Wednesday, May 2, 2012

मेरी कुछ कविताएँ: बृजराज सिंह


स्टेशन पर बच्चे


1.आज राजधानी लेट है
जोर से भूख लगी है
राजधानी से बड़े लोगों का
आना जाना रहता है
बड़े लोग जिनके पास
फेंकने के लिए बड़ी-बड़ी चीजें होती हैं

समय से होती तो
पेट भर              सो लिए होते
पर आज देर से आएगी
ये स्साले लोकल वाले
लार्इ भी नहीं फेंकते

राजधानी के आते ही दौड़ पड़े
अपना-अपना थैला लेकर

किसी ने फेकी रोटी, किसी ने सब्जी
किसी ने देसी घी की पूड़ियाँ फेकी हैं चार
राजधानी चली गयी
इकठ्ठा हो सब बाँट लिया
खा लिया, जा रहे हैं सोने
पहले ही देर हो गयी है
भला हो इन राजधानी वालों का
ये फेकें न, तो हम खाएंगे क्या ?


2.स्टेशन के आखिरी प्लेटफार्म पर
सबसे अंत में, भीड़ से अलग
अपने थैले और एल्युमीनियम के कटोरे के साथ
वह बैठा है,           खुले आसमान के नीचे

ऊपर देख रहा है              एकटक
जाने क्या सोच रहा है
आसमान बिल्कुल साफ है
खूब तारे उगे हैं
चन्द्रमा बड़ा दिखार्इ दे रहा है

शायद सोच रहा है
चाँद को भेजा है उसकी माँ ने
थपकी दे सुलाने के लिए
हवाओं से बाप ने भेजी है लोरी
अभी सब तारे सिक्के बन
गिर जांएगे उसके कटोरे में
सुबह से उसे भीख नहीं मांगना पड़ेगा

प्यार की निशानी

तुम्हारे दातों में फंसे पालक की तरह
दुनिया की नजरों में गड़ रही है
तुम्हारे प्यार की अंतिम निशानी

बहुत-बहुत मुश्किल है
उसे बचा कर रख पाना
और
उससे भी मुश्किल है
उसे एकटक देखते रहना
क्योंकि
दुनिया के सारे नैतिक मूल्य उसके खिलाफ़ हैं


लाल

ज़िद तो अब अपनी भी यही है
कि चाहे जीवन एकरंगी हो जाय
पर सिर्फ और सिर्फ लाल रंग ही
पहनूंगा ओढ़ूंगा बिछाउंगा
क्यूबा से मंगाउंगा लाल फूलों की
नर्इ किस्म, अपने आंगन में लगाऊंगा
लाल रंग के फूल ही दूंगा उपहार में
और लाल ही लूंगा
पत्नी के जूड़े में सजाऊंगा लाल गुलाब
किताबों पर लाल जिल्द ही चढ़ाउंगा
झण्डा भी लाल डण्डा भी लाल होगा
साथी! आसमां के तारे सब होंगे लाल-लाल


समझाओ अपनी कलम को 
(अरूंधती राय के लिए)
     1.
देश आज़ाद है, तुम नहीं
अपनी कलम से कह दो
प्रशस्ति लिखना सीख ले
कसीदे गढ़ना तुमने, उसे नहीं सिखाया
अब जबकि लिखने का मतलब है झूठ लिखना
तब आदमी की बात न करो
आदमखोर के साथ रहना सीख लो

बड़े-बड़े गुण्डे देश की संसद चलाएंगे
बलात्कारी सड़क पर सीना ताने घूमेंगे
सच लिखने वाले जेल जाएंगे
अपना हक मांगने वाले देशद्रोही कहे जाएंगे

जन, जंगल, जमीन की बात न करो
ठेकेदारों का साथ दो
पूँजीपतियों के साथ रहो
अपनी कलम को समझाओ
उसे बताओ कि
आज़ाद देश का आज़ाद नागरिक
आज़ाद खयाल नहीं हो सकता

हमारा क्या है
हमारे लिए अपनी जान खतरे में न डालो
हम जानते हैं
तुम्हारे लिए लिखने का मतलब है
भूख से मर रहे आदमी के पेट की गुड़गुड़ाहट लिखना
तुम्हारे लिए लिखने का मतलब है
शोषित की जबान में कविता लिखना

देश की पूँजी कुछ अमीरों के पास है
देश की जनता सौ गुन्डों के हाथ है
देश की बागडोर सौ चोरों के पास है
और तुम्हारा विश्वास लोकतंत्र के साथ है
यह तुम्हारे स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है

(2)
हुक्म हुआ, झुको
झुक गया
हुक्म हुआ, और झुको
और, झुक गया
और झुको, और झुको
इतना झुको कि
सिर्फ टांगो के बीच से देख सको
झुको और चुप रहो
इतना चुप रहो कि
भूल जाओ बोलना
और देश के अच्छे नागरिक बनो
और देखो न मेरी मुस्तैदी कि
मैं हर आवाज पर झुकता गया
चुप रहने की ऐसी आदत पड़ी
कि कूंथ भी न सका

जेठ की नाचती दुपहरिया में
दूर झिलमिलाते चेहरे को आंकते
पिताजी तंज आवाज में
मेरी दस वर्षीय बेटी से कहते हैं
अरूंधती आ रही है

मैं बार-बार तय करता हूँ
अब न चुप रहूँगा, न और झुकूँगा


अर्नाकुलम में 
1.
यह शाम भी
अर्नाकुलम की
उदास, नीरस,
झिंगुरों की चिचिआहट से भरी
झुरमुटों से उतरता अंधेरा
धीरे-धीरे भर जाता
बस्ती, गांव, बाजार, शहर
अंधेरे की चादर तन जाती
दुनिया भर की शामों की तरह

2.
यह सुबह भी
अर्नाकुलम की
उल्लास, उत्साह से भरी
अंधेरे को धकियाता
बादलों के पेड़ों से उतरता
लाल प्रकाश धीरे-धीरे
जैसे मछुआरे ने फेंकी हो
जाल किरणों की
उगते जाते धीरे-धीरे
बस्ती, गांव, बाजार, शहर
हुर्इ नये दिन की शुरुआत
दुनिया भर की सुबह की तरह


अभी खत्म नहीं हुआ है सब कुछ


अभी खत्म नहीं हुआ है सब कुछ
अभी भी बहुत कुछ बचा हुआ है
गाछ में हरापन, फूलों में गुलाब
आखों में सपने और दिल में आग

बहुत कुछ खत्म हो जाने के बाद भी
गुब्बारा बेचता हुआ बच्चा अपने चेहरे पर
बचाया हुआ है मुस्कान
खत्म करने की लाख कोशिशों के बाद भी
जंगलो में अदिवासी, रंगो में लाल
अभी तक बचा रह गया है
वियतनाम

संगीनो के साये में दिन-रात रहते
चाहे कश्मीर हो चाहे आसाम
अभी भी वहां निकल ही आता है
मुठ्ठी बधा हांथ

उठो और चमका लो अपने-अपने हथियारों को
अंतिम और निर्णायक लड़ार्इ का
समय आ गया है


मुअनजोदड़ो*

मुअनजोदड़ो के सबसे ऊँचे टीले पर चढ़कर
डूबते सूरज को अपलक देखना
एक अनकही कसक और अज़ीब उदासी भर देता होगा
कि कैसे एक पूरी सभ्यता
बदल गयी मुअनजोदड़ो (मुर्दों का टीला) में
नाम भी हमने क्या दिया उसे, मुअनजोदड़ो

शायद ऐसी ही कोर्इ शाम रही होगी
डूबा होगा सूरज इन गलियों में रोज की तरह
बौद्ध स्तूप की ऊँचार्इ खिंच गयी होगी सबसे लम्बी
अपनी परछार्इं में उस दिन
और दुनिया की आदिम नागर सभ्यता डूब गयी होगी
अंधेरे में, हमेशा-हमेशा के लिए
सिंधु घाटी की उन गलियों में
सूरज फिर कभी नही उगा होगा

उस दिन की भी सुबह, रही होगी पहले की ही तरह
नरेश ने सजाया होगा अपना मुकुट
नर्तकी ने पहना होगा भर बांह का चूड़ा
बच्चे खेलने निकले होंगे रोज की तरह
किसी शिल्पी ने अपना चेहरा बनाकर तोड़ी होगी देह
कुत्ते रोए होंगे पूरी रात
और सबसे बूढी़ महिला की आंखें चमक गयी होंगी
टूटकर गिरते तारे को देखकर, सूदूर
बदलने लगे होंगे पशु-पक्षी, जानवर, मनुष्य
कंकाल में, र्इंटें रेत में

निकलता जा रहा है समय हमारी मुठ्ठीयों से रेत-सा
रेत होते जा रहे अपने समय में जो कुछ हरा है
उसे बचाकर रखना है ताकि
आने वाली पीढ़ियाँ हमे न कहें मुअनजोदड़ो के वासी

*ओम थानवी की पुस्तक मुअनजोदड़ो पढ़कर


शहर की देह गंध

उसके पास कोर्इ पहचान-पत्र नही है
न तो कोर्इ स्थार्इ पता
जैसा कि मेरा है
-सुंदरपुर रोड, नरिया, बी.एच.यू. के बगल में-
फिर भी वह लोगो को बाज़ार से
उनके स्थार्इ पते पर पहुँचाता रहता है
वह कभी गोदौलिया तो कभी लक्सा
कभी कैण्ट तो कभी कचहरी
कभी मंडुआडीह की तरफ से भी आते हुए
आप उसे देख सकते हैं
(जिससे आपकी ज़ीभ का स्वाद बिगड़ जाने का ख़तरा है)
मुझे तो अक्सर ही मिल जाता है लंका पर
गंगा आरती अैर संकटमोचन में भी उसे देख सकते हैं

परन्तु इतने से आप उसे जान नही सकते
क्यों कि आप में आदमी को उसके पसीने की गंध से
पहचानने की आदत नही हैं
आप मेरे शहर को भी नहीं जान सकते
क्योंकि मेरे शहर की देह-गंध
उस जैसे हज़ार-हज़ार लोगों की गंध से मिलकर बनी है

 

छोटू


वह मुझे अक्सर मिल ही जाता है
सुबह टहलते वक्त , दोपहर चाय की दुकान पर
कभी-कभी देर रात खाना खाकर टहलते वक्त
और अजीब बात है कि जिस किसी भी शहर जाऊँ
वह मिल ही जाता है

मैने उसे जब भी देखा है
एक ही तरह का लगा है
पीठ पर एक बड़ा सा पालीथीन बैग लिए है
जिसमें कुछ पानी की बोतलें, प्लास्टिक का कचरा,
टूटी साबुनदानी , पुरानी कंघी, टूटी चप्पलें, वगैरह-वगैरह

बहरहाल
नाम उसका मशहूर है ‘छोटू’
वह हंसता नहीं है
परन्तु रोते हुए भी किसी ने नहीं देखा है
उसके बाप का पता नहीं है, न माँ का
न तो कोर्इ घर है
दीवारें नहीं हैं उसके चारो तरफ
कचरे से बासी खाने की गंध सूंघता
कुरेदता मिल ही जाता है

भूख तो सबको लगती ही है
एक दिन भूख पर विजय पा ली उसने
उसके लिए जीवन अब आसान हो जायेगा
क्योंकि अब उसे भूख नहीं लगेगी
एक ब्रेड आयोडेक्स के साथ खाओ
और दिन भर की छुट्टी पाओ

इधर वह आयोडेक्स लगा ब्रेड खा रहा था
उधर उसी समय टेलीविजन पर एक लड़का
मैकडॉनल का लाल लाल पिज्जा खाता दिख रहा था
अब वह काला ब्रेड नहीं खाना चाहता
आज वह सोच रहा है
कि लाल वाला ब्रेड खाने के लिए
शहर के किस हिस्से वाले
कचरे के ढेर पर जाना चाहिए  

                       

Tuesday, May 1, 2012

एक शाम उसके साथ















एक शाम उसके साथ

जब मैं उसके घर के लिए चला  
भूख और भय से सर चकरा रहा था
आशंकाओं के बोझ से मन दबा जा रहा था
चित्र-श्रृंखला मन में उमड़-घुमड़ रही थी

एक निर्वसना-विक्षिप्त-औरत सड़क पर लेटी
जांघों के बीच की जगह को हाथों से छिपाती है

गर्भवती-किशोरी टांगे फैलाये चलती और अपने
गर्भस्थ के नाम पर रूपये मांगती

दुधमुहें छौने के साथ भीख मांगती नाबालिग लड़की

एल्यूमीनियम के कटोरे में संसार समेटे बच्चा

इन सबको धकियाते निकल आता है
कूड़े के ढेर से बासी खाने की गंध टोहता  
एक अधेड़ चेहरा सबको धकियाते निकल आता है

इन चित्रों से जूझता मैं अकेला
सिर झटककर दूर कर देना चाहता हूँ
और याद करता हूँ

विश्वविद्यालय की झाड़ियों में चुंबनरत जोड़े

सिगरेट के धुएं का छल्ला बनाने की कोशिश करते बच्चे  

खिलखिलाती लड़कियां, रंगविरंगी तितलियाँ

कि तभी
याद आने लगता है
स्कूल से छूटी लड़कियों की पिंडलियाँ निहारता नुक्कड़ का कल्लू कसाई

मैं जहाँ के लिए निकला था उसके घर की दहलीज पर खड़ा हूँ
अब कुछ याद करना नहीं चाहता
बार-बार सिर झटक रहा हूँ
खटखटा रहा हूँ दरवाजा लगातार
धूल जमी है कुंडों पर
लगता है वर्षों से नहीं खुला है यह दरवाजा
और मैं यहीं, मानों महीनों से खड़ा हूँ  
खड़ा खटखटा रहा हूँ लगातार, लगातार
कि तभी एक मुर्दनी चरचराहट के साथ खुलता है दरवाजा
मैं अन्दर घुसता हूँ
इस कदर डर चुका हूँ
लगता है पीछे ही पड़ा है कल्लू कसाई

सामने ही पड़ा है आज का अखबार
पूरे पेज पर हाथ जोड़े खड़ा है कल्लू मुझे घूरता
नजर बचाकर आगे बढ़ गया
खोजने लगा कविता की कोई किताब
डर जब हावी हो जाए
तब उससे बचने के क्या उपाय बताएँ हैं कवियों ने   
मुझे मुक्तिबोध याद आये  
‘अँधेरे में’ जी घबराने लगा मेरा

याद आया मैं तो मिलने आया हूँ उससे
घर की चार दीवारों के बीच महफ़ूज हूँ
दीवारें ही तो महफ़ूज रखती हैं हमें
फ़ौरन तसल्ली के लिए यह विचार ठीक था

उस शाम गर्मजोशी से स्वागत किया था उसने
हम दोनों गले मिले और एक दूसरे का चुंबन लिया
मेरा हाथ पकड़ अपने बगल में सोफे पर बिठाया
और पूछा ठंडा लेंगे या गरम
मैंने कहा दोनों
वह खिलखिलाकर हंसी
और चूड़ियों के खनकने की आवाज के साथ खड़ी हो गयी
सबसे पहले उसने टी.वी. बंद किया
जहाँ दढ़ियल समाचार वाचक
एक लड़की की नस कटी कलाई और
खून से रंगी चादर बार-बार दर्शकों को दिखा रहा था

रोस्टेड काजू और वोदका के दो ग्लास लिए वह वापस आयी
मुझसे क्षमा मांगी कि वह चाय नहीं बना सकती
फिर मेरे बिलकुल सामने बैठ गयी
दुनियादारी की बहुत सी बातों के बीच हमने बातें कि
कि समय बहुत डरावना है
इसमें कविता नहीं हो सकती
और उसने पढ़ी हैं मेरी कविताएँ
मेरी प्रेम कविताएँ उसे बहुत पसंद हैं परन्तु  
उनमें जीने की कोई राह नहीं दिखती
यथार्थ के अवगुंठनों से कविता लुंठित हो गयी है
उसने अपनी कामवाली को सुबह जल्दी आने को कहकर विदा किया

इस बीच उसने कई बार अपने बाल ठीक किये
और दर्जनों बार पल्लू सवाँरे
अपने झबरे सफ़ेद कुत्ते को डपटते हुए
कहा कि वह चुप नहीं रह सकता   


मैंने उससे कहा अब मैं चलूँगा इस उमीद के साथ कि
वह कहेगी थोड़ी देर और बैठिए
पर उसने कहा, ठीक है
वह मुझे छोड़ने बाहर तक आयी
और हाथ पकड़कर कहा कि कभी फुरसत से आइएगा
फिर गले लगाया और कहा शुभरात्रि

बाहर अँधेरा हो गया था
झींगुर सक्रिय हो गए थे

सुबह के अखबार में उसकी नस कटी कलाई से
सफेद चादर रंगीन हो गयी थी