि आगे चलकर धर्म को खुली चुनौती देने पर वह और भी उग्र और कट्टर हुआ। नवजागरण के अग्रदूतों के व्यक्तित्व को धर्म से अलग रखकर नहीं देखा जा सकता। मालवीय जी व्यक्तित्व का भी धर्म एक पहलू है, परन्तु धार्मिक कट्टरता जैसी चीज देखने को नहीं मिलती है। मुल्तान दंगों के बाद वहां मालवीय जी ने जो भाषण दिया था उसे देखा जा सकता है। कई बार इतिहास के साथ छेड़छाड़ तथा उसकी मनमानी प्रस्तुति की जाती है। मालवीय जी कई गैर हिन्दू लोगों को भी बी.एच.यू. लाये थे। रुस्तम सैटिन (पाकिस्तान से) भागकर मालवीय जी के पास पहुंचे थे और उनसे मिलकर कहा था कि उन्हें पढ़ना है परन्तु उनके पास पैसे नहीं हैं। मालवीय जी ने उनके पढ़ने का इंतजाम किया। रुस्तम सैटिन की तरह ऐसे कई नाम हैं जिनकी मदद मालवीय जी ने किसी दुराग्रह के बिना की थी। वही रुस्तम सैटिन आगे चलकर कम्युनिस्ट पार्टी के बहुत बड़े और प्रतिबद्ध नेता बने।

इन्डेम्निटी बिल पर भाषण देते हुए मालवीय जी ने इस बात का पुरजोर विरोध किया जिसके अन्तर्गत यह प्रावधान था कि प्रत्येक हिन्दुस्तानी जो किसी गोरे (अंग्रेज) के पास से गुजरे, उसे सलाम करे और यदि बाहर गाड़ी में बैठकर जाते हुए कोई गोरा मिल जाये तो गाड़ी से उतरकर सलाम किया करे।
नवजागरणकालीन लेखकों-नेताओं का सबसे बड़ा मूल्य उपनिवेश विरोध था; धार्मिक मान्यताएँ आदि सब उसके बाद। 1923 में लाहौर के मोती दरवाजे के भाषण में मालवीय जी कहते हैं कि-“भारत में अनेक जातियां रहती हैं। यदि कोई जाति चाहती है कि दूसरी जाति यहाँ से चली जाये तो यह उसकी भूल है। हिन्दू भी यहीं रहेंगे और मुसलमान भी यहीं रहेंगे। वे स्त्री शिक्षा के भी समर्थक थे. स्त्री शिक्षा के विरोधियों को जवाब देते हुए मालवीय जी अभ्युदय में लिखते हैं कि-“जिस शिक्षा द्वारा पुरुषों के मानसिक, नैतिक और आध्यात्मिक गुणों का प्रकाश होता है, उसी शिक्षा को पाकर स्त्रियों के मन और हृदय उन्नत ना होकर अधोगति की ओर आकर्षित होंगे- यह कैसी आश्चर्य की बात है कि जो शिक्षा पुरुषों को प्रकाश की ओर ले जाएगी, वही शिक्षा स्त्रियों को अंधकार की ओर ले जाएगी। यह कहाँ का विचित्र न्याय है।” 12 जनवरी 1946 को उनका देहांत हो गया. गांधीजी ने उनकी मृत्यु पर कहा था कि उनकी मृत्यु से भारत ने अपना सबसे वरिष्ठ तथा योग्यतम सेवक खो दिया है. अंतिम समय तक वे भारत और इसकी स्वतंत्रता के बारे में सोचते रहे.
उनके बारे में बिस्मिल इलाहाबादी का यह शेर याद आ रहा है -
ज़र्रा-ज़र्रा उस जमीने पाक का है अब गवाह।
देख लो काशी में तुम जाकर निशाने मालवीय।।


Monday, December 2, 2013

यह चुप बैठने का समय नहीं है
बृजराज सिंह
21 तारीख को आगरा में भाजपा की विजय शंखनाद रैली थी. जिसमें प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी ने आगरा की जनता को संबोधित किया. ना तो रैली में मेरी कोई दिलचस्पी थी न नरेन्द्र मोदी के भाषण में. तमामलोगों की तरह मेरा भी मानना है कि मोदी के विरोध में कुछ कहना भी उनका प्रचार करना है, इसलिए उन्हें कोई तवज्जो देने के इरादे मेरे नहीं हैं. बस रैली स्थल के एक बड़े से होर्डिंग ने मेरा ध्यान आकर्षित किया, जिसमें सरदार पटेल की एक फोटो के साथ नरेंद्र मोदी की तस्वीर थी और उसपर जो वाक्य लिखा था वह और भी आकर्षित करने वाला था. उस होर्डिंग पर पटेल के शब्दों में लिखा था कि मोदी मेरे रूप में आ रहा है. मोदी अपने भाषणों में न सिर्फ इतिहास संबंधी अपने अज्ञान को प्रदर्शित कर रहे हैं बल्कि इतिहास का इस्तेमाल भी अपने लिए कर रहे हैं. पिछले कुछ दिनों से नरेंद्र मोदी का पटेल प्रेम जगजाहिर है. नरेन्द्र मोदी ने इसे एक बड़ी बहस के रूप में प्रस्तुत कर दिया है. अखबारों से लेकर इलेक्ट्रोनिक मीडिया में भी यह बहस चल रही है. दुर्भाग्य यह है कि यह बहस कुछ-कुछ उसी रूप में चल रही है जैसी कि नरेंद्र मोदी चाहते हैं. आज यह बहस पटेल बनाम नेहरू के रूप में चल रही है. यही तो मोदी चाहते थे. सवाल यह है कि भारतीय राष्ट्र के तमाम नेताओं के बीच मोदी ने पटेल को ही क्यों पसंद किया. इसमें गुजरात कनेक्शन को खोजना भी बेमानी होगा. गुजराती राष्ट्रीयता की बात होती तो उसमें गांधीजी सबसे पहले आते. गाँधी के साथ यह सुविधा भी होती कि उनकी स्वीकृति ना सिर्फ गुजरात में बल्कि पूरे देश में बड़े आसानी से हो जाती; लेकिन वह गाँधी बनाम नेहरू की बहस के रूप में नहीं चल पाती. इस बहस में मोदी और उनके समर्थकों का स्वार्थ सिद्ध नहीं हो पाता.
यह सही है कि स्वंत्रता संग्राम के नेताओं से असहमतियां हो सकती हैं परन्तु उनकी नीयत पर शक नहीं किया जा सकता. क्या वाकई नरेंद्र मोदी पटेल को भारतीय राष्ट्र का सर्वश्रेष्ठ नेता मानते हैं या पटेल में ही कुछ ऐसी बात है जिससे कि मोदी और उनकी विचारधारा को संरक्षण प्राप्त हो सकता है. इतिहासकार रामचंद्र गुहा पटेल और नेहरू को एक दूसरे का पूरक कहते हैं. उन्होंने पटेल बनाम नेहरू विवाद को प्रथम एवरेस्ट पर्वतारोही एडमंड हिलेरी और तेनजिंग के विवाद जैसा बताया है. जबकि पटेल और नेहरू के राष्ट्रवाद में पर्याप्त अंतर है. दोनों अलग-अलग विचारों के नेता थे. उनके राष्ट्र निर्माण के स्वप्न अलग-अलग थे. इसे हम सिर्फ एक उदाहरण से समझ सकते हैं. देश के बंटवारे के बाद जो स्थितियां थीं उससे दोनों दुखी थे. नेहरू जहाँ यह सोचते थे कि यह हिन्दुस्तान की जिम्मेदारी है कि वह यहाँ के अल्पसंख्यकों को यह भरोसा दिलाये कि वे यहाँ पूरी तरह सुरक्षित हैं. जबकि वहीँ दूसरी तरफ पटेल यह कहते थे कि मुस्लिम अल्पसंख्यकों को भारतीय राष्ट्र के प्रति अपनी ईमानदारी सिद्ध करनी चाहिए. यहाँ के बहुसंख्यक हिन्दुओं को यह भरोसा दिलाएं कि वे भारत के प्रति पूरे इमानदार हैं. भाजपा और नरेन्द्र मोदी को इस बहस के आलोक में देखने की कोशिश करें तो स्पष्ट हो जाता है कि पटेल ही वह नेता हैं जहाँ इन्हें अपनी विचारधारा सुरक्षित दिखाई देती है. वे यह भी बताना चाहते हैं कि मोदी जैसा सोचते है ठीक उसी तरह सरदार बल्लभभाई पटेल भी सोचते थे.  भारतीय इतिहास में जो छवि पटेल की है उसके अनुसार वे एक कट्टर और दृढ़ निश्चयी व्यक्तित्व के नेता थे, जबकि नेहरू लोकतांत्रिक और जनवादी प्रक्रिया के समर्थक थे. यही कारण है कि नेहरू अपने समय में एशिया के नायक बनकर उभर रहे थे. विश्व स्तर पर पर उनकी स्वीकृति बन रही थी. देश के भीतर उनकी जो लोकप्रियता थी वह किसी भी व्यक्ति के लिए इर्ष्या का विषय हो सकती थी.
मोदी ने पटेल को अपनाकर न सिर्फ अपने लिए रास्ता सुगम किया बल्कि भाजपा और उसकी वैचारिक स्रोत संघ को भी नया जीवनदान देने का प्रयास किया है. भारतीय राजनीति में भाजपा के पास ऐसा कोई चेहरा नहीं है जिससे वे अपने को जनमानस से जोड़ सकें. उनके जो नेता हैं चाहे वह हेडगेवार हों या गोलवरकर, जनता में उनकी स्वीकृति नहीं रही है. जनमानस के लोक मन में वे जगह बनाने में असफल रहे हैं. वहीँ पटेल और नेहरू जैसे नेता अपार जन लोकप्रियता के साथ सम्पूर्ण भारतीय जनता के नेता थे. मोदी ने एक नया नाम खोज लिया है पटेल के रूप में. पटेल ही ऐसे नेता हैं जहाँ भाजपा और मोदी को अपने लिए जगह मिल सकती है. यह तलाश बहुत पहले से की जा रही थी. भगत सिंह जैसे के साथ भी यह प्रयोग किया जा चुका है परन्तु वहां असफलता हांथ लगी. पटेल के विचार और व्यक्तित्व उन्हें इस काबिल बनाते हैं कि मोदी वहां असरा पा सकते हैं.
मोदी का पूंजीवाद से प्रेम जगजाहिर है. देश भर के पूंजीपतियों के लिए गुजरात में बेहतर माहौल दिया जा रहा है. अमीरों की झोली को भरकर मोदी ने गुजरात माडल तैयार किया है. गुहा ने अपनी किताब भारत: गाँधी के बाद में किसी पर्यवेक्षक का जिक्र किया है जिसने कहा था कि ‘भारत में पटेल का वाम विचारों का विरोधी होना राजनीतिक सामंजस्य की दिशा में एक बड़ी समस्या है, जिसका सामना देश कर रहा है; साथ उसने यह भी कहा कि पटेल पूंजीवादी तत्वों के ज्यादा नजदीक थे जबकि नेहरू अर्थव्यवस्था पर सरकारी नियंत्रण के पैरोकार थे. पटेल का हिन्दू अतिवाद पर भी नरम रुख था और पाकिस्तान के साथ वे कड़ाई से पेश आना चाहते थे’. नेहरू के जनवादी मूल्यों की वजह से ही उस समय के देशी रजवाड़े और सामंत उनसे डरते थे इसीलिए वे पटेल के साथ जल्दी से समझौता कर लेना चाहते थे. पटेल के साथ समझौता करके वे ज्यादा से ज्यादा अपने हितों की रक्षा कर सकते थे. एफिल टावर से बड़ी मूर्ति का निर्माण करके मोदी अपने समर्थकों से ज्यादा अपने विरोधियों को जवाब देना चाहते हैं. यह भारतीय राजनीति में उनके शक्ति प्रदर्शन का हिस्सा होगा. यह राष्ट्रवादी ताकतों के विजय के रूप में देखा जाएगा. गैर सांप्रदायिक ताकतों के हौसलों को पस्त करने का एक और प्रयास है यह.

एक तरह से अब यह अंतिम समय आ गया है जब साम्प्रदायिकता विरोधी ताकतों को पूरी ताकत से एकजुट हो जाना चाहिए. भारतीय राजनीति में साम्प्रदायिक ताकतें आज से पहले इतनी ताकतवर कभी नहीं रही हैं. इन्हें यहीं रोकना होगा. संगठित होकर मुकाबला करना होगा. प्रसिद्ध कवि अरुण कमल के शब्दों में कहें तो कहना चाहिए-‘नहीं यह चुप बैठने का समय नहीं है/ संभालो अपने टूटे बिखरे औजार/ हमारे हथियार कमजोर हैं पर पक्ष मजबूत.’

Thursday, November 14, 2013

बच्चे समाज के उपनिवेश नही हैं


आज 14 नवम्बर है. यह दिन दो वजहों से याद किया जाता है. एक तो भारत के पहले प्रधानमंत्री और सच्चे नायक जवाहरलाल नेहरू का जन्म आज के ही दिन हुआ था, और दूसरा भी उन्हीं से जुड़ा है. आज के दिन को बाल दिवस के रूप में भी मनाते हैं. इसकी वजह यह है कि उन्हें बच्चों से बेहद लगाव था. वैसे तो उन्हें देश और देश में रहने वाले हर प्राणी से प्यार था. यहाँ के नदी नाले पहाड़ जंगल और रेगिस्तान से भी उन्हें उतना ही प्यार था. वे सच्चे अर्थों में देश के ‘नेता’ थे. अगर यह कहा जाये कि वे अंतिम अखिल भारतीय लोकनायक थे तो अतिश्योक्ति न होगी. वे विश्व से होड़ लेने वाले नायक थे. एक कृतज्ञ राष्ट्र होने के नाते हमारा यह फर्ज बनता है कि हम उन्हें शिद्दत से याद करें; लेकिन साथ-साथ आज के दिन हमें ना सिर्फ बच्चों के साथ मिलकर उत्सव मनाना चाहिए बल्कि उनके अधिकारों के प्रति सचेत भी होना चाहिए. भारतीय समाज में आज भी बच्चों को लेकर उतनी संजीदगी दिखाई नहीं देती जितनी होनी चाहिए. बच्चों का जीवन आज भी हाशिए पर ही स्थित है या यूँ कहें कि बच्चे भारतीय समाज में हाशिए पर हैं तो गलत न होगा. परिवार से लेकर समाज स्कूल तक बच्चों के अधिकार को लेकर सचेत नहीं हैं. पिछले कुछ दशकों में भूमंडलीकरण और बाजारवाद के सबसे ज्यादा और आसान शिकार बच्चे ही हुए हैं; और उसका सबसे ज्यादा दुष्प्रभाव भी बच्चों पर ही पड़ा है. बच्चों के पठन-पाठन से लेकर उनके खिलौने और कपड़ों तक में बाजार इतनी बुरी तरह घुस चुका है कि उनका बचपन प्रभावित हो रहा है. उनके मनोरंजन के साधनों में भी यह बुरी तरह घुस चुका है. बच्चे अपने अधिकारों के लिए खुद नहीं लड़ सकते. उसके लिए समाज को ही आगे आना पड़ेगा.
आमतौर पर बच्चों के अधिकार की बात आने पर बाल श्रम का जिक्र सबसे पहले आता है. यह इतनी तेजी से आता है कि बाकी के मुद्दों पर कोई चर्चा ही नहीं हो पाती. बालश्रम एक बड़ी मुसीबत जरूर है लेकिन जैसे कि हर अच्छी बात की तरह शुरुआत घर से होनी चाहिए उसी तरह इस मुद्दे पर भी परिवर्तन की शुरुआत घर से ही होनी चाहिए. यह बात कहने में थोड़ी अजीब लग सकती है परन्तु यह सच है कि बच्चों के अधिकारों का सबसे ज्यादा हनन घर में ही होता है; बल्कि और कोई नहीं उनके माँ-बाप द्वारा ही किया जाता है. उन्हें हमेशा अपनी मर्जी के खिलाफ काम करना पड़ता है. आज भी कई लोग ऐसा मानते हैं कि बच्चों को मारपीट कर ही कुछ सिखाया जाता सकता है. स्कूलों में भी अधिकांश शिक्षक इसी तरह सिखाने का भ्रम पालते हैं. परिवार और समाज कितना कुछ चाहता है बच्चों से. बच्चे इस तथाकथित सभ्य समाज के उपनिवेश बनकर रह गए हैं. हम अक्सर अपनी अधूरी महत्वाकांक्षाओं को बच्चों के ऊपर थोप देते हैं. संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा ने 20 नवम्बर 1059 को बच्चों के अधिकारों से संबंधित कुछ निर्देश जारी किये थे. उन निर्देशों को देखने के बाद आश्चर्य होता है कि इतने सालों के बाद भी हमारी पहुँच उन तक नहीं हो पायी है. इसमें उनकी शिक्षा, रहने का वातावरण, घर के भीतर उनके अधिकार तथा परिजनों के शोषण से बचाने के बारे में बताया गया है. भारतीय समाज में यह और भी मुश्किल मुकाम है. अक्सर हम अपनी असफलताओं को अपने बच्चों के माध्यम से पूरा करने की कोशिश करते हैं. कई बार बच्चों को उन आकांक्षाओं और उम्मीदों को पूरा करने में अपनी जान भी गंवानी पड़ जाती है. वे तनाव ग्रस्त और काम के बोझ से दबे जा रहे हैं. बचपन से ही उन्हें कुछ बड़ा बन जाने का दबाव महसूस होने लगता है. माँ-बाप भी यह सोचने लगते हैं कि हमारा बच्चा कितना कुछ एक साथ सीख ले. बोलने आने के पहले वह अंग्रेजी अक्षरों को पढ़ना सीख जाये. पब्लिक स्कूलों में जहाँ उन्हें एक नयी दुनिया दिखाई जाती है जो उनके आस-पास से बिल्कुल अलग होती है वहीं सरकारी स्कूलों में पढ़ाई का बुरा हाल है. घर के भीतर जहाँ बच्चों को अन्य के मुकाबले समान अधिकार नही होते वहीं बाहर उन्हें नागरिक ही नहीं समझा जाता. यह तो उनका हाल है जिनके घर परिवार हैं जरा उनके बारे में सोचा जाये जिनके कोई ठिकाने नहीं हैं. ऐसे बच्चे सड़कों पर, रेलवे स्टेशनों पर अपना जीवन बिताने के लिए मजबूर हैं. क्या इतने बड़े देश और इतनी बड़ी अर्थव्यस्था में उन कुछ हजार या लाख बच्चों के पालन-पोषण करने की क्षमता नही है. आज के यही बच्चे कल के नागरिक और देश के भविष्य हैं. लेकिन इस भविष्य का बोझ हमें उनपर नहीं डालना चाहिए.
बच्चों के अधिकार निर्धारित करने के साथ-साथ अभिवावकों के लिए जागरूकता अभियान भी चलाए जाने चाहिए. प्रत्येक माँ-बाप के लिए यह बड़ी चुनौती है कि वह बच्चों के मनोविज्ञान को समझ सके. बाल साहित्य के लेखकों की भी यह जिम्मेदारी है कि उन्हें सिर्फ मनोरंजन का साधन न मानें. उन्हें समझने की कोशिश करें. देश के पहले प्रधानमंत्री यदि बच्चों से प्रेम करते थे तो इसके पीछे उनका चिंतन और दूरदृष्टि भी थी. वे भारत के आगामी भविष्य को लेकर चिंतित थे; और उन खतरों को भी देख रहे थे जो आने वाले समय में उसे कमजोर करते रहेंगे. उन्हें पता था कि यही बच्चे कल के भारत का भविष्य हैं. हमें उनपर विश्वास करना सीखना चाहिए; और अभी तुम बच्चे हो जैसे जुमलों से बचना चाहिए.




Tuesday, October 29, 2013

बाजार की सल्तनत

खबर का मुंह विज्ञापन से ढका है
बृजराज सिंह


दिवाली आ रही है. विज्ञापन का बाजार गर्म है. अभी महीने भर भी नहीं बीता है जब भारत की आर्थिक स्थिति के ख़राब होने की ख़बरों से अख़बार और न्यूज चैनल भरे पड़े थे. महंगाई दर बढती जा रही थी. अचानक ऐसा क्या हो गया कि सब ठीक हो गया. अब कोई खबर नहीं आ रही है. संदेह होता आंकड़ों पर. देश में गरीबों की संख्या यदि लगभग अस्सी प्रतिशत है तो यह बाजार किनके भरोसे चल रहा है. त्यौहार का मौसम सबके लिए कमाई का होता है. अख़बारों के पन्ने विज्ञापन से ढके पड़े हैं. अद्भुत है यह देश. सच में खबर का मुंह विज्ञापन से ढका है. अमेरिका जैसे देशों में भी शटडाउन की नौबत आ गयी है. अभी दशहरा बीता है. क्या कहीं ऐसा लगा कि किसी को कोई दिक्कत है. बाजार में भीड़ उसी तरह थी जैसी पिछले साल देखी गयी थी. कुछ लोगों को शिकायत भी रहती है कि त्योहारों पर आजकल बाजारों में बहुत भीड़ रहती है, पहले इतनी भीड़ नहीं हुआ करती थी. अमीर लोग मध्यवर्ग को कोसते हैं कि ये सब भीड़ बढ़ा रहे है और मध्य वर्ग बहुसंख्यक निम्न वर्ग को कोसता है कि बाजार में अब क्लास मेंटेन नहीं रह गया है. उन्हें शिकायत रहती है कि अब ये मॉल और मल्टीप्लेक्स में भी आने लगे हैं.
बाजार हमारे रोज के जीवन में इस तरह घुस चुका है कि इससे दूर जा पाना मुश्किल है. आश्चर्य है कि जो लोग कल तक बाजार और उपभोक्तावाद के पैरोकार थे वही लोग अब शटडाउन और फिजूलखर्ची रोकने की बाते कर रहे हैं. दुनियाभर में उपभोक्तावाद और भूमंडलीकरण को जरूरी बताने वाले अमेरिका जैसे देश आज बेहद आर्थिक संकट से गुजर रहे हैं. भारत की पारंपरिक अर्थ व्यवस्था इस संकट से निकलने में सक्षम थी. पिछले दस वर्षों से देश के प्रधानमंत्री और अर्थशास्त्री कहे जाने वाले मनमोहन सिंह को आज कहना पड़ रहा है कि इस बार दिवाली पर उन्हें उपहार देने वाले लोग उस धनराशि को प्रधानमंत्री राहत कोष में जमा कर दें. यही कभी देश के बित्तमंत्री और रिजर्व बैंक के गवर्नर भी रहे थे. जिन्होंने अपनी दूरदर्शी नीति के तहत देश को भुमंडलीकरण और उपभोक्तावाद की तरफ धकेला. अभी दो महीने पहले ही प्रधानमंत्री ने यह भी कहा था कि हमारे देश के लोग फिजूलखर्ची ज्यादा करते है. विदेशी शोपीस पर करोड़ों रुपये लुटाते हैं. देश की स्थिति को देखते हुए उन्हें इसे बंद कर देना चाहिए. सवाल यह है कि प्रधानमंत्रीजी को अब जाकर पता चला है कि जिसे वे समझते थे कि विकास का रास्ता है वह तो बड़ी सी खाई निकली. चार-पांच साल पहले जब दुनिया आर्थिक मंदी से गुजर रही थी तब भी भारत पर उसका असर कम पड़ा था. उसका कारण यहाँ की पारंपरिक अर्थ व्यवस्था तथा नागरिकों की संचय करने की प्रवृत्ति. देश के नीति निर्माता लोग आंख बंद करके नीतियाँ बनाते हैं. माना कि बाजार से लड़ पाना नामुमकिन है परन्तु उसे पूरी तरह से स्वीकार कर लेना उसके सामने घुटनों टेक लेने जैसा है. बुद्धजीवियों का एक वर्ग हमेशा से इसके खतरों की तरफ ईशारा करता रहा है, सचेत भी करता रहा है;परन्तु उनकी कौन सुनता है. अपने देश में वह पुरानी पीढ़ी समाप्त होने लगी है। जिसका जोर अपरिग्रह, बचत और सादा रहनसहन पर था.
उपभोक्ता को अंग्रेजी में कंज्यूमर कहते हैं. अंग्रेजी में कंज्यूम शब्द का इस्तेमाल पहले ख़त्म कर देने या नष्ट कर देने के अर्थ में किया जाता था. इसीलिए आज भी जल कर ख़त्म हो जाने या खाक हो जाने के लिए ‘कन्ज्युम्ड बाय फायर’ पद  का इस्तेमाल किया जाता है. त्यौहार पहले भी आते थे परन्तु उनपर बाजार का प्रभाव इतना नहीं था. दिवाली  पर मिट्टी के दिए तेल में जलाये जाते थे. अब इलेक्ट्रिक बल्ब ने उसकी जगह ले ली है. अब बाजार हमें यह बताता है कि हमें त्यौहार कैसे मनाना चाहिए. उसमें बाजार आपकी मदद करेगा. इस त्यौहार खुशियाँ घर लाना चाहते हैं तो डेरी मिल्क का उपहार पैकेट लायें. यदि आप अपने घरवालों से प्यार करते हैं तो उन्हें पेप्सी पिलाएँ. अब बाजार हमारी आवश्यकताएं भी निर्मित करता है. छद्म आवश्यकताओं का सृजन किया जाता है. भारत के लोग अपरिग्रह और संचय में विश्वास करते थे. गमछे(तौलिया) को महीनों पहले कंधे पर रखते थे, फिर उसे तौलिया के रूप में इस्तेमाल करते थे. पुराना हो जाने पर उसे कई और कामों में लाया जाता था. फिर अंत में उससे घर में पोछा लगाने का काम लिया जाता था. कहने का मतलब यह है कि वस्तु के रेसे- रेसे का इस्तेमाल किया जाता था. अब हर चीजें बाजार में उपलब्ध हैं. हर वर्ग के लिए. जुगाड़ तकनीक इतनी भी बुरी चीज नहीं है. बाजार जाने वाला हर व्यक्ति अब केवल उपभोक्ता है, ग्राहक नहीं. उपभोक्तावाद के सबसे बड़े शिकार महिलाएं और बच्चे हैं. अभी एक दिन एक खिलौनों के दूकानदार ने बताया कि एक सज्जन रोज अपने बच्चे के लिए नया खिलौना ले जाते हैं. एक दिन किसी कारण से खिलौना नहीं ले जा पाए तो बच्चे ने रात में खाने से इंकार कर दिया. रात हो चुकी थी.बाजार बंद हो चुके थे. उन्होंने दूकानदार को फोन किया. दुकानदार घर से आकर उन्हें खिलौना दिया.
इतने सब के बावजूद आज जब खुदरा बाजार में एफडीआई का विरोध किया जाता है तो सरकार को यह विकास विरोधी बात लगती है. उपभोक्तावाद जन विरोधी नीति है. इसपर अंकुश लगाना चाहिए. देर से ही सही. इस मामले में गाँधी जी सचमुच दूरदृष्टि वाले ठहरते हैं. बाजार का वैसा सतर्क विरोध और कोई नहीं कर पाया. अपनी आवश्यकताओं को इतना कम कर लेना कि बाजार की कोई भी ताकत उसे छल ना सके. आज इस बात की बेहद जरूरत है कि हम समय के साथ चलते हुए अपनी जड़ों से जुड़े रहें. उत्तराखंड और फिलिन जैसे प्राकृतिक आपदाओं बाद तो यह और भी जरूरी है.


Sunday, September 22, 2013

जो रचेगा वही बचेगा- बृजराज सिंह


जनसत्ता, 7 सितम्बर को अपने आलेख ‘अभिव्यक्ति की आजादी और दलित’ में एक बार फिर धर्मवीर ने अपना अलगाववादी सुर अलापा है। धर्मवीर बहुत पढ़े लिखे और बुद्धिमान लेखक हैं; लेकिन उनके लेखन को देखकर यह कहा जा सकता है कि उनका सारा ज्ञान केवल किताबी है। कहा जाता है कि जब किसी रेखा को बिना छुए छोटा करना हो तो उसके समान्तर एक बड़ी रेखा खींच देनी चाहिए. लेकिन यह जहमत कौन उठाए. जो पहले से बनी है उसी को मिटा देना चाहिए. धर्मवीर जैसे लोग यही कर रहे हैं. बड़ी रेखा नहीं खींच सकते तो पहले की रेखा को ही मिटा देना चाहते हैं. यह लेख पढ़कर मुझे दो घटनाएं याद आ रहीं हैं; जिसमें से एक इतिहास से संबंधित है तो दूसरी वर्तमान से.
पहली घटना बनारस की है. पिछले दिनों काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में एक उपन्यास का लोकार्पण समारोह था. उपन्यास लेखक दलित थे. कालीचरण सनेही समारोह के मुख्य अतिथि थे; जिनकी ख्याति एक दलित चिन्तक के रूप में है। अपने एक घंटे के भाषण में उन्होंने उस कृति पर एक शब्द भी नही बोला। बल्कि अपने पूरे भाषण में वे सवर्णों को गलियां देते रहे। सिर्फ़ सवर्णों को ही नही बल्कि उस लेखक की भी जमकर खिचायी की; क्योंकि उसने सभा में सवर्णों को भी आमंत्रित किया था। उन्होंने साफ़ कहा कि दलितों को सवर्णों के साथ नहीं रहना चाहिए। लेखक को उन्होंने यह भी धमकी दी कि तुम्हें दलित लेखकों कि सूची से निकाल दिया जायेगा, तुम न इधर के रहोगे न उधर के। यह है साहित्य का आरक्षण; जिसके खतरे की तरफ प्रगतिशील लेखक संघ की पिचहत्तरवीं सालगिरह पर आयोजित समारोह में बोलते हुए नामवर सिंह ने इशारा किया था। दरअसल नामवर सिंह उस वैमनस्य की ओर इशारा कर रहे थे जो दलितों और सवर्णों के बीच पनप रहा है। जिसे गाँधी जी ने कहा था कि अंग्रेज सरकार हिन्दुओं को भी दो फाड़ कर देना चाहती है.
ऐसी स्थिति में समता, समानता और भाईचारे की मंजिल कैसे प्राप्त कर सकते हैं? हम देख रहे हैं कि हर जाति के नाम पर एक राजनीतिक पार्टी बन गयी है। कुछ दिनों पहले अख़बारों में एक आकड़ा प्रकाशित हुआ था, जिसके अनुसार २०१० में अनुसूचित जाति के लोगों पर हुए हमलों में पूरे देश के बीस फीसदी मामले अकेले उत्तर प्रदेश के हैं। यह कुल आंकड़े का सर्वाधिक हिस्सा है। यह इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि उत्तर प्रदेश में पिछले पांच वर्षों से बहुजन समाज पार्टी की सरकार थी। इस तरह की फिरकापरस्त ताकतों को किसी भी तरह से बढ़ावा नही दिया जा सकता. चाहे वह लेखक ही क्यों न हो. प्रकारांतर से धर्मवीर जैसे लेखक भी इन्ही फिरकापरस्तों का साथ दे रहे हैं.
दूसरी घटना ‘पूना पैक्ट’ से संबंधित है. ब्रितानी सरकार ने पूरी तरह से तय कर लिया था कि ‘कम्यूनल अवार्ड’ के तहत अस्पृश्य जातियों को अल्पसंख्यकों और अन्य समुदायों की तरह अलग से संविधान में पृथक निर्वाचन की व्यवस्था की जाएगी. महात्मा गाँधी ने इस फैसले को भारत की एकता को खंडित करने का षड़यंत्र बताकर इसके विरोध में आमरण अनशन करने की घोषणा कर दी. गाँधी जी की तबियत इस अनशन की वजह से बहुत तेजी से बिगड़ने लगी. अब सामने विकट प्रश्न खड़ा था कि क्या होगा। देश के बड़े-बड़े नेता मदनमोहन मालवीय, राजगोपालचारी तथा दलित वर्गों के नेता अंबेडकर और दूसरे प्रतिनिधि इस गुत्थी को सुलझाने के लिए इकट्ठा हुए। । तीन दिन तक खूब विचार विमर्श हुआ। चर्चा में कई उतार चढ़ाव आए। अंत में 24 सिंतबर को सबने एकमत से  समझौते पर हस्ताक्षर कर दिए, जो ‘पूना पैक्ट’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसमें अम्बेडकर को अपने निर्णय से समझौता करना पड़ा. न चाहते हुए भी अम्बेडकर को पीछे हटना पड़ा. उन्होंने अपना फैसला वापस ले लिया इसलिए नही कि वे गाँधी या किसी और से डरते थे, बल्कि इसलिए कि जिद में यदि गाँधी की मृत्यु हो जाती तो इसका कारण दलितों को ठहराया जाता और फिर हमेशा हमेशा के लिए  दलितों के खिलाफ़ इसका इस्तेमाल किया जाता। अम्बेडकर की  दूरदर्शिता ने इस दुर्घटना को बचा लिया। यह अम्बेडकर की कायरता नहीं थी बल्कि कृष्ण की तरह युद्ध की स्थितियों से बचने के लिए रणछोड़ कहे जाने की विवशता थी. अम्बेडकर यह जानते थे कि यदि इस मुद्दे की वजह से गाँधी की मृत्यु हो गयी तो देश भर में अछूतों के खिलाफ हिंसा होगी और  कभी न खत्म होने वाली कटुता फैल  जाएगी. दलित लेखक माता प्रसाद ने एक बार कहा था कि कल्पना कर के देखिए कि यदि अम्बेडकर ऐसा नहीं करते तो क्या होता. अम्बेडकर समर्थकों को इससे भी कुछ सीखना चाहिए या नहीं।
जहाँ तक दलित साहित्य का सवाल है तो हमारी तरफ एक कहावत कही जाती है कि “घी का लड्डू टेढ़ा भला”. लेकिन यह सिर्फ स्वाद का मामला है । यदि लड्डू की बात कहेंगे तो उसे गोल होना ही पड़ेगा. वह लम्बा या अंडाकार नहीं हो सकता. कला या साहित्य का भी कुछ-कुछ यही नियम होना चाहिए. दलित लेखकों की रचनाओं का स्वागत है. उनकी उत्कृष्टता से भी कोई परहेज नहीं है लेकिन शर्त यह कि उसे तुलसीराम की ‘मुर्दहिया’ जैसा होना पड़ेगा. है किसी की मजाल जो मुर्दहिया पर प्रश्न उठा दे सिर्फ इसलिए कि उसका लेखक एक दलित है. साहित्य में आरक्षण जैसी व्यवस्था के हिमायती लोग दरअसल अपनी कमजोरियों को छिपाना चाहते हैं. एक बार तुलसीराम जी ने कहा था कि जो लोग यह कहते हैं कि सिर्फ दलित ही दलित साहित्य लिख सकता है दरअसल वे दलितों और उनके साहित्य के साथ षड़यंत्र कर रहे होते हैं. उसे उसकी समृद्ध परंपरा से काट देना चाहते हैं.
धर्मवीर कहते हैं कि साहित्य में ऐसी दबंगई चल रही है कि लोकतंत्र का नामोनिशान तक नही है. वे भूल जाते हैं कि देश में जो थोड़ा बहुत लोकतंत्र बचा है वह सिर्फ साहित्यकारों, लेखकों और पत्रकारों के जोखिम और साहस से ही बचा है. उन्हें संसद में साहित्य से ज्यादा लोकतंत्र दिखाई पड़ता है. इतनी कमजोर स्मृति होगी उनकी इसकी कल्पना भी नहीं थी मुझे. अभी कुछ दिनों पहले कंवल भारती की गिरफ्तारी उन्हें याद रहती तो वे शायद ऐसा नहीं कह पाते. दरअसल धर्मवीर जिस वर्ग(क्लास) से आते हैं उसे देखते हुए यह कोई अनहोनी बात नहीं है. लेकिन उन्हें चाहिए कि जमीनी सच्चाई से रूबरु हों. इतनी कोशिशों के बावजूद पिछले कुछ वर्षों में अवर्णों और सवर्णों की बीच की दूरियां बढीं हैं. एक बार जब मैंने अपनी इस दुविधा को दलित लेखक(हांलाकि मैं दलित लेखक विशेषण से इत्तेफाक नहीं रखता) मलखान सिंह से साझा किया तो उनका जवाब मुझे कुछ हद तक सही लगा. उन्होंने कहा कि ‘वाद विवाद संवाद’ तीन स्थितियां होती हैं. वाद और विवाद की स्थिति चल रही है फिर संवाद की स्थिति भी आएगी. बस हमें ख्याल रखना चाहिए कि संवाद के लिए जगह बची रहे. धर्मवीर जैसे लोग उस संवाद की स्थिति को भी नहीं रहने देना चाहते हैं.

साहित्य अकादेमी पुरस्कार न पाना कहीं से भी किसी भी लेखक चाहे वह अवर्ण हो या सवर्ण की गुणवत्ता पर प्रश्न चिन्ह नहीं लगा सकता. न वह अभिव्यक्ति की आजादी से जुड़ा मसला है. अभियक्ति की आजादी को इतना तुच्छ करके नहीं देखना चाहिए. कोई भी लेखक पुरस्कारों के लिए नहीं लिखता. कबीर,तुलसी या रैदास को साहित्य अकादेमी नहीं मिला था । किसी भी लेखक का उद्देश्य पुरस्कार पाना नहीं हो सकता. एक छोटी सी कविता याद  आ रही है-वे पेंड़ नहीं/ शाखा लगाते हैं.दरअसल धर्मवीर जैसे लोग भी पेड़ उखाड़कर शाखा की सिचाई करना चाहते हैं.  

Saturday, September 21, 2013

क़दमों ने ही बनाए हैं सारे रास्ते

क़दमों ने ही बनाए हैं सारे रास्ते

एक कहावत के अनुसार कहा जाता है कि जब दुनिया बनी थी तब इस पर रास्ते नहीं थे. सारे रास्ते लोगों ने ही चल चल कर बनाये हैं. पगडंडियाँ आज भी इस कहावत को चरितार्थ करती हैं. किसी एक रास्ते पर बार-बार चलने से पगडंडियाँ बनती हैं. यह व्यक्ति की अदम्य जिजीविषा और उसके दृढ़ आत्मविश्वास का परिचायक होती है. ये पुरुष और प्रकृति के साहचर्य का सबसे जीवंत उदाहरण होती हैं. बालक उंगली पकड़ कर चलना सीखता है तथा पगडंडियाँ पकड़ कर मंजिल की ओर बढ़ता है. मनुष्य का बालहठ कि उसे रास्ता चाहिए ही चाहिए. प्रकृति लम्बे समय के मनुहार के बाद उसे पतली-सी धारीनुमा रास्ता बनाने की अनुमति देती है. पगडंडियाँ मनुष्य को रास्ता बताती हैं; उसे अपने पूर्वजों के बनाये रास्ते पर चलना भी सिखाती हैं. पगडंडियाँ मनुष्य को परम्परा से जोड़ती हैं; आदमी के लम्बे संघर्ष की द्योतक होती हैं. पगडंडियों की गवाही देना अपनी परम्परा से जुड़ना है; लगाव है. चमचमाते नेशनल हाइवे के जमाने में पगडंडियों की गवाही देना मनुष्य के लम्बे जीवन संघर्ष को स्वीकार करना और उसे आदर देना है. यह आधुनिकता और परम्परा के द्वंद्व जैसा है. अत्याधुनिक औजारों ने पगडंडियाँ नहीं बनायीं हैं. आदमी के अनवरत चलने वाले पैरों की गवाह हैं पगडंडियाँ. दैत्याकार मशीनों द्वारा पृथ्वी का सीना चीर कर बनाये गए रास्तों में इतनी आत्मीयता नही हो सकती.
डिगे भी हैं/लड़खड़ाए भी/ चोटें भी खाई कितनी ही/ / पगडंडियाँ गवाह हैं/ कुदालियों, गैतियों/ खुदाई मशीनों ने नहीं/ क़दमों ने ही बनाए हैं-/ रास्ते.
पगडंडियों की गवाही देना साबित करता है कि कवि की चिंता का केंद्र सामान्य मनुष्य है जिसका जीवन उसकी परम्परा से गहरे जुड़ा होता है. इससे कवि कि पक्षधरता का सहज ही अनुमान लग जाता है कि उसकी आत्मीयता उस बहुसंख्यक समाज से है जो आज भी अपनी धरती और अपने लोगों से प्यार करते हैं. कवि को कंकड़ छांटती औरत, पत्थर चिनाई तथा रंग पुताई करता मजदूर, लोक वृक्ष, एवं अन्य कविता के लिए प्रेरित करते हैं. कवि को धरती से बहुत लगाव है. इसीलिए वह कहता है-
पृथ्वी पर लेटना/ पृथ्वी को भेटना भी है/ खास कर इस तरह/ जिंदा देह के साथ/ जिंदा पृथ्वी पर लेटना.
उसे पृथ्वी की अवमानना बिल्कुल भी पसंद नहीं. एक तरफ वह जहाँ अत्याधुनिक कहे जाने वाले समय में पगडंडियों की गवाही देता है, वही दूसरी तरफ पृथ्वी और उससे जुड़े पुराने मुहावरों को दुरुस्त भी करता जाता है. कृष्ण कुमार ने अपने एक भाषण में कहा था कि कवि शब्दों में नया अर्थ भरता है. शब्दकोश में पड़े शब्द किसी कवि का इंतजार करते हैं. कहने की जरूरत नहीं कि भाषा को परिष्कार की जरूरत होती है. आधुनिक साहित्य ने तमाम ऐसे मुहावरों को बाहर कर दिया या उनके अर्थ बदल डाले जो किसी न किसी रूप में मनुष्यता और सामाजिक व्यवस्था के अनुकूल नहीं थे. यहाँ कवि ने पृथ्वी से जुड़े महावरों पर नया दृष्टिकोण दिया है-
मिट्टी में मिलाने/ धूल चटाने जैसी उक्तियाँ/ विजेताओं के दंभ से निकली हैं/ पृथ्वी की अवमानना है/ इसी दंभ ने रची है दरअसल/ यह व्याख्या और व्यवस्था/ जीत और हार की.
कवि की यह पक्षधरता कोरी भाउकता भर नहीं है. वह पृथ्वी के साथ-साथ उन लोगों पर भी कविता लिखता है जो इस पृथ्वी को सुंदर बनाने में दिन रात लगे रहते हैं. अत्मरंजन ने कामगारों पर कविताएँ लिखी हैं. इनमें एक मजदूर को सिर्फ उसकी मजबूरी से उपजी विवशता के तहत प्रदर्शित नहीं किया गया है बल्कि उसके काम के प्रति लगाव और तन्मयता को बखूबी चित्रित किया गया है. मजदूर सिर्फ मजदूर नहीं होता. वह सर्जक होता है. वह एक तरह का कलाकार होता है. जिस एकाग्रता और रचनात्मकता के साथ वह काम करता है वैसा सिर्फ एक कलाकार ही कर सकता है. अत्मारंजन के यहाँ पत्थर चिनाई करने वाला एक मूर्तिकार से कम नहीं है और घरों में रंग पुताई करने वाला मजदूर किसी चित्रकार से कम नहीं है. सबसे बड़ी और लोगों को आश्चर्यचकित कर देने की छमता रखने वाली पंक्तियाँ कि पत्थर से चौबीस घंटे के  संग-साथ के बावजूद वह मजदूर पत्थर का नहीं हुआ है. वहीं रंग पुताई करने वाला मजदूर घर की दीवारों से सीलन निकालने के क्रम में पृथ्वी की सीलन को निकल रहा है. उसके हुनरमंद हाथ पृथ्वी की देह पर मरहम लगाने का काम करते हैं. विकास की अंधी दौड़ में शामिल होने के लिए प्रकृति से जो जबरदस्ती की जा रही है उससे उपजे घावों पर यही लोग मरहम लगाते हैं. याद रखना चाहिए कि यही लोग पगडंडियाँ बनाते हैं और उसपर चलते भी हैं.
पत्थर चुनता है वह/ पत्थर बुनता है/ पत्थर गोड़ता है/ तोड़ता है पत्थर/पत्थर कमाता है पत्थर खाता है/../ पत्थर के हैं उसके हाथ/ पत्थर का जिस्म/ बस नहीं है तो रूह नहीं है पत्थर// एक एक पत्थर को सौंपता अपनी रूह.
आत्मारंजन के यहाँ पहाड़ों का जन जीवन अपनी पूरी शिद्दत के साथ प्रकट होता जरूर है परन्तु इन्हें केवल पहाड़ी जीवन के साथ सीमित कर के देखना उन्हें कम कर के आंकने के बराबर है. उनकी चिंता में लुप्तप्राय लोक गीतों का अमर वृक्ष मदनू और लोकगीतों का एक प्रकार जुल्फिया शामिल है जो पूरे भारतीय एवं वैश्विक परिदृश्य पर समकालीन चिन्तन के केंद्र में हैं. विकास और विनाश के बीच झूझती मानवीयता के लिए इन प्रश्नों का महत्त्व बढ़ गया है. ये वे संस्कृतियाँ हैं जो कवि के शब्दों में कहें तो इन्हें ‘पीपल की तरह बस्ती के बीचो-बीच शुचिता के ऊँचे चबूतरे बिराजमान’ तथा ‘देवदार की मानिंद देव संस्कृति से जुड़े होने का गौरव’ प्राप्त नही है. बेहतर समाज निर्माण के स्वप्नों में श्रम के महत्त्व को दुनिया भर में स्वीकृति मिली है. लोक जीवन और लोक संस्कृति को अपनी चिंता में स्थान देना उसी श्रम के महत्त्व को स्वीकार करना है. उसी बेहतर दुनिया के स्वप्न में शामिल होने जैसा जिसमें श्रम की केन्द्रीयता होगी. जुल्फिया लोक गायन शैली के विलुप्त होने के दुःख के साथ कवि कवि प्रश्न करता है –
कैसे और किसने किया/ श्रम के गौरव को अपदस्थ/ क्यों और कैसे हुए पराजित तुम खामोश/ अपराजेय सामूहिक श्रम की/ ओ सरल सुरीली तान/ कुछ तो बोलो जुल्फिया रे!



Wednesday, September 4, 2013

भाषा की क्षति आर्थिक क्षति भी है

भाषा की क्षति आर्थिक क्षति भी है

बृजराज सिंह


वडोदरा के भाषा शोध और प्रकाशन केंद्र के पीपुल लिंगुइस्टिक सर्वे के अनुसार पिछले पचास वर्षों में भारत की बीस फ़ीसदी मातृभाषाएं बिलुप्त हो गयीं हैं. यह कहना है पीपुल लिंगुइस्टिक सर्वे के मुख्य संयोजक गणेश दवे का. पिछले दिनों इस सम्बन्ध में पीपुल लिंगुइस्टिक सर्वे ने एक रिपोर्ट पेश की है. 1961 की जनगणना के बाद भारत में करीब 1650 मातृभाषाओं का पता चला था. इसमें सरकार ने माना था की लगभग 1100 भाषाएँ अस्तित्व में हैं; और यह भी तब जब प्रत्येक भाषा को बोलने वाले कम से कम 10 हजार की संख्या में हों. गणेश दवे का कहना है कि उसके बाद ऐसी कोई भी सूची नहीं बनाई गयी. इस पूरे सर्वे में लगभग तीन हजार लोग शामिल थे जिन्होंने मिलकर कुल 800 के आसपास भाषाओँ की खोज कर सके. बाकी की भाषाओँ का पता नहीं चला. इसका मतलब था कि बाकी की भाषाएँ मर गयीं. इस सर्वे के अनुसार जो भाषाएँ लुप्त हुयी हैं उनमें ज्यादातर समुद्री किनारे के क्षेत्रों तथा बंजारा समुदायों की भाषाएँ थीं. शहरों का बढ़ता दायरा भी उसके पीछे कारण है. इसीलिए वे कहते हैं कि शहरों में भाषाओँ को बचाने के लिए जगह रखनी चाहिए. रमेश दवे ने एक और बहुत अच्छी बात कही है कि भाषाओँ की क्षति आर्थिक क्षति भी है. भाषा के सम्बन्ध में यह एक नयी बात है. वे कहते हैं कि हर भाषा में पर्यावरण से संबंधित एक खास तरह का ज्ञान जुड़ा होता है. जब एक भाषा चली जाती है तो उसे बोलने वाले पूरे समूह का ज्ञान लुप्त हो जाता है. जो एक बहुत बड़ा नुकसान है क्योंकि भाषा  एक ऐसा माध्यम है जिससे लोग अपनी सामूहिक स्मृति और ज्ञान को जीवित रखते हैं.
अब यह देखना भी दिलचस्प होगा कि जिनकी भाषाएँ मर रही हैं वे लोग खुद भी मर रहे हैं. उन्हें मारने के लिए पहले उनकी भाषाओँ को मारा जा रहा है. देश में आदिवासी आज भारी संकट में हैं. उन्हें उनके मूल निवासों से भगाया जा रहा है ताकि वहां पर खनन का लूटतंत्र निर्बाध रूप से चलाया जा सके. देश को बड़ी बड़ी कंपनियों के हवाले करने का खेल जोरो शोरो से चल रहा है. उनकी भाषा को, उनकी अभिव्यक्ति को, उनकी सोच को पहले मार दिया जाये तो फिर उनको मारना आसान हो जाएगा. उनके लिए बोलने वालों को डरा दिया जाएगा. फिर जंगलों, पहाड़ों को बिना रोक टोक के लूटा जा सकेगा. भाषा का संबंध जातीय चेतना से जुड़ा होता है; सामूहिक चेतना से जुड़ा होता है. भाषा आत्मसम्मान तथा आत्मगौरव सिखाती है.
भाषा का संबंध सत्ता और बर्चस्व की संस्कृति से भी जुड़ा होता है. अगर ऐसा नहीं होता तो डोगरी संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल नहीं हो जाती-जिसे बोलने वाले बहुत ही कम रह गए हैं-और भोजपुरी, ब्रजी, अवधी तथा अन्य कई भाषाओँ को आज तक इतने लम्बे आंदोलनों के बावजूद जगह नहीं मिल पाई है. अंग्रेजी के बढ़ते बर्चस्व को भी हमें इसी रूप में देखना चाहिए. उपभोक्तावादी संस्कृति के समर्थक और उसके वाहक लोगों की भाषा अंग्रेजी ही है. विश्व को एक गाँव बना देने की मंशा तभी सफल हो पायेगी जब विश्व की भाषा भी एक हो. यह तभी होगा जब दुनिया की बाकी भाषाएँ दम तोड़ देंगी. दुनिया के कुछ देश इस समस्या और षड़यंत्र से सचेत रूप से लड़ भी रहे हैं. लेकिन भारत स्थानीय स्तर पर और वैश्विक स्तर दोनों पर असफल है. जो लोग आज छोटी मोटी भाषाओँ के मरने पर चिंतित नहीं हैं वे कल देश की बड़ी भाषाओँ के लुप्त होने पर भी चिंतित नहीं होंगे. अंग्रेजी आज हिंदी के साथ-साथ अन्य भारतीय भाषाओँ के लिए खतरे उत्पन्न कर रही है. दुनिया के व्यापार में भारत एक बड़े बाजार के रूप में देखा जा रहा है. अंग्रेजी के स्वीकार से यहाँ व्यापार करना आसान हो जाएगा. यही तो चाहती हैं उपभोक्तावादी और साम्राज्यवादी शक्तियाँ. जिस तरह से यह कहा जाता है कि ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में स्थानीय भाषाएँ हिंदी का मुकाबला नहीं कर पाएंगी उसी तरह बाद में यह कहा जाएगा कि हिंदी अंग्रेजी का मुकाबला नहीं कर सकती इसलिए हिंदी छोड़ अंग्रेजी को अपना लिया जाए. इसीलिए कभी-कभी हिंदी को भी रोमन लिपि में लिखने का सवाल उठ खड़ा होता है.
कोई भी व्यक्ति अपनी मातृभाषा में ही सबसे बेहतर सोच सकता है तथा उसे अभिव्यक्त कर सकता है. आजादी का मतलब भी अपनी भाषा में ही समझ और समझा सकता है. मैकाले का भारतीय शिक्षा नीति को लेकर ब्रिटेन की संसद में दिया गया भाषण तो सबको याद ही होगा जिसमें उन्होंने कहा था कि यदि भारत को लम्बे समय तक गुलाम बना कर रखना है तो उसे उसकी भाषा से दूर करना होगा. साम्राज्यवादी शक्तियों का मुकाबला अपनी भाषा को महत्व देकर ही किया जा सकता है. आजादी मिलने के इतने सालों बाद भी हम पूरी तरह से औपनिवेशिक मानसिकता से उबर नहीं पाए हैं. अंग्रेजी हमारी सोच को हर स्तर पर प्रभावित कर रही है. शिक्षा व्यवस्था पब्लिक स्कूलों के चंगुल में फसती जा रही है. सरकारी प्राथमिक स्कूल सिर्फ उनके लिए रह गए हैं जो किसी तरह से पब्लिक स्कूलों में नहीं जा सकते या जो आज भी बेहतर शिक्षा के प्रति उदासीन हैं. सरकारें जिस तरह से पब्लिक स्कूलों को सुविधाएँ मुहैया करा रही हैं तथा सरकारी स्कूलों के प्रति उदासीनता दिखा रही हैं; उससे तो साफ जाहिर है कि आने वाले दिनों में भारतीय शिक्षा व्यवस्था भी प्राइवेट हाथों में चली जाएगी. यह वैश्विक षड़यंत्र और उससे उपजे संकट हैं. अंग्रेजी को इन्टरनेशनल लैंग्वेज का नाम दिया जा रहा है. उसे आर्थिक अथवा व्यापार की भाषा के रूप में प्रस्तावित किया जा रहा है. यही साम्राज्यवादी एजेंडा है. ऐसे में कोई लेखक बुद्धिजीवी भाषाओँ को बचाने और उनकी अस्मिता के लिए लड़ने को साम्राज्यवादी एजेंडा या एजेंट कहे तो उसे क्या कहा जा सकता है.

छोटी छोटी अस्मिताओं का उभरना साम्राज्वाद के लिए सबसे बड़ा खतरा बन रहा है. इसीलिए थ्योंगो जैसे लोग गिरफ्तार किये जाते हैं. थ्योंगो ने कहा भी है कि जब मैं उनकी भाषा में लिखता था तब वे मुझे पुरस्कार देते थे  और जब मैं अपनी भाषा में लिखने लगा तो जेल में डाल दिया. हिंदी और उससे जुड़ी भाषाओँ (आम तौर पर जिन्हें बोलियाँ कहा जाता है) के संबंध में भी यही सच है कि जो लोग इन भाषाओँ के अस्तित्व को नकार रहे हैं वे जाने अनजाने साम्राज्यवादी एजेंडे को मदद पहुंचा रहे हैं. जो व्यवहार अंग्रेजी का हिंदी के प्रति है वही व्यवहार हिंदी को अपनी अन्य भाषाओँ के साथ नहीं करना चाहिए. संविधान कें शामिल सिर्फ 22 भाषाओँ को ही नहीं बल्कि भारत की सभी भाषाओँ को सरकारी सहायता और संरक्षण मिलना चाहिए. छोटी भाषाओँ को बचाने के हर संभव प्रयास किए जाने चाहिए. और यकीन मानिए इससे हिंदी को कोई नुकसान नहीं होगा.

Monday, July 22, 2013

क्या करूँ मैं.


क्या करूँ मैं.......
बनारस के अखबारों में एक खबर थी कि इटली की एक महिला-जो यहाँ घूमने आयी थीं- को एक अनाथ लावारिस बच्चा मिला जिसे लेकर वह शहर भर में घूमती रही कि उसे कोई जगह मिल जाये| चाइल्ड लाइन एवं स्वयं सेवी संस्थाओं से लेकर पुलिस तक| लेकिन कोई जगह नही मिली तो उसे मजबूरन उस बच्चे को लेकर धरने पर बैठना पड़ा, तब जाकर उसे कोई जगह मिल सकी| इस बच्चे को तो जगह मिल गयी परन्तु उस जैसे कई बच्चे हैं जिनके लिए कोई धरने पर बैठने वाला नही है| जिन्हें जगह नही मिल पायी उनका क्या होगा?

कुछ दिनों पहले बनारस में ही एक बच्चा चोर गिरोह के पास से लगभग एक दर्जन बच्चे बरामद हुए थे; जिनकी उम्र आठ से बारह वर्ष थी| आये दिन बनारस के आस-पास से बच्चों के गायब होने की खबरें आतीं रहतीं हैं| आखिर कहाँ जाते हैं ये बच्चे? एक तरफ भीख मांगनेवाले बच्चों की संख्या में लगातार इजाफा होता जा रहा है और दूसरी तरफ बच्चों के गायब होने की वारदातें भी बढ़ रही हैं| जब हम लोग काशी हिंदू विश्वविद्यालय में पढ़ने आये थे उस समय लंका पर इक्का-दुक्का लावारिस बच्चे दिख जाते थे, परन्तु अब लगभग दो दर्जन लड़के-लड़कियां भीख मांगते रहते हैं| इनमे बारह-चौदह साल कि एक-दो लड़कियां भी हैं| कहा जाता है कि बच्चे ही किसी देश के भविष्य होते हैं; तो जिस देश में बच्चे फुटपाथ और रेलवे स्टेशनों पर जीवन बिताने के लिए अभिशप्त हों, उस देश का भविष्य क्या होगा? मेरे मन में दो सवाल उठते हैं; एक तो यह कि इसमें गलती किसकी है और दूसरा यह कि जिम्मेदारी किसकी है| क्या कोई गलती उन बच्चों की  भी है जिन्हें दो शरीरों ने धरती पर लाकर पटक दिया| ऐसे में क्या कोई जिम्मेदारी उस राष्ट्र की भी बनती है या नही, जिस राष्ट्र के वे जन्मजात नागरिक हैं|

मुझे कुछ  दिनों पहले की एक घटना याद आती है| कवि केदारनाथ सिंह एक संगोष्ठी के सिलसिले में बनारस आये हुए थे| उन्हें मुगलसराय स्टेशन से रात एक बजे वाली राजधानी पकड़नी थी| हमलोग साढ़े बारह बजे स्टेशन पहुँच गए| रेलगाड़ी का समय बढ़ता जा रहा था और हम लोगों का धैर्य जवाब देता जा रहा था| वो तो केदार जी के सानिध्य का लोभ था कि आधी रात में भी चला गया था| वहीँ प्लेटफार्म पर बैठे रहे| मैं जिन साहित्यकारों से मिल चुका हूँ उनमें केदार जी का व्यक्तित्व बड़ा ही चुम्बकीय लगता है| रात करीब डेढ़ बजे चार-पांच बच्चे जिनकी उम्र आठ से बारह के बीच रही होगी; जो रेलवे स्टेशनों पर अपना जीवन बिताते हैं, हम लोगों की बगल में आकर लेट गए| उनमें से किसी के भी बदन पर ढंग के कपड़े नही थे| एक ने तो निक्कर के अलावा कुछ भी नही पहना था| मैंने अभी तक कोई विशेष ध्यान नहीं दिया था क्योंकि केदारजी की बातें सुनना प्रियकर था| लेकिन थोड़ी ही देर बाद दो लड़के और आये जिनमें एक की उम्र सात-आठ साल रही होगी| मेरा ध्यान उनकी तरफ गया| उनमें से एक के हाथ में पॉलिथिन थी जिसमें मुश्किल से सौ ग्राम नमकीन रही होगी| ताज्जुब मुझे इस बात पर हुआ की उसने सबको जगाया और थोड़ी-थोड़ी नमकीन दी| मैं सोचता हूँ की कुदरत ने इन्हें इतनी सहनशक्ति कहाँ से दी| उन्हें देखकर मैं अंदर से डर गया| यह सोच कर मेरा रोम-रोम सिहर उठा कि इनकी जगह यदि हमारे बच्चे होते तो? यूँ तो कोई न कोई तकलीफ सबको लगी ही रहती है लेकिन वह फ़िल्मी गीत मुझे बार-बार याद आता है-‘दुनिया में कितना गम है, मेरा गम कितना कम है|’
थोड़ी देर बाद एक लड़का और आया जिसके हाथ में कुछ मिठाई के टुकड़े थे; उसने फिर सबको जगाया और उसमें से थोडा-थोडा दिया| जो सबसे छोटा था सब उसे जगाने की कोशिश कर रहे थे| वह बिना कुछ खाए ही सो गया था| और उनका भोजन क्या है-रेलयात्रियों द्वारा फेका गया खाद्य पदार्थ| कोई भी ट्रेन आती तो वे दौड़ जाते, लेकिन मुझे आश्चर्य हुआ की राजधानी के आने पर हिले तक नहीं| मैंने पूछा तो बताया कि राजधानी वाले कुछ नहीं फेकते| जो सबसे छोटा बच्चा था उसको सब बाबू कहकर बुलाते थे| वह अभी नया-नया आया था| इलाहाबाद में उसे किसी ने ट्रेन में बिठाकर छोड़ दिया| वह कौन हो सकता है जिसने उस मासूम को छोड़ दिया होगा, यदि उसके माँ-बाप ने ही उसे छोड़ा है तो वह कौन सी परिस्थितियाँ होंगीं जिनसे मजबूर होकर उन्हें यह कदम उठाना पड़ा होगा| वह किसी तरह मुगलसराय पहुँच गया| इन लड़कों ने यथासामर्थ्य उसकी जिम्मेदारी ले रखी थी| फिर दिल्ली कि ट्रेन पर बिठाया भी कि वापस घर चला जाए परन्तु वह किस घर जाता? बीच रास्ते से ही वापस आ गया और उन्हीं बच्चों के साथ रहने लगा| वह सबका स्नेह पात्र बन गया था| अब सब जग गए थे और बैठकर खेल रहे थे| बाबू बार-बार यह कह रहा था कि वह बड़ा होकर एक बहुत बड़ा मकान बनवाएगा और सबको अपने साथ रखेगा| वह सबको अच्छा-अच्छा खाना खिलाएगा फिर सबकी शादी करेगा| इस बात पर सब जोर-जोर से हंसने लगते और बाबू को फिर से कहने के लिए कहते| बार-बार उससे कहलवाकर सुनते जाते और हंसते जाते| ‘वह हंसी बहुत कुछ कहती थी’|

रात के तीन बज चुके थे, मैं अभी उनसे बात कर ही रहा था कि इतने में राजधानी एक्सप्रेस आ गयी| केदारजी को ट्रेन में बिठाकर हम लोग वापस आ गए| रास्ते में मुझे केदारजी की ही एक कविता याद आती रही- “क्या करूँ मैं/ क्या करूँ, क्या करूँ/ कि लगे कि मैं इन्हीं में से हूँ/ इन्हीं का हूँ/यही हैं मेरे लोग/जिनका मैं दंभ भरता हूँ अपनी कविता में/और यही,यही/जो मुझे कभी नही पढ़ेंगे/छू लूँ किसी को,लिपट जाऊं किसी से/मिलूं, पर किस तरह मिलूँ/ कि बस मैं ही मिलूँ/ और दिल्ली न आए बीच में/क्या है कोई उपाय/कि आदमी सही साबूत निकल जाए गली से/और बिल्ली न आए बीच में|”

Saturday, May 11, 2013

जवान होते हुए लड़के का कबूलनामा


हमने तो तर्जे-फुगां की है क़फ़स में र्इज़ाद
निशांत के संग्रह कि समीक्षा 

बृजराज सिंह
‘‘जनता मुझसे पूछ रही है
क्या बतलाऊँ
जन कवि हूँ मैं साफ कहूँगा क्यूँ हकलाऊँ।’’

नागार्जुन की यह पंक्तियां, निशांत का संग्रह जवान होते हुए लड़के कबूलनामा पढ़ते हुए बराबर याद आती रहीं। नागार्जुन निशांत के प्रिय कवि भी हैं। निशांत को जन कवि तो नहीं कह सकता लेकिन उनकी कविताओं में ऐसा बहुत कुछ है जिसे कहने में बड़े-बड़ों को हकलाहट जाएगी। निशांत का यह संग्रह पढ़कर देखा जा सकता है कि  कवि में कहीं भी कोर्इ हकलाहट नहीं है। साफगोर्इ निशांत की पहचान बन जाती है। उन्हें स्वीकार करने में कोर्इ हिचकिचाहट नहीं है कि मैं बहुत कमजोर हूँ/खूब जोर-जोर से रो रहा हूँ /हाउ-हाउ करके /जबकि जानता हूँ मर्द नहीं रोते औरतों की तरह/ फिर भी/ मैं और रोना चाहता हूँ/चाहता हूँ आवाज निकले रजार्इ से बाहर। निषान्त एक संभावनाशील युवा कवि हैं। इनका एक काव्य संग्रह जवान होते हुए लड़के का कबूलनामा ज्ञानपीठ से हाल ही में प्रकाशित हुआ है। जिसपर पूरे देष में चर्चा परिचर्चा होती रही है। और यह कबूलनामा सिर्फ निषान्त का नहीं बल्कि हर उस मध्यवर्गीय लड़के का है जो जवान होने की प्रक्रिया से गुजर रहा है। जब कवि कहता है- खूब ध्यान से देखता है वह ाीषा/और घोशणा करता है/शीषे में अपने को चूमते हुए/ ‘‘मैं बड़ा हो गया हूँ।’’एक उद्धरण और देना चाहता हूँ जिससे यह स्पश्ट हो जाएगा कि कवि किस साहस और साफगोर्इ से बात कहता है- कभी-कभी पिता बन्द कर देते हमें कमरे में/ और जाने क्या करते रहते दूसरे कमरे में /मां के साथ कर्इ घंटो तक /हम जब मुक्त होते / पिता हमें देते टांफियाँ, चाकलेट और पैसे/माँ हमसे आंखे चुराती चुपचाप/फिर पिता रहते कर्इ-कर्इ दिनों तक घर से बाहर।

भारत भूशण अग्रवाल पुरस्कार के लिए की गयी संस्तुति में नामवर जी ने कहा था कि यह कवि विषेश रूप से मध्यवर्गीय जीवन के अनछुए पहलुओं यहाँ तक की कामवृत्ति के गोपन एन्द्रिय अनुभावों को भी संयत ढंग से व्यक्त करने का साहस रखता है। काव्य भाशा पर भी कवि का अच्छा अधिकार है। निशांत ने उस मध्यवर्ग की विडंबना को बड़े ही खूबसूरत ढंग से बिजली और बल्ब के उदाहरण से समझाने का प्रयास किया है-दिन में बिजली नहीं रहती/तुम एक गांव में हो/दिन में बिजली रहती है/बल्ब नहीं जलते/तुम एक ाहर में हो/दिन में बिजली रहती है/और दिन रात बल्ब जलते हैं/तुम राजधानी में हो। नामवर जी जिस मध्यवर्ग की तरफ र्इषारा कर रहे हैं निशांत उसे बीच का आदमी कहते हैं- जो सबसे आगे है सबसे पीछे/दौड़ते हुए लोगों में /वे बीच के होते हैं/ वे सबसे आगे होते हैं/ सबसे पीछे/ वे सिर्फ बीच में होते हैं/और दोस्तों/पृथ्वी गवाह है/ इतिहास में बीच के लोगों का नाम नहीं होता। यहाँ ध्यान रखना चाहिए कि अब तक इतिहास की ही गवाही दी जाती थी परन्तु कवि ने यहाँ मध्यवर्ग के सन्दर्भ में संभवत: पहली बार पृथ्वी की गवाही दी है। ाायद इसलिए कि पृथ्वी से मध्यवर्ग का जुड़ाव बहुत मजबूत है। किसी भी समाज में मध्यवर्ग के सामने जिम्मेदारियाँ बहुत होती हैं इसलिए चुनौतियाँ भी उसी के सामने सबसे ज्यादा होती हैं। निषान्त की कविताओं में यह मध्यवर्ग बार-बार उपस्थित हो जाता है। वह दुविधा की स्थिति में हाँ कह देता है। दुख से मध्यवर्ग का अजीब रिष्ता है- इन दिनों /दुख दिखलार्इ देता हुआ आता/और पूरे कमरे में उपस्थित हो जाता। ध्यान देना होगा कि यह कमरा सिर्फ कमरा है, घर नहीं। एक मध्यम आकार का कमरा जिसमें कवि का पूरा परिवार (पांच सदस्य) और एक पालतू तोता रहता है। घर तो वशोर् पहले छुट गया गाँव में। गाँव से पलायन मजबूरी थी कवि का परिवार भी कोलकाता में जाकर बस गया है। घर उसकी स्मृतियों में बसा हुआ है, जिसे वह बार-बार खोजता है। जैसे हर दुख की दवा उस घर में हो। कवि कहता है- अब तो वह तस्वीर भी खो गयी। जिसमें घर था। अब घर के बहाने मैं अपने कमरे से बाहर निकलता हूँ/बाहर कमरों का जंगल है/घर ाायद मेरे भीतर कहीं दब गया है/ जिसे रोज मैं बाहर खोजता हूँ। इस पूरे काव्य संग्रह में दुविधा में पड़े मध्यवर्गीय लोग हैं। एक तरह से यह उनकी जीवनी है। जो ना ना कहते-कहते हाँ कह देते हैं, और अपने कछुवा धर्म के साथ चिपके रहते हैं। मध्यवर्ग की बातें अनेक हैं। कवि कहता है-एक बात नहीं/कर्इ बातें/फिर तो/तह पे तह पे तह पे तह होती गयीं बातें/मैं बनाने लगा/ कछुआ जैसा मजबूत सुरक्षा कवच/अपने चारो ओर/और फिर दुबक गया उसके अन्दर।
       जैसा कि संग्रह का ाीर्शक है जवान होते हुए लड़के कबूलनामा तो संग्रह में ाीर्शक के अनुरूप कुछ कविताएं भी होनी चाहिए। इस लिहाज से जब मैंने देखा तो पाया कि संग्रह का काव्यनायक जवान हो नहीं गया है बल्कि जवान होने की प्रक्रिया में है। किसी निष्चित उम्र पर लिखी गयी कविताएं ध्यान आकर्शित करती हैं। सत्ताइस की उम्र में’, अट्ठाइस की उम्र में’, उनतीस की उम्र में’,’तीस की उम्र में कविताएं पढ़ने पर पता चलता है कि कवि का आब्जर्वेषन (Objervation) कितना सूक्ष्म है। जिसकी वजह से एक बेहद निजी मामला होते हुए भी कविताएं बृहत्तर मध्यवर्गीय युवा समाज से संवाद करती प्रतीत होती हैं। लड़का जब सत्ताइस की उम्र में पहुंचता है तब अचानक लड़का असामान्य-सा कुछ महसूसने लगा अपने अन्दर उसका मन परिपक्वता की ओर धीरे-धीरे बढ़ रहा है। वह महसूस करने लगता हैं यहाँ सम्बन्ध मतलब जरूरतों का समझौता है। वह प्रेम, प्रेमिका, पैसा, सम्बन्ध, साहित्य, सफलता, आत्महत्या के सवालों में उलझ गया है। कुछ समझ नहीं पा रहा है-ये सारे उत्तर थे प्रष्न की तरह/या सारे प्रष्न थे उत्तर की तरह।
       जब वह अट्ठाइस की उम्र में पहुचता है तब तन और मन का द्वन्द्व कवि के मन पर हावी हो जाता है, फिर वह सोचने लगता है कि प्रेम की अंतिम परिणति दो रानो के बीच होती है यह कवि की र्इमानदारी है। उसका साहस है। आत्माभिव्यक्ति के लिए और रचना के लिए भी यह र्इमानदारी और साहस सबसे पहली ार्त होती है। जो निशांत के पास है। यह साहस निराला के पास था। गांधी ने अपनी आत्मकथा सत्य के प्रयोग में यही र्इमानदारी बरती थी। अपने जीवन के गोपन रहस्यों को बेबाकी से कहने का साहस। और सब कह लेने के बाद कवि प्रष्न पूछता है-तुम क्या जानो/एक अट्ठाइस साल की उम्र के लड़के की जरूरत। यह प्रष्न वह सिर्फ अपनी प्रेमिका से नही कर रहा है बल्कि अपने आसपास, अपने परिवेष से कर रहा है। किसी बात को सायास ढकने-तोपने के चक्कर में कवि नहीं पड़ता है। जो जैसा है उसे वैसा ही लिख देना भी कठिन कवि कर्म है। यह निशांत के उज्ज्वल कवि भविश्य की ओर र्इषारा कर रहा है। उनतीस साल में प्रवेष करने पर उसे महसूस होने लगता है कि जीवन जटिल होता जा रहा है वह आत्महत्या के बारे में सोचने लगता है-एक सांस लेता हूँ/कर्इ आफतें एक साथ अन्दर चली जाती हैं। यहाँ यह देखा जा सकता है कि इस उम्र के युवकों का मानसिक तनाव, घुटन, त्रासदी को अभिव्यक्त करने में कवि कितना सफल हुआ है। पे्रमिका, परिवार, नौकरी, के मकड़जाल में फंसा नवयुवक को यही महसूस होता है कि हर सांस के साथ मुसीबतें बढ़ती चली जा रही हैं। लेकिन मुसीबतों का सम्बन्ध सिर्फ सांसों से होता तो सांस के साथ बाहर भी निकल जातीं। इसीलिए कवि को कहना पड़ा-सांस छोड़ते वक्त/कुछ भी बाहर नहीं आता। तीस की उम्र तक पहुँचते-पहुँचते इस दुनिया से उसका मोहभंग हो जाता है-’’दुनिया बहुत खूबसूरत है/जीवन बहुत हसीन।’’ में उसका विस्वास नहीं रह जाता है। यहीं कवि को अपने पूर्वज कवि गोरख पाण्डेय की याद बड़ी तेजी से आती है और कहता है-’’किसी ऐसे ही क्षण में/गोरख ने की होगी अपनी आत्महत्या।’’ कवि सोचता है कि परिस्थितियाँ कितनी विशम रही होंगी जिसमें गोरख को आत्महत्या का निर्णय लेना पड़ा होगा। खुद उसके सामने भी तो वही परिस्थितियाँ मुंह बाए खड़ी हैं-तुमने भी क्या वही सोचा होगा गोरख/जो आज मैं सोच रहा हूँ/जब बाहर अमलताास खिला हो/बोगेनबेलिया लहलहा रही हो/और भीतर मर्इ की धूप फैली हो। कवि यहाँ तक तो अपने को बचा ले जाता है। लेकिन इन विशम परिस्थितियों का प्रभाव उसके नाम पर पड़ ही जाता है। उसे नाम बदलना पड़ता है। गांव-घर में पचीस साल की उम्र तक वह मिठार्इ लाल बना रहा। दिल्ली आने पर निशांत हो जाना पड़ा। यह सिर्फ मिठार्इलाल से निशांत हो जाना भर नहीं है। एक मध्यमवर्गीय परिवार के लड़के का बड़े ाहर में जाने पर जो कॉम्प्लेक्सेस (Complexes) आते हैं उनकी तरफ र्इषारा कर रहा है। नाम को लेकर अपनी पहचान को लेकर कर्इ तरह के हीन भाव आने लगते हैं। अब उसे अपना नाम उजबक सा लगने लगता है। अपनी पुरानी पहचान छोड़कर एक नये नाम के साथ जीवन की ाुरुआत करना कितना कठिन होता है। यह जीवन के एक महत्वपूर्ण हिस्से को काटकर फेंक देने जैसा है। वह अपने आप से क्षमा मांगने लगता है। यह एक बड़े सामाजिक-सांस्कृतिक संकट की ओर र्इषारा कर रहा है कि मध्यमवर्गीय ग्रामीण परिवेष का व्यक्ति अपनी पहचान खोकर ाहरो में रहने के लिए किस तरह अभिषप्त है। अषोक कुमार सिंह की एक कविता याद रही है- जहाँ अपने पते पर लापता रहते हैं सारे लोग/उसको ाहर कहते हैं तभी तो निशांत भी कहते हैं-गांव में/हम होते हैं/षहर में/मैं होता हूँ।
       आज के समय में जब परिवार टूट रहे हैं, बिखर रहें हैं। पारिवारिक संबंध लगभग खत्म हो रहे हैं। तब निशांत पूरी संवेदना और शिद्दत के साथ एक मध्यवर्गीय परिवार को याद कर रहे हैं। उसके गोपन रहस्यों को उद्घाटित करते हुए उसका चित्रण करते हैं। निशांत की कविताओं में घर, प्रेम, प्रेमिका, भार्इ-बहन, माता-पिता, मित्र-दोस्त यहाँ तक की कुत्ते और बिल्लियाँ भी बार-बार आते हैं- माँ और पिता पर निशांत ने बहुत अच्छी-अच्छी कविताएं लिखी हैं। पिता को याद करते हुए वे  कहते हैं- पिता तब्दील हो जाते विषाल बरगद के पेड़ में/फैलता जाता उनका व्यक्तित्व बरगद की जटाओं की तरह/इतने पत्ते, इतनी ााखाएं, इतना गोरा तना, इतने सोर/हम थक कर चूर-चूर हो जाते गिनते-गिनते/सो जाते उस विषाल बरगद की गोद में/बरगद बदल जाता ठंडी हवा और छांव में/ठंडी हवा और छांव बदल जाते पिता में। वहीं आसन्न खतरे से भयभीत मुर्गी के बच्चों को देखकर कवि को माँ की याद जाती है।
       निशांत को  अन्य कवियों से अलग करती है। उनकी कहने की ौली। कहने के लिए वे किसी बड़बोलेपन या प्रचलित मुहावरों के चक्कर में नहीं पड़ते हैं। वे सिर्फ अपनी बात कहते हैं। जिन्हें कवियों में बड़बोलापन, या राजनीतिक नारे देखने की आदत हो गयी है। उन्हें इस संग्रह से निराषा हाथ लग सकती है। निशांत मरने-मारने या क्रान्ति की बात नहीं करते हैं। वे किसी बड़े सामाजिक परिवर्तन की बात नहीं करते हैं। वे बस मध्यवर्गीय चुनौतियाँ और संवेदना की बात करते हैं। वे सिर्फ अपनी बात नहीं कह रहे हैं, बल्कि पूरे वर्ग की ओर से बोल रहे हैं, जिसे वे अपनी अंतिम कविता में स्वीकार करते हैं- मैंने/अपनी बात कही/उन्हें लगा/उनकी बाते मैंने कही/इस तरह भी लिखी/मैंने एक कविता।और यह बात कहने का ढंग ऐसे ही नहीं गया। फ़ैज अहमद फ़ैज का एक ोर मौंज़ू है-
हमने तो तर्जे-फ़ुग़ां की है क़फ़स में र्इज़ाद
फ़ैज़ गुलषन में वही तर्जे-बयां ठहरी है।