Saturday, May 28, 2011

मिथिलेस्वर


वो जो रखते थे हम इक हसरत-ए-तामीर सो है


बृजराज सिंह

60-70 का दषक भारतीय इतिहास में अभूतपूर्व सक्रियता एवं बौद्विक प्रतिरोध का दौर था। यथास्थितिवाद से विरोध एवं हाषिए के लोगों का केन्द्र के प्रति विद्रोह था। दलित, “ाोशित, पीड़ित की आवाज बुलंद होने का समय था। इसी दौर के प्रमुख कथाकार हैं मिथिलेष्वर। आज के समय में भी मिथिलेष्वर सक्रिय रचनाकार हैं। उनका एक उपन्यास ‘माटी कहे कुम्हार से’ तथा आत्मकथा ‘पानी बीच मीन पियासी’ हाल ही में प्रकाषित हुआ है, जो काफी लोक प्रिय है। ‘माटी कहे कुम्हार से’ की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में बीस से ज्यादा समीक्षाएं प्रकाषित हो चुकी हैं। इधर मिथिलेष्वर की पुरस्कृत कहानियों का एक संग्रह ‘मिथिलेष्वर की पुरस्कृत कहानियाँ’ नाम से इन्द्रप्रस्थ प्रकाषन, दिल्ली से प्रकाषित हुआ है। इसमें मिथिलेष्वर की ‘सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार,’ ‘यषपाल पुरस्कार’ एवं ‘अखिल भारतीय मुक्तिबोध पुरस्कार’ से पुरस्कृत कुल 29 कहानियाँ संकलित हैं, जो सत्तर के दषक में धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, सारिका, कहानी, मनोरमा, प्रगतिषील समाज, आदि में प्रकाषित हुर्इ हैं। इसके ठीक पहले हिन्दी कथा साहित्य में नर्इ कहानी का दौर चल रहा था, जिसमें मध्यवर्ग एवं वैयाक्तिक अन्तर्द्वन्द्व की कथाएं कही जा रही थीं। 70 के आस-पास साहित्य में आजादी से मोहभंग की अभिव्यक्ति “ाुरू हो चुकी थी इसमें साहित्यकारों ने दलित “ाोशित-पीड़ित जनता की ओर से लिखना “ाुरू किया। आम आदमी के जीवन में कोर्इ विषेश परिवर्तन नहीं दीख रहा था। वह अभी भी उन्हीं “ाोशण एवं भूखमरी की समस्याओं से जूझ रहा था। राजनीति से लोगों का मोहभंग हो रहा था। 75 तक आते-आते (इमरजेंसी का समय) तो रही-सही उम्मीद भी खत्म होने लगी थी। ऐसे समय में कुछ कहानीकारों ने हाषिए के लोगों पर अपना ध्यान केन्द्रित किया। उनके दु:ख दर्द उनके “ाोशण की कहानी पूरी संवेदना के साथ व्यक्त करने की कोषिष की। इसमें मिथिलेष्वर एक अग्रणी कथाकार के रूप में हमारे सामने आते हैं। वे अब तक के दलित, “ाोशित समाज की अभिव्यक्ति उन्हीं की बोली बानी का पुट लेकर कहने की कोषिष करते हैं। संग्रह की पहली, दूसरी कहानी ‘नरेष बहू’ एवं ‘आखिरी बार’ में गरीब परिवार की स्त्री की कहानी कही गयी है। ‘नरेष बहू’ में जहाँ नरेष की पत्नी उसकी मारपीट से आज़िज़ आकर दूसरे गांव भाग आती है, तो उस गांव के लोगों मे उसके पाने की लालसा में मारपीट “ाुरू हो जाती है, जिसे देखो वही लार टपका रहा होता है। वह पति से अलग होने के बाद भी उसके नाम से अलग नहीं हो पायी। वहीं ‘आखिरी बार’ में नैना को परिवार चलाने के लिए देह धंधा करना पड़ता है। मिथिलेष्वर ग्रामीण एवं दलित समाज की स्त्रियों के “ाोशण एवं उनकी बेबसी को पूरी र्इमानदारी एवं संवेदना के साथ व्यक्त करते हैं।

एक कहानी है ‘बन्द रास्तों के बीच’। यह ‘कहानी’ पत्रिका के अगस्त 1976 वाले अंक में प्रकाषित हुर्इ थी। इसमें एक निम्न तबके का मजदूर परिवार है जो गांव में बनिहारी एवं चरवाही करके अपना पेट पालता है। आजादी से मोह भंग की जो बात उपर मैंने कही है उसे इस कहानी में देखा जा सकता है। आजादी तो मिल गयी, विकास की योजनाएं भी चल रही थीं। गावों पर विषेश ध्यान भी था। पर वह आजादी किसकी थी, विकास किसका था? यह न तब समझ में आता था, न अब समझ में आता है। जगेसर के गांव में पक्की सड़क बन रही है। पूरे गांव में सड़क किनारे सिर्फ उसी की झोपड़ी है। उसने सोचा कि सड़क बन जाने के बाद एक छोटी सी चाय-पान की दुकान खोल लेगा। अब उसे और उसके परिवार को दूसरे की चरवाही बनिहारी, नहीं करनी पड़ेगी। उसकी लाष बन गयी जिन्दगी में अचानक उत्साह आ जाता है। गांव में उसका मान-सम्मान बढ़ जाता है। सड़क तो बन गयी पर दुकान खुलने से पहले ही उसकी झोपड़ी ढहा दी गयी। यह बताकर की सड़क किनारे की जमीन सरकारी है। अब वह सचमुच एक जिन्दा लाष बन जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि विकास के नाम पर सरकारें जो खेल खेल रही हैं उससे किसी आम आदमी के जीवन में कोर्इ खास परिवर्तन होता नहीं दिखार्इ दे रहा है। विकास के नाम पर आज भी किसानों की जमीन छीन ली जा रही है। विरोध करने पर प्रताड़ित किया जा रहा है। ‘रात अभी बाकी’ है कहानी का निझावन सोचता है- ‘‘किस काया पलट की आषा की थी उसने ? कैसी आजादी के सपने संजोए थे? क्या वह सब कुछ मात्र दिखावा था, भ्रम और छलावा ही था? क्या उतनी बड़ी आजादी सिर्फ चन्द लोगों को कुर्सी से चिपकाने भर तक ही थी।’’ निझावन को साफ लगता है कि ‘‘कोर्इ अन्तर नहीं रह गया है। तब और अब में’’। देष और राजनीति की बातें जिन्हें निझावन कभी चाव से सुनता था, अब फालतू वाहियात लगती हैं। उसे लगता है कि उन बातों में कुछ नहीं रखा है। यह राजनीति से मोहभंग है। मिथिलेष्वर की कहानियों में “ाोशण के विभिन्न रूप दिखार्इ पड़ते हैं। लगता है जैसे “ाोशण के विभिन्न रूपों को वे बेपर्द कर रहे हैं। ‘न चाहते हुए भी’ कहानी का मदारी इस बात से चिन्तित है कि “ाहर अब गांव तक पहुँच रहा है। दिन भर मदारी दिखाने के बाद भी भर पेट खाना जुटा पाना उसके लिए मुष्किल हो गया है। गरीबी का फायदा उठाकर गाँव के लोग उनकी स्त्रियों एवं लड़कियोंं से बलात्कार करते हैं। बदले में कुछ फटे पुराने कपड़े एवं कुछ आनाज दे देते हैं। उनकी बेबसी इस हद तक है कि जान कर भी वे अपनी स्त्रियों को गांव में जाने से रोक नहीं सकते। अपनी बेटी के बलात्कार का बदला भी लेना चाहता है तो उसे मार पड़ती है और वह एक बार फिर चुप लगा जाता है। इसे अपनी नियति मानकर।

यषपाल पुरस्कार से पुरस्कृत कहानियों में ‘मेघना का निर्णय’ कहानी महत्वपूर्ण है। यह कहानी ग्रामीण वर्ग संघर्श को चित्रित करती है। मेघना एक मजदूर है, जो गांव छोड़कर “ाहर में मजदूरी करने लगता है। उसके साथ और भी नवयुवक “ाहर जाने लगते हैं। “ाहर में बेगार नहीं करना पड़ता । उसके गांव के मजदूरों ने उसे अपना नेता बना लिया है। वाजिब मजदूरी पाने के लिए उसे लड़ार्इ लड़नी पड़ती है। इसमें उसके मजदूर साथी पूरी र्इमानदारी से उसका साथ देते हैं। एक बार जब वह अपनी मजदूरी पाने के लिए “ाहर में लड़ार्इ कर बैठा तो गांव के बाबू लोग उसका साथ न देकर “ाहर के रेल बाबू के साथ हो गये। गांव के बाबुओं को भी अपनी खुन्नस निकालने का मौका मिल गया। मेघना की वजह से अब कोर्इ गांव में बेगार नहीं करता। यह मजदूरो के एक जुट होने और “ाोशण के प्रति उनके विद्रोह की कहानी है। मेघना कहता है-’’हमें जान की बाजी लगाकर भी उनको जवाब देना पड़ेगा, नहीं तो वे हर बार इसी तरह “ाहर के मालिकों से मिलकर हमें दबाते रहेंगे।’’ ‘जिन्दगी का एक दिन’ कहानी सिर्फ रघुवीर लाल की कहानी नहीं हैं। वह हर उस व्यक्ति की कहानी है जो रघुवीर लाल जैसा जीवन जीने को अभिषप्त है। ‘छोटे “ाहर के लोग’ कहानी में मेला देखने आयी युवती अपने परिवार से बिछड़ने पर भीड़ के लिए मनोरंजन का विशय बन जाती है। ‘गृह प्रवेष’ कहानी में कथनी और करनी के भेद पर टिप्पणी की गयी है। कहानी में प्रगतिषील लेखक द्वारा गृह प्रवेष कराये बिना घर में घुस जाने की कहानी है। अंध विष्वास की जड़ें इतनी गहरी हैं कि उसे निकाल पाना मुष्किल है। हर प्रतिकूल घटना गृह-प्रवेष के खाते में डाल दी जाती। उसमें एक पात्र कहता है- ‘‘अभी इस देष में विचार और व्यवहार को मिलाने का माहौल नहीं आ पाया है। अच्छा रहेगा, आप रचनाओं में ही प्रगतिषील रहें। जिन्दगी की प्रगतिषीलता बहुत मंहगी पड़ेगी।’’ ‘कसूर’ कहानी में एक बेरोजगार युवक की बेबसी है। जिसके पास अपनी बिमार बेटी की दवा के नाम पर चार दाने मूंगफली हैं, उसे पुलिस डकैती में “ाामिल मानती है। ‘रात’ कहानी इस सग्रह की उल्लेखनीय कहानी है। बाप के मर जाने के बाद धुनिया और धुरुपा जोगिन्दर सिंह का कर्जा उतार रहे हैं। जहाँ जोगिन्दर झुनिया के साथ यौन “ाोशण करता है वहीं जोगिन्दर की बहन नीरू, धुरुपा का “ाारीरिक “ाोशण करती है। “ाोशण की इस दोहरी मार से दोनो भार्इ-बहन स्तब्ध हैं। अखिल भरतीय मुक्तिबोध पुरस्कार से पुरस्कृत कहानियों में ‘अनुभवहीन’ एक बेरोजगार युवक की कहानी है। ‘नपुंसक समझौते’ में एक आम आदमी के बेबसी की कहानी है जिसे जीवन में हर पल समझौतें करने पड़ते हैं। छोटे भार्इ को परीक्षा देने जानी है। चावल बेचकर 150 रूपये जुटाता है। भार्इ के निकलने से पहले सिचार्इ विभाग के लोग टैक्स वसूलने चले आते हैं और रूपये लेकर चले जाते हैं। इस ज़हालत की जिंदगी से निकलने का स्वप्न भी अधूरा ही रह जाता है। वह याद करता है कि उसे इस तरह के कितने ही समझौते करने पडे़ हैं। ‘एक और हत्या’ एक बंधुआ मजदूर की कहानी है। ‘बीच रास्ते में’ कहानी विषेश उल्लेखनीय है। ऐसे दो भाइयों की कहानी है, जिनके बीच सिर्फ एक ही धोती कुर्ता है। जिसे सुबह कहीं जाना रहता है वह रात भर सोता नहीं है कि दूसरा जल्दी उठकर उसे पहन न ले। कफन के घीसू माधव इस लिए बुधिया को देखने नहीं जाते कि दूसरा कहीं सारा आलू खा न जाए। यह सिर्फ उन भाइयो की कहानी नही है बल्कि उस सभ्य समाज की भी कहानी है जिसमें बिना कपड़ों के आदमी को पागल कहकर मार दिया जाता है। अभाव की जिंदगी का ऐसा चित्रण अन्यत्र देखने को नही मिलता। ‘विरासत’ कहानी में अंधविस्वास एवं भूत-प्रेत की झाड-फूंक से ग्रसित एक गांव है। ‘पहली घटना’ एक विधवा लड़की के प्रेम की कहानी है। घर वालो को जब इस बात का पता चलता है तो वे उसे ठिकाने लगाने की तैयारी करते हैं। वह पूरे साहस के साथ घर वालों का विरोध करती है और विपिन से “ाादी करती है।

मिथिलेष्वर का यह कहानी संग्रह कहानी इतिहास के मुख्य दौर हमारा परिचय कराता है। मिथिलेष्वर ने अपनी कहानियों में ग्रामीण जीवन की विभिशिकाओं और उसके यथार्थ को बड़ी गहरी संवेदना के साथ चित्रित किया है। ग्रामीण मनोजगत एवं सामाजिक विद्रोह की दृश्टि से यह कहानी संग्रह विषेश उल्लेखनीय है। इन कहानियों का ग्रामीण परिवेश अपने सभी विसंगतियों, विद्रूपताओं एवं अंतर्विरोधों के साथ उपस्थित है। मिथिलेष्वर सिर्फ गांव की रोमानियत को ही नहीं व्यक्त करते, उसके यथार्थ से हमारा परिचय भी कराते हैं। कुछ ढकने-तोपने की सायास कोषिष नही करते। कमलेष्वर ने कहा है-’’मिथिलेष्वर ने अपनी कहानियो के माध्यम से गांव की समस्याओं और वहाँ के नये वर्ग-संघर्श को अभिव्यक्ति दी है। गावों में बसे लोगों की तकलीफ को बहुत करीब से उन्होंने देखा और भोगा है। उनके पात्र आर्थिक एवं सांस्कारिक विवषताओं में छटपटाते हुए लोग हैं।’’ मिथिलेष्वर की ये कहानियाँ एक बेहतर समाज निर्माण का सवप्न हैं जिसे ग़ालिब ने कुछ यूँ कहा है-

घर में था क्या कि तेरा ग़म उसे ग़ारत करता

वो जो रखते थे हम इक हसरत-ए-तामीर सो है।



बृजराज सिंह

H 2/3 वी.डी.ए. फ्लैट्स

न्रिया, बी.एच.यू. वाराणसी-05

मे-09838709090









Thursday, May 19, 2011

यही हैं मेरे लोग

पुस्तक समीक्षा

समीक्ष्य पुस्तक : यही हैं मेरे लोग(काव्य संग्रह) : बृजराज कुमार सिंह/साखी कविता पुस्तिका 2/अप्रैल2010/




जटिल समय में कविता की रचनात्मक प्रतिबद्धता के गुण-सूत्र की खोज

अविनाष कुमार सिंह





आधुनिकता ने जो मूल्यबोध की मूर्त प्रवृत्ति कविता को थमायी थी, इस प्रवंचक समय ने उस पर एक अजीब सा छद्म डाल रखा है। यह दूसरे अर्थों में रचनात्मक चुनौती है आज की युवा साहित्यिक पीढ़ी पर। किसी भी प्रकार की जल्दी न केवल कवि और कविता को च्युत करेगी बल्कि अगली पीढ़ी के प्रति एक सांस्कृतिक अपराध होगी। अत: ऐसे में रचनात्मक तैयारी और रचनात्मक धैर्य बेहद जरूरी हैं। इतिहास और विचारधारा के अंत की  समीक्ष्य कविता संग्रह यही हैं मेरे लोग अपने लघु कलेवर में भी गहरी रचनात्मक सूझ का संकेत देती है। कवि बृजराज का यह पहला संग्रह नर्इ सदी के आरंभिक दषक में आकर कुछ नये रचनात्मक गुण-सूत्र खोजता-दिखाता चलता है। संग्रह की कुछ कविताएं विभिन्न पत्रिकाओं में पहले से छपती रही हैं। कविताओं का आकार प्राय: छोटा है लेकिन कुछ बड़े जीवन मूल्य गुंथे पड़े हैं। लगभग छियालीस छोटी बड़ी कविताओं की सबसे बड़ी विषेशता है इनकी सहजता। जो कथ्य और भाशा दोनों धरातलों पर कवि को विषिश्ट करती है। पहली ही रचना कविता समय में बृजराज समय और सभ्यता के उन संकटों को खोजते हैं जो आज की और स्वयं उनकी रचनात्मकता को तय करती हैं:

खोज रहा था/एक अरब लोगों का देष/जो कुछ सौ लोगों का स्वर्ग है/कि खोज रहा था एक अरब फुटबाल चेहरे सब अलग-अलग/फुटबाल सब एक ही तरह के/फुटबाल में बदल जाने पर/चेहरों को पहचान पाना कितना मुष्किल है
कविता यदि अपने समय से टकराती है तो बहुस्तरीय संवाद में भी “ाामिल होते चलती है और यह संवादधर्मिता रचे जाने के स्वरूप को भी तय करती जाती है। बृजराज की कविता में कहने की जो सहजता है वह जटिल के समानांतर सरल, अमूर्तन के समानांतर मूर्तन का प्रतिपक्ष खड़ा करती है। कविता कवि से बात करती है अंतरतम में तो बाहर निकलते ही पाठक को भी इस बतकही में साझा कर लेती है :बहुत कुछ बतिया लेने के बावजूद/जो बच जाता

है/वही तो बतियाने की कोषिष करता हूँ/कविता से

इस बतकही के सार्थक कंटेट की तलाष में कवि की बेचैनी दिखती है जो, एक तरफ कवि की मौलिकता को संकेतित करती है तो दूसरी तरफ पूर्व स्थापित विचारधाराओं के क्लोन काव्यरूपों से बचने का प्रयास करती है : क्या दूं मैं/क्या दूं कि/लगे कि मैंने ही दिया है यह देना संभव हो इसके लिए कवि किसी निवीड़ में जाने के बजाय वहीं जाता हैं जहां उसके अपने लोग हों, अपनी मुष्किलों और दुष्वारियों से जूझते हुए और एक अकृत्रिम जीवन का सुख चेहरे पर लिए हुए : यही, यही है मेरे भारत का चेहरा/और यही है मेरे देष के लोग/

और मेरे लोग/ जो आज भी खा लेते हैं/प्याज से रोटी और

नीम के पेड़ के नीचे चारपार्इ पर/काट लेते हैं दुपहरिया

यह अहा! गा्रम्य जीवन की अभिजात्यता को तोड़ कवि की उस मानसिक द्वन्द्व की व्यावहारिक स्थिति को प्रकट करता है जो उसके “ाहराती होने और गांव से क्रमष: दूर होते जाने की नियति से उपजा है। प्रच्छन्न रूप में ही सही लेकिन भाशा के प्रयोग में कवि की यह क्रमष: होती कंडिषनिंग को पुश्ट करता है। मेरा गांव कविता में तो कवि का यह द्वन्द्व और उसकी विडंबना साफ दिखार्इ पड़ती है : गांव की सबसे बूढ़ी महिला/के गालों पर, झूर्रियों की

संख्या बढ़ी है/जब जब गांव जाता हूं एकलकीर/बढ़ी पाता हूं

यह लकीर केवल बुढ़िया के माथे पर नहीं बढ़ रही बल्कि एक गहरी तड़प के रूप में कवि के अंत:करण पर भी गाढ़ी होती जाती है, तभी तो एक छद्म आत्मतुश्टि के बावजूद उसे स्वीकार करना पड़ता है : गांव में पेड़ों की संख्या/बढ़ने के बावजूद/अब कोर्इ पेड़ के नीचे/चारपार्इ
डालकर नहीं सोता फिर भी इन्ही लोगों से अपने वजूद को बचा लेने की गुजारिष भी कर बैठता है : मुझे बचा लो/मेरे गांव की पगडंडियों/थोड़ी धूल ही

न और बढ़ेगी/पर समो लो अपने में

कविता के संवेद्य भूगोल के पसारे में जो कुछ भी आ पाया है, जो अपने लोग आ पाये हैं, वे “ााइनिंग या सफरिंग इंडिया के राजनीतिक चुहलबाजी से बाहर के हैं। इनके इतिहास तो कभी बन ही न सके, इनका भूगोल और कम ही होता गया। इनकी आकांक्षाएं राश्ट्रीय महत्वाकांक्षा की परछार्इं भी नहीं छू सकीं हैं। परंतु ये उसी वृहत् वर्ग समाज के लोग हैं जिनसे कवि का गहरा संवेगात्मक जुड़ाव है। गांव के प्रति, उसकी सुस्त जिंदगी के प्रति कवि का जो नॉस्टेल्जिया है वह यही संकेत देता है। “ांकरवा बो कविता की भाशा और उसका कंटेट कवि की इस जद्दोजहद का ही प्रतिबिंब है :
चटख रंग की साड़ी/ललाट पर टह-टह लाल टिकुली/

बीच मांग खूब लम्बा सेन्दुर/पहने निकलती थी वह/

थोड़ा पतले कपड़े का ब्लाउज/पहनती थी “ांकरवा बो यह किसी रीतिकालीन अभिजात्य नायिका से ज्यादा वास्तविक और पहचाना सा सौंदर्य वर्णन है। कवि का यह कहना कि गांव की हिरोइन थी “ांकरवा बो और फिर यह बताना कि : तीन साल हुए नहीं रही “ांकरवा बो/

किसी को अब याद नहीं/ कि चांद उगा था पिछली रात/या नहीं एक गहरी टीस पैदा कर जाता है। त्रिलोचन के के बाद हिन्दी कविता में यह पहला मौलिक काव्यप्रयास है। नॉस्टेल्जिक होना पष्चगामी होना नहीं है यदि वहां स्मृतियों को आज के संदर्भ में रखा और महसूसा जाय। स्मृतियों में कोर्इ बड़ी घटना या दुर्घटना जगह पाये यह जरूरी नहीं। सबकुछ पीछे छोड़ती, भूलती दुनिया में स्मृतियां भर ही हों क्या यह जीवित होने का आभास बनाये रखने के लिए ही पर्याप्त नहीं! एक चिठ्ठी नामक कविता भी संग्रह की उपलब्धि के रूप में देखी जा सकती है। चिठ्ठी का फॉर्मेट कविता में आना आकस्मिक नहीं। संचार क्रांति की जल्दी में संवेदनाओं का अचानक से सिकुड़ जाना गहन सांस्कृतिक संकट का संकेत है। यहां कवि के अंदर परंपरा का व्यामोह या भागते समय से पीछड़ते जाने के भय से उपजा “ाोकराग नहीं बल्कि जीने के कुछ भदेस तरीकों की नॉस्टेल्जिया के बहाने तलाष है। यदि कवि की रचनात्मकता में गांव ने ज्यादा स्पेस पाया है तो इसका कारण भी यही है। यांत्रिकता और सबकुछ पाने या अच्छे दिन की तलाष में कर्इ अच्छे दिन गंवा देने की कष्मकष कविताओं में मौजूद है : कितना एकरस/हो गया है जीवन/मुंह उठाये

रविवार के बाद/आ जाता है सोमवार/

कोर्इ इसे बदल क्यों नहीं देता
यह बदलना यांत्रिकता और उससे जुडे़ किसी भी प्रकार के वर्चस्ववाद का प्रतिकार है। दुनिया का दरोगा और दुनिया घोर अषांति में जी रही है कविताएं अमेरिकी साम्राज्यवाद और सांस्कृतिक वर्चस्ववाद का ही प्रतिवाद करती हैं। कामरेड अब तुम क्या करोगे कविता लोकतंत्र के लाक्षागृह में छले गये नक्सल आंदोलन के दमन के क्रूर तरीकों पर रची गयी है:
तुम इस देष के सबसे बड़े खतरे हो, कामरेड/क्यों?/क्योंकि तुम/लूट का विरोध करते हो/न्याय की बात करते हो
यह सही है कि नक्सलवादी आंदोलन अपनी दिषा से भटका हुआ है, हालांकि इसका कारण भी यही लोकतांत्रिक सरकारें हैं, परंतु सलवा जुडूम और ऑपरेषन ग्रीन हंट जैसे दमनकारी मिलिट्री प्रयास क्या तानाषाही परंपरा को पुख्ता नहीं करते! बंबर्इ के सीने पर हत्या का तांडव करने वाले आतंकियों और प्रायोजक संस्थाओं के आगे लाचार सरकार अपने लोगों के साथ जो कर रही है वह देष के भविश्य को क्या दिषा देगी, जाहिर है। अभिव्यक्ति के खतरे और ज्यादा विकट रूप में प्रत्यक्ष हैं। ऐसे में यदि कवि प्रतिरोध में उठने वाले हर कदम की परिणति जानते हुए भी विरोधियों के लिए एक नयी दुनिया रचे जाने की तरफदारी करता है तो वह सहज ही है : एक “ाहर ऐसा बसाया जाय/जिसमें सिर्फ घर से भागे हुए लोग हों/

घर से भागी हुर्इ लड़कियां और उनके प्रेमी/जिनके अपने घर नहीं हैं/

वे भी रहें इस “ाहर में क्योंकि ये प्रतिरोधी लोग किसी तयषुदा खांचे में अंट नहीं सकते : जो भागता है/वह सिर्फ भाग नहीं रहा होता/वह तोड़ रहा

होता है कुछ कायदे कुछ कानून/उसमें विरोध की इच्छा

होती है/जो चल रहा होता है/उसे वैसा ही नहीं चलने देना चाहता है

दु:ख और प्रतिरोध के कर्इ “ोड्स कवि ने स्त्री जीवन की विडंबना में देखे हैं। पिता के मूंछों की लाज और पांच गज की पगड़ी का भार बेटी के साथ जीवन भर साड़ी बनकर लिपटा रहता है और “ार्त होती है कि अथ्र्ाी निकलते वक्त भी यह भार कम न हो। मां की झुकी पीठ कोर्इ आकस्मिक “ाारीरिक वक्रता नहीं बल्कि पुरूश वर्चस्ववाद द्वारा मर्यादा और परंपरा के बोझ से सदा के लिए तोड़ दी गर्इ स्त्री जाति की रीढ़ है :

“ाायद बचपन में ही/तोड़ दी गर्इ थी उसकी रीढ़ की हडडी/यह सोचकर कि/

लड़कियों की पीठ थोड़ी झुकी ही होनी चाहिए

कवि इस बोझ से मुक्ति की सामूहिक चेतना के उत्स की खोज में बरबस कह उठता है :

मुझे इंतजार है उस दिन का/जब

अपने “ारीर पर घूमते/किसी मर्द के हाथ

को/रोककर, कोर्इ लड़की कहेगी/रहने दो, बस करो..
संग्रह में कवि ने प्रेम को गहरे धरातल पर महसूस कर रचा है। यहां प्रेम है लेकिन सिर्फ सुंदर से परे, असुंदर और अभावों के बीच से अंकुआते हुए। इसलिए इष्क द्वारा स्थान मांगने पर भी कवि कहता है कि मुझे सिर्फ एकाकी और एकांगी प्यार नहीं चाहिए :मैं एक कमरे के

मकान में/अपने मां,बाप, जवान बहन/

और भार्इ के साथ रहता हूं/तुम्हें रखने के

लिए मेरे पास जगह नहीं



कवि की अधिकांष कविताओं में कुछ नये बिम्बों का प्रयोग तो हुआ है, परंतु संदर्भों का अभाव उसके इतिहासबोध को सीमित करता है, और “ाायद यही कारण है कि कुछ कविताएं जो अपने रचाव में लम्बी होने की मांग करती हैं, कवि उनका आकस्मिक समापन कर देता है। राजनीतिक और विचारधारात्मक कंटेट को रखने वाली एक कविता है सपना। सपने में क्रांतिपुरूशों और विचारों का आपसी संवाद (जिसमें स्वयं कवि का ज्ञानात्मक संवेदन भी “ाामिल है) कवि को वैचारिक प्रतिबद्धता देने के साथ ही कविता में हाषिये के लोगों का पक्षधर होने का नैतिक साहस प्रदान करता है। तभी तो वह कहता है :



मैंने सपने में देखा है/उसके अंडकोशों को पत्थर पर रखकर/

दूसरे पत्थर से ‘फचाक’ से फोड़ते हुए/वह कौन था?/

जगा तो वह भीड़ में खो चुका था

परंतु कवि अच्छी तरह जानता है कि “ाोशण के बिगड़ैल अंडकोशों को पत्थरों के बीच फचाक से फोड़ने का यह क्रांतिदष्र्ाी नाद-बिंब व्यवस्था में घुटते-पिसते-कुंथते आम मन की सामूहिक प्रतिक्रिया है। परंतु इस इकलौती कविता के अलावे जो अन्य राजनीतिक या वैचारिक कविताएं हैं वे प्राय: सपाटबयानी की ओर चली जाती हैं। कवि त्रिलोचन, मुक्तिबोध और केदारनाथ सिंह से वैचारिक संवाद तो करता है लेकिन सृजनात्मकता के प्र्रति कुछ-कुछ बचता सा चलता है। बहरहाल पहले काव्य संग्रह से जो कुछ कवि ने दिया है वह उसी परंपरा बोध से उपजा है जो सबकुछ खत्म हो जाने की साजिष में भी सपनों को बचा लेने की आष्वस्ति दे पाता है : ...और हम जियेंगे/साथ-साथ मिलकर/सूरज की लाल किरणों के बीच
कवि को इन सपनों को बचा लेने की यह जिजीविशा यदि मिलती है तो उन संकेतों से जो उसे स्त्रियों के प्रतिरोधों से, धर्म और सत्ता के विरोधियों से तथा उस दस साल के चाय वाले बच्चे से जिसे देखकर कवि आष्वस्त है : यह “ाुभ संकेत है/मेरे देष के भविश्य के लिए/

कि अब भी/एक दस साल का बच्चा/

पहचान लेता है तितली/अभी भी बची है उसमें/

रंगों के पहचान की क्षमता

कविता नयी

आजादी



अब हमारी आजादी बूढ़ी हो चली है

इसने अपने साठ साल पूरे कर लिए

यह सठिया गयी है

इसके गाल पिचक गए

और बाल पक गए हैं

कितने तो सपने पूरे करने थे

पर इसने अपने हाथ खड़े कर दिये

इसकी सांस फूल रही है

इसके होने का कुछ मतलब था

इसको लाने का कुछ मकसद था

अपने इस्तेमाल होने के बारे में कुछ नहीं कर सकी

गलत हाथों में पड़ने से हमें ही रोकना था

हम नहीं कर पाये

इसके जन्म से ही

इसके हाने का मतलब खोजते रहे

और यह बूढ़ी हो गयी



अब इसे बदलना होगा।







भावुकता



हमें बचपन से बताया गया

रोना हमारा काम नहीं

रोना स्त्री होना है



जब कभी रोने का अवसर आया

मर्दानगी की याद दिलाकर चुप करा दिया गया

मर्द को दर्द नहीं होता

समझाया गया

पर दर्द तो आदमी औरत चीन्हकर नहीं आता

उसे तो आना था

वह आया भी

बस रो नहीं सके



भावुकता अच्छी चीज नहीं

भावुक होना कमजोर होना है

लड़िकयां भावुक होती हैं

बताकर लज्जित किया गया

पर साहब मैं तो भावुक हूँ

और हूँ तो हूँ

फिर भी कर्इ बार रूंधे गले को खखारकर पी जाना पड़ा।









इराकी बच्चे बाजार में



आज फिर लौट आया खाली हाथ बाजार से

चाहता तो यही हूँ

कि मैं भी तुम्हारे लम्बे काले बालों के लिए

बाजार से “ौम्पू ले आऊँ

खुषियों की डिलेवरी करने वालों से पिज्ज़ा

बच्चे के लिए रिमोट कार

आखिर कौन नहीं चाहता खुषियाँ



चाहता तो मैं भी हूँ

कि जाऊँ बाजार, ले आऊँ

चेहरे की झुर्रियां मिटाने वाली क्रीम

चाहता तो मैं भी यही हूँ

कि बाल तुम्हारे रेषमी और

त्वचा विज्ञापन वाली लड़की सी दमकती रहे





पर क्या करुँ

कि इसके लिए जाना पड़ेगा बाजार

जहाँ मुझे सबसे अधिक डर लगता है

मैं सच कह रहा हूँ

भरोसा करो मेरा

मै हिम्मत जुटा कर गया था बाजार

कि ले आऊँगा तुम्हारे लिए परफ्यूम

और अपने लिए बालों का तेल





कि मुझे फिर चारों तरफ दिखायी देने लगे

इराकी़ बच्चे

हर दुकान. हर सड़क. टेलीविजन और हर होर्डिग्स में

बोतलों से झांकते इराकी बच्चे

किसी की एक आंख गायब थी

किसी का एक पैर

किसी का आधा “ारीर

सड़क पर इराकी बच्चों के सिर पड़े हैं

किसी का सिर्फ एक हाथ हिल रहा था

और कह रहा था।

मुझे बचा लो



मेरे न चाहने पर भी, मेरी नजर

उस ओर चली ही जाती है

मुझे माफ करना।









स्टेषन पर बच्चे

(1)



आज राजधनी लेट है

जोर से भूख लगी है

राजधानी से बड़े लोगों का

आना जाना रहता है

बड़े लोग जिनके पास

फेंकने के लिए बड़ी-बड़ी चीजें होती हैं



समय से होती तो

पेट भर सो लिए होते

पर आज देर से आएगी

ये स्साले लोकल वाले

लार्इ भी नहीं फेकते



राजधानी के आते ही दौड़ पड़े

अपना-अपना थैला लेकर



किसी ने फेकी रोटी, किसी ने सब्जी

किसी ने देसी घी की पूड़ियाँ फेकी हैं चार

राजधानी चली गयी

इकठ्ठा हो सब बाँट लिया

खा लिया, जा रहे हैं सोने

पहले ही देर हो गयी है



भला हो इन राजधानी वालों का

ये फेकें न, तो हम खाएंगे क्या ?





(2)



स्टेषन के सबसे अंतिम प्लेटफार्म पर

सबसे अंत में, भीड़ से अलग

अपने थैले और एल्युमीनियम के कटोरे के साथ

वह बैठा है, खुले आसमान के नीचे



ऊपर देख रहा है एकटक

जाने क्या सोच रहा है

आसमान विल्कुल साफ है

खूब तारे उगे हैं

चन्द्रमा बड़ा दिखार्इ दे रहा है



“ाायद सोच रहा है

चाँद को भेजा है उसकी माँ ने

थपकी दे सुलाने के लिए

हवाओं से बाप ने भेजी है लोरी

अभी सब तारे सिक्के बन

गिर जाएगें उसके कटोरे में

सुबह से उसे भीख नहीं मांगना पड़ेगा।







प्यार की निषानी



तुम्हारे दातों में फंसे पालक की तरह

दुनिया की नजरों में गड़ रही है

तुम्हारे प्यार की अंतिम निषानी



बहुत-बहुत मुष्किल है

उसे बचा कर रखना

और

उससे भी मुष्किल है

उसे एकटक देखते रहना

क्योंकि

दुनिया के सारे नैतिक मूल्य उसके खिलाफ़ हैं।















बाजू भी बहुत हैं सर भी बहुत*



(अरूंधती राय के लिए)



देष आज़ाद है

तुम नहीं

अपनी कलम से कह दो

प्रषस्ति लिखना सीख ले

कसीदे गढ़ना तुमने, उसे नहीं सीखाया

अब जबकि लिखने का मतलब है झूठ लिखना

तब आदमी की बात न करो

आदमखोर के साथ रहना सीख लो



बड़े-बड़े गुण्डे देष की संसद चलाएंगे

बलात्कारी सड़क पर सीना ताने घूमेंगे

सच लिखने वाले जेल जाएंगे

अपना हक मांगने वाले देषद्रोही कहे जाएंगे



जन, जंगल, जमीन की बात न करो

ठेकेदारों का साथ दो

पूँजीपतियों के साथ रहो

अपनी कलम को समझाओ

उसे बताओ कि

आज़ाद देष का आज़ाद नागरिक

आज़ाद ख़्ायाल नहीं हो सकता



हमारा क्या है

हमारे लिए अपनी जान खतरे में न डालो

हम जानते हैं

तुम्हारी कलम यह नहीं कर सकती

तुम्हारे लिए लिखने का मतलब है

भूख से मर रहे आदमी के पेट की गुड़गुड़ाहट लिखना

तुम्हारे लिए लिखने का मतलब है

“ाोशित की जबान में कविता लिखना



देष की पूँजी सौ अमीरों के पास है

देष की जनता सौ गुन्डों के हाथ है

देष की बागडोर सौ चोरों के पास है

और तुम्हारा विष्वास लोकतंत्र के साथ है

यह तुम्हारे स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है



हटना नहीं, झुकना नहीं

डरना नहीं, कलम अपनी तोड़ना नहीं

विष्वास हमारा छोड़ना नहीं

तुम्हारा लिखा रोटी है हमारे लिए



*कटते भी चलो बढ़ते भी चलो, बाज़ू भी बहुत हैं सर भी बहुत-फै़ज़





लाल



ज़िद तो अब अपनी भी यही है कि

चाहे जीवन एकरंगी हो जाय

पर सीर्फ और सीर्फ लाल रंग ही

पहनूंगा ओढ़ूंगा बिछाउंगा

क्यूबा से मंगाउंगा लाल फूलों की

नर्इ किस्म, अपने आंगन में लगाऊंगा

लाल रंग के फूल ही दूंगा उपहार में

और लाल ही लूंगा

पत्नी के जूड़े में सजाऊंगा लाल गुलाब

किताबों पर लाल जिल्द ही चढ़ाउंगा

झण्डा भी लाल डण्डा भी लाल

साथी लाल ही अपना जीवन होगा।