Saturday, May 11, 2013

जवान होते हुए लड़के का कबूलनामा


हमने तो तर्जे-फुगां की है क़फ़स में र्इज़ाद
निशांत के संग्रह कि समीक्षा 

बृजराज सिंह
‘‘जनता मुझसे पूछ रही है
क्या बतलाऊँ
जन कवि हूँ मैं साफ कहूँगा क्यूँ हकलाऊँ।’’

नागार्जुन की यह पंक्तियां, निशांत का संग्रह जवान होते हुए लड़के कबूलनामा पढ़ते हुए बराबर याद आती रहीं। नागार्जुन निशांत के प्रिय कवि भी हैं। निशांत को जन कवि तो नहीं कह सकता लेकिन उनकी कविताओं में ऐसा बहुत कुछ है जिसे कहने में बड़े-बड़ों को हकलाहट जाएगी। निशांत का यह संग्रह पढ़कर देखा जा सकता है कि  कवि में कहीं भी कोर्इ हकलाहट नहीं है। साफगोर्इ निशांत की पहचान बन जाती है। उन्हें स्वीकार करने में कोर्इ हिचकिचाहट नहीं है कि मैं बहुत कमजोर हूँ/खूब जोर-जोर से रो रहा हूँ /हाउ-हाउ करके /जबकि जानता हूँ मर्द नहीं रोते औरतों की तरह/ फिर भी/ मैं और रोना चाहता हूँ/चाहता हूँ आवाज निकले रजार्इ से बाहर। निषान्त एक संभावनाशील युवा कवि हैं। इनका एक काव्य संग्रह जवान होते हुए लड़के का कबूलनामा ज्ञानपीठ से हाल ही में प्रकाशित हुआ है। जिसपर पूरे देष में चर्चा परिचर्चा होती रही है। और यह कबूलनामा सिर्फ निषान्त का नहीं बल्कि हर उस मध्यवर्गीय लड़के का है जो जवान होने की प्रक्रिया से गुजर रहा है। जब कवि कहता है- खूब ध्यान से देखता है वह ाीषा/और घोशणा करता है/शीषे में अपने को चूमते हुए/ ‘‘मैं बड़ा हो गया हूँ।’’एक उद्धरण और देना चाहता हूँ जिससे यह स्पश्ट हो जाएगा कि कवि किस साहस और साफगोर्इ से बात कहता है- कभी-कभी पिता बन्द कर देते हमें कमरे में/ और जाने क्या करते रहते दूसरे कमरे में /मां के साथ कर्इ घंटो तक /हम जब मुक्त होते / पिता हमें देते टांफियाँ, चाकलेट और पैसे/माँ हमसे आंखे चुराती चुपचाप/फिर पिता रहते कर्इ-कर्इ दिनों तक घर से बाहर।

भारत भूशण अग्रवाल पुरस्कार के लिए की गयी संस्तुति में नामवर जी ने कहा था कि यह कवि विषेश रूप से मध्यवर्गीय जीवन के अनछुए पहलुओं यहाँ तक की कामवृत्ति के गोपन एन्द्रिय अनुभावों को भी संयत ढंग से व्यक्त करने का साहस रखता है। काव्य भाशा पर भी कवि का अच्छा अधिकार है। निशांत ने उस मध्यवर्ग की विडंबना को बड़े ही खूबसूरत ढंग से बिजली और बल्ब के उदाहरण से समझाने का प्रयास किया है-दिन में बिजली नहीं रहती/तुम एक गांव में हो/दिन में बिजली रहती है/बल्ब नहीं जलते/तुम एक ाहर में हो/दिन में बिजली रहती है/और दिन रात बल्ब जलते हैं/तुम राजधानी में हो। नामवर जी जिस मध्यवर्ग की तरफ र्इषारा कर रहे हैं निशांत उसे बीच का आदमी कहते हैं- जो सबसे आगे है सबसे पीछे/दौड़ते हुए लोगों में /वे बीच के होते हैं/ वे सबसे आगे होते हैं/ सबसे पीछे/ वे सिर्फ बीच में होते हैं/और दोस्तों/पृथ्वी गवाह है/ इतिहास में बीच के लोगों का नाम नहीं होता। यहाँ ध्यान रखना चाहिए कि अब तक इतिहास की ही गवाही दी जाती थी परन्तु कवि ने यहाँ मध्यवर्ग के सन्दर्भ में संभवत: पहली बार पृथ्वी की गवाही दी है। ाायद इसलिए कि पृथ्वी से मध्यवर्ग का जुड़ाव बहुत मजबूत है। किसी भी समाज में मध्यवर्ग के सामने जिम्मेदारियाँ बहुत होती हैं इसलिए चुनौतियाँ भी उसी के सामने सबसे ज्यादा होती हैं। निषान्त की कविताओं में यह मध्यवर्ग बार-बार उपस्थित हो जाता है। वह दुविधा की स्थिति में हाँ कह देता है। दुख से मध्यवर्ग का अजीब रिष्ता है- इन दिनों /दुख दिखलार्इ देता हुआ आता/और पूरे कमरे में उपस्थित हो जाता। ध्यान देना होगा कि यह कमरा सिर्फ कमरा है, घर नहीं। एक मध्यम आकार का कमरा जिसमें कवि का पूरा परिवार (पांच सदस्य) और एक पालतू तोता रहता है। घर तो वशोर् पहले छुट गया गाँव में। गाँव से पलायन मजबूरी थी कवि का परिवार भी कोलकाता में जाकर बस गया है। घर उसकी स्मृतियों में बसा हुआ है, जिसे वह बार-बार खोजता है। जैसे हर दुख की दवा उस घर में हो। कवि कहता है- अब तो वह तस्वीर भी खो गयी। जिसमें घर था। अब घर के बहाने मैं अपने कमरे से बाहर निकलता हूँ/बाहर कमरों का जंगल है/घर ाायद मेरे भीतर कहीं दब गया है/ जिसे रोज मैं बाहर खोजता हूँ। इस पूरे काव्य संग्रह में दुविधा में पड़े मध्यवर्गीय लोग हैं। एक तरह से यह उनकी जीवनी है। जो ना ना कहते-कहते हाँ कह देते हैं, और अपने कछुवा धर्म के साथ चिपके रहते हैं। मध्यवर्ग की बातें अनेक हैं। कवि कहता है-एक बात नहीं/कर्इ बातें/फिर तो/तह पे तह पे तह पे तह होती गयीं बातें/मैं बनाने लगा/ कछुआ जैसा मजबूत सुरक्षा कवच/अपने चारो ओर/और फिर दुबक गया उसके अन्दर।
       जैसा कि संग्रह का ाीर्शक है जवान होते हुए लड़के कबूलनामा तो संग्रह में ाीर्शक के अनुरूप कुछ कविताएं भी होनी चाहिए। इस लिहाज से जब मैंने देखा तो पाया कि संग्रह का काव्यनायक जवान हो नहीं गया है बल्कि जवान होने की प्रक्रिया में है। किसी निष्चित उम्र पर लिखी गयी कविताएं ध्यान आकर्शित करती हैं। सत्ताइस की उम्र में’, अट्ठाइस की उम्र में’, उनतीस की उम्र में’,’तीस की उम्र में कविताएं पढ़ने पर पता चलता है कि कवि का आब्जर्वेषन (Objervation) कितना सूक्ष्म है। जिसकी वजह से एक बेहद निजी मामला होते हुए भी कविताएं बृहत्तर मध्यवर्गीय युवा समाज से संवाद करती प्रतीत होती हैं। लड़का जब सत्ताइस की उम्र में पहुंचता है तब अचानक लड़का असामान्य-सा कुछ महसूसने लगा अपने अन्दर उसका मन परिपक्वता की ओर धीरे-धीरे बढ़ रहा है। वह महसूस करने लगता हैं यहाँ सम्बन्ध मतलब जरूरतों का समझौता है। वह प्रेम, प्रेमिका, पैसा, सम्बन्ध, साहित्य, सफलता, आत्महत्या के सवालों में उलझ गया है। कुछ समझ नहीं पा रहा है-ये सारे उत्तर थे प्रष्न की तरह/या सारे प्रष्न थे उत्तर की तरह।
       जब वह अट्ठाइस की उम्र में पहुचता है तब तन और मन का द्वन्द्व कवि के मन पर हावी हो जाता है, फिर वह सोचने लगता है कि प्रेम की अंतिम परिणति दो रानो के बीच होती है यह कवि की र्इमानदारी है। उसका साहस है। आत्माभिव्यक्ति के लिए और रचना के लिए भी यह र्इमानदारी और साहस सबसे पहली ार्त होती है। जो निशांत के पास है। यह साहस निराला के पास था। गांधी ने अपनी आत्मकथा सत्य के प्रयोग में यही र्इमानदारी बरती थी। अपने जीवन के गोपन रहस्यों को बेबाकी से कहने का साहस। और सब कह लेने के बाद कवि प्रष्न पूछता है-तुम क्या जानो/एक अट्ठाइस साल की उम्र के लड़के की जरूरत। यह प्रष्न वह सिर्फ अपनी प्रेमिका से नही कर रहा है बल्कि अपने आसपास, अपने परिवेष से कर रहा है। किसी बात को सायास ढकने-तोपने के चक्कर में कवि नहीं पड़ता है। जो जैसा है उसे वैसा ही लिख देना भी कठिन कवि कर्म है। यह निशांत के उज्ज्वल कवि भविश्य की ओर र्इषारा कर रहा है। उनतीस साल में प्रवेष करने पर उसे महसूस होने लगता है कि जीवन जटिल होता जा रहा है वह आत्महत्या के बारे में सोचने लगता है-एक सांस लेता हूँ/कर्इ आफतें एक साथ अन्दर चली जाती हैं। यहाँ यह देखा जा सकता है कि इस उम्र के युवकों का मानसिक तनाव, घुटन, त्रासदी को अभिव्यक्त करने में कवि कितना सफल हुआ है। पे्रमिका, परिवार, नौकरी, के मकड़जाल में फंसा नवयुवक को यही महसूस होता है कि हर सांस के साथ मुसीबतें बढ़ती चली जा रही हैं। लेकिन मुसीबतों का सम्बन्ध सिर्फ सांसों से होता तो सांस के साथ बाहर भी निकल जातीं। इसीलिए कवि को कहना पड़ा-सांस छोड़ते वक्त/कुछ भी बाहर नहीं आता। तीस की उम्र तक पहुँचते-पहुँचते इस दुनिया से उसका मोहभंग हो जाता है-’’दुनिया बहुत खूबसूरत है/जीवन बहुत हसीन।’’ में उसका विस्वास नहीं रह जाता है। यहीं कवि को अपने पूर्वज कवि गोरख पाण्डेय की याद बड़ी तेजी से आती है और कहता है-’’किसी ऐसे ही क्षण में/गोरख ने की होगी अपनी आत्महत्या।’’ कवि सोचता है कि परिस्थितियाँ कितनी विशम रही होंगी जिसमें गोरख को आत्महत्या का निर्णय लेना पड़ा होगा। खुद उसके सामने भी तो वही परिस्थितियाँ मुंह बाए खड़ी हैं-तुमने भी क्या वही सोचा होगा गोरख/जो आज मैं सोच रहा हूँ/जब बाहर अमलताास खिला हो/बोगेनबेलिया लहलहा रही हो/और भीतर मर्इ की धूप फैली हो। कवि यहाँ तक तो अपने को बचा ले जाता है। लेकिन इन विशम परिस्थितियों का प्रभाव उसके नाम पर पड़ ही जाता है। उसे नाम बदलना पड़ता है। गांव-घर में पचीस साल की उम्र तक वह मिठार्इ लाल बना रहा। दिल्ली आने पर निशांत हो जाना पड़ा। यह सिर्फ मिठार्इलाल से निशांत हो जाना भर नहीं है। एक मध्यमवर्गीय परिवार के लड़के का बड़े ाहर में जाने पर जो कॉम्प्लेक्सेस (Complexes) आते हैं उनकी तरफ र्इषारा कर रहा है। नाम को लेकर अपनी पहचान को लेकर कर्इ तरह के हीन भाव आने लगते हैं। अब उसे अपना नाम उजबक सा लगने लगता है। अपनी पुरानी पहचान छोड़कर एक नये नाम के साथ जीवन की ाुरुआत करना कितना कठिन होता है। यह जीवन के एक महत्वपूर्ण हिस्से को काटकर फेंक देने जैसा है। वह अपने आप से क्षमा मांगने लगता है। यह एक बड़े सामाजिक-सांस्कृतिक संकट की ओर र्इषारा कर रहा है कि मध्यमवर्गीय ग्रामीण परिवेष का व्यक्ति अपनी पहचान खोकर ाहरो में रहने के लिए किस तरह अभिषप्त है। अषोक कुमार सिंह की एक कविता याद रही है- जहाँ अपने पते पर लापता रहते हैं सारे लोग/उसको ाहर कहते हैं तभी तो निशांत भी कहते हैं-गांव में/हम होते हैं/षहर में/मैं होता हूँ।
       आज के समय में जब परिवार टूट रहे हैं, बिखर रहें हैं। पारिवारिक संबंध लगभग खत्म हो रहे हैं। तब निशांत पूरी संवेदना और शिद्दत के साथ एक मध्यवर्गीय परिवार को याद कर रहे हैं। उसके गोपन रहस्यों को उद्घाटित करते हुए उसका चित्रण करते हैं। निशांत की कविताओं में घर, प्रेम, प्रेमिका, भार्इ-बहन, माता-पिता, मित्र-दोस्त यहाँ तक की कुत्ते और बिल्लियाँ भी बार-बार आते हैं- माँ और पिता पर निशांत ने बहुत अच्छी-अच्छी कविताएं लिखी हैं। पिता को याद करते हुए वे  कहते हैं- पिता तब्दील हो जाते विषाल बरगद के पेड़ में/फैलता जाता उनका व्यक्तित्व बरगद की जटाओं की तरह/इतने पत्ते, इतनी ााखाएं, इतना गोरा तना, इतने सोर/हम थक कर चूर-चूर हो जाते गिनते-गिनते/सो जाते उस विषाल बरगद की गोद में/बरगद बदल जाता ठंडी हवा और छांव में/ठंडी हवा और छांव बदल जाते पिता में। वहीं आसन्न खतरे से भयभीत मुर्गी के बच्चों को देखकर कवि को माँ की याद जाती है।
       निशांत को  अन्य कवियों से अलग करती है। उनकी कहने की ौली। कहने के लिए वे किसी बड़बोलेपन या प्रचलित मुहावरों के चक्कर में नहीं पड़ते हैं। वे सिर्फ अपनी बात कहते हैं। जिन्हें कवियों में बड़बोलापन, या राजनीतिक नारे देखने की आदत हो गयी है। उन्हें इस संग्रह से निराषा हाथ लग सकती है। निशांत मरने-मारने या क्रान्ति की बात नहीं करते हैं। वे किसी बड़े सामाजिक परिवर्तन की बात नहीं करते हैं। वे बस मध्यवर्गीय चुनौतियाँ और संवेदना की बात करते हैं। वे सिर्फ अपनी बात नहीं कह रहे हैं, बल्कि पूरे वर्ग की ओर से बोल रहे हैं, जिसे वे अपनी अंतिम कविता में स्वीकार करते हैं- मैंने/अपनी बात कही/उन्हें लगा/उनकी बाते मैंने कही/इस तरह भी लिखी/मैंने एक कविता।और यह बात कहने का ढंग ऐसे ही नहीं गया। फ़ैज अहमद फ़ैज का एक ोर मौंज़ू है-
हमने तो तर्जे-फ़ुग़ां की है क़फ़स में र्इज़ाद
फ़ैज़ गुलषन में वही तर्जे-बयां ठहरी है।