Monday, January 9, 2012

देखना इन बस्तियों को तुम


देखना इन बस्तियों को तुम .......

पिछ्ले दिनों कर्नाटक से एक खबर आयी कि श्रीराम सेना के कार्यकर्ताओं ने सांप्रदायिक तनाव फ़ैलाने के इरादे से एक सरकारी कार्यालय पर रात में पाकिस्तानी झंडा टांग दिया। पूर्वनिर्धारित तरीके से अगले दिन धरना-प्रदर्शन का क्रम चलता रहा और दोषियों को सजा दिलाने के नाम पर जमकर बवाल काटा। जिला प्रशासन की सूझबूझ कि वजह से वे अपने इरादे में सफल नहीं हो सके। श्रीराम सेना और उनके सहयोगी संगठन पहले भी इस तरह के वैमनस्य फ़ैलाने वाले काम करते रहे हैं। पांच राज्यों में चुनाव होने वाला है,ऐसे में वे इस तरह के हथकंडे आगे भी अपनाएंगे। इस तरह के संगठन अपने को राष्ट्रभक्त और देश की बड़ी आबादी(मुसलमान) को राष्ट्रद्रोही सिद्ध करने के लिए समय-समय पर इस तरह के कुचक्र रचते रहते हैं। १९४७ में देश का जो बंटवारा हुआ था वह केवल भौगोलिक सीमाओं का बटवारा था, लेकिन अयोध्या के मंदिर आंदोलन ने देश के अंदर ही दो फाँक कर दिए। इस फाँक को पाट पाना अब नामुमकिन सा लगने लगा है। कुछ लोगों की कोशिशों के बावजूद हिंदू-मुसलमान के बीच की खाई बढ़ती ही जा रही है। अखबार में यह खबर पढ़ कर मुझे अपने गाँव के बदलते हालात की याद आ गयी। मंदिर आंदोलन के पहले का गाँव और उसके बाद का गाँव में अंतर स्पष्ट दिखायी पड़ता है।
मेरा गाँव दो भागों में बंटा है; पूर्वी टोला और पश्चिमी टोला। पूर्वी टोले में हिंदुओं के साथ-साथ मुसलमानों के लगभग सौ घर हैं और पश्चिमी टोले में सिर्फ़ हिंदुओं के घर हैं। मेरा घर इसी पश्चिमी टोले की पूर्वी सीमा पर है। दोनों के बीच लगभग एक किलोमीटर की दूरी है। बीचोबीच एक बड़ा सा नाला बहता रहता है; जिसे पार करने का मुकम्मल इंतजाम आज तक नही हो सका है। भारत में टेलीविजन की लोकप्रियता का मुख्य आधार ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ जैसे धारावाहिक रहे हैं। जिस समय इनका प्रसारण टेलीविजन पर चल रहा था उस समय मेरे गाँव में एक भी टी.वी. नही थी। किसी तरह एक पंडित जी ने चौदह इंच की ब्लैक एंड व्हाइट टी.वी. खरीद ली। अब समस्या थी की वह चले कैसे? गाँव में बिजली जो नही थी। पूर्वी टोले में बिजली थी। आज इसकी कल्पना भी नही की जा सकती कि उस टी.वी. को एक मुस्लिम परिवार के यहाँ रख दिया गया।  कुछ लोगों को इस बात पर विश्वास नही हो सकता कि जब ‘रामायण’,’महाभारत’ का समय होता था उस समय मेरे टोले से लगभग पचास-साठ लोग; जिसमें महिलाएं और बच्चे भी शामिल रहते थे, वहाँ जाते और पूरा एपिसोड देखकर लौटते। शनिवार कि रात और रविवार कि सुबह का यह किस्सा आम हो गया था। यह क्रम बहुत दिनों तक चलता रहा। छुट्टियों में जब कभी मैं गाँव आता तो देखता कि दोनों टोलों के बीच आवाजाही लगी रहती थी। मुझे आज भी याद है कि नाला पार करने कि दिक्कत के बावजूद सफेद कुरता-लुंगी पहने सन सी दाढ़ी वाले शहरयार मियाँ दातुन करते अक्सर आ जाया करते थे। घर से एक लोटा पानी मांगते फिर कुल्ला करते, मुँह धोते। खेत में जो भी सब्जी लगी रहती उसे तुड़वाकर गमछे में बांधते फिर जाते थे। उनका व्यक्तित्व मुझे बहुत आकर्षक लगता था। ऐसे कई नाम आज भी मेरे ज़हन में सुरक्षित हैं जो अक्सर दादाजी से मिलने-जुलने आया करते थे। परिवार की आपसी बातचीत में भी ऐसे कई नाम शामिल रहा करते थे जैसे नज़ीर मियाँ, ज़मील मौलवी सा’ब और रोजू मुंसी तो रोज ही याद किये जाते थे। दादाजी के गुजर जाने के बाद भी यह क्रम कुछ दिनों तक चलता रहा। दादी जब तक जिन्दा रहीं तब तक  लोग आते-जाते रहे। कोई न कोई आकर उनका हालचाल ज़रूर ले लेता था। एक मौलाना तो कहते रहते थे की आपके बच्चे अगर सेवा में कोताही बरतें तो हमसे ज़रूर कहिएगा और हमारे यहाँ चलकर रहिएगा। बकरीद या अन्य किसी त्योहार पर जब उधर से गोश्त आता था तो वह इतना ज्यादा हो जाता था कि अगल-बगल बांटना पड़ता था; कई घरों से जो आता था। सिवई की दावत होती थी। होली पर गुझिया खाने जरूर आते थे। यह मंदिर आंदोलन के पहले की बातें हैं।
     एक बार गाँव में एक दुर्घटना हो गयी थी। गाँव के नवनिर्वाचित प्रधान जो मुसलमान थे, विपक्षी लोगों ने उनकी हत्या कर दी। हत्या करने वाले हिंदू थे। हत्यारों के खिलाफ़ पूरे गाँव में रोष व्याप्त था। लोग उन्हें बद्दुआएं दे रहे थे। कब्रिस्तान में मिट्टी देने के लिए लोगों का हुज़ूम उमड़ पड़ा। क्या बच्चे, क्या बूढ़े, महिलाएं दूर खड़ी सब देख रहीं थीं। मानो सब लोग अपनी उपस्थिति से उस घटना का विरोध कर रहे हों। वह मंज़र मैं आज तक भूल नहीं सका हूँ। आज लगभग पचीस साल बाद फिर उसी तरह उनके छोटे भाई की हत्या कर दी गयी और एक भी आदमी उसके विरोध में खड़ा नहीं हो सका।
     मंदिर आंदोलन और उसके बाद की परिस्थितियों ने गांवों के आपसी रिश्ते तक बिगाड़ दिये हैं। गाँव में एक पुराना हनुमान मंदिर था जिसके चौखटे में आग लगा दी गयी थी। इस अग्निकांड के षडयंत्र का दोषी मुसलमानों को मानकर कुछ लोगों ने उनके साथ दुर्व्यवहार किया। बाद में पता चला कि मंदिर के पुजारी के बेटे ने ही वह आग लगायी थी। ऐसी घटनाओं का पता जब तक चलता है तब तक बहुत कुछ बिगड़ चूका होता है। श्रीराम सेना के इस कुकृत्य से मुझे यह घटना याद हो आई। मेरे टोले में भी बजरंग दल के कार्यकर्ताओं कि एक टीम बन गयी है। क्या पता उधर भी कोई टीम बन गयी हो। अब आने-जाने का क्रम भी टूट-सा गया है।
     दोनों टोलों के बीच का नाला इतना गहरा हो गया है कि उसे पार करने की जहमत कोई उठाना नहीं चाहता। अब रिश्ते टूट से गए हैं जिन्हें जोड़ने की हिम्मत भी किसी में नहीं रही। इस तरह के बदलाव पूरे देश में मंदिर आंदोलन की घटना के बाद से शुरू होता है। कुछ लोग इनका इस्तमाल अपने फायदे के लिए कर रहे हैं। आजादी के साठ साल गुजर जाने के बाद भी हम मुसलमानों को यह भरोसा नहीं दिला सके की यह उनका भी देश है। लोग तब भी धार्मिक थे ;लेकिन तब धर्म का सम्बन्ध खून-खराबे से नहीं जुड़ा था। वह केवल आस्था और विश्वास का मामला था। परिस्थितियां कुछ ऐसी बन गयी हैं कि उन्हें शक की निगाह से देखा जाने लगा है। आज जो स्थितियाँ हैं उसमें निकट भविष्य में कोई उम्मीद भी नहीं दिखायी देती है। दोनों कौम के बीच अजीब सी मुर्दनी छायी है। अगर यूँ ही चलता रहा तो एक दिन सब वीराना हो जायेगा। ग़ालिब का एक शेर है कि-
  “यों ही गर रोता रहा ग़ालिब तो ऐ अहले-जहाँ
       देखना इन बस्तियों को तुम कि वीराँ हो गयीं।”