Monday, September 17, 2012

आरक्षण


बृजराज सिंह 
वाराणसी 

सरकारी नौकरियों में पदोन्नति आरक्षण के आधार पर नहीं होगी‌‍‌

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने पिछले दिनों एक महत्वपूर्ण एवं साहसिक फैसला लिया कि सरकारी नौकरियों में पदोन्नति आरक्षण के आधार पर नहीं होगी‌‍‌। उनके इस फैसले कि जहाँ कुछ लोगों ने सराहना की वहीं कुछ लोगों निंदा। आरक्षण बचाओ समिति जैसी संस्थाओं ने इसके विरोध में धरना-प्रदर्शन भी किया। आज आरक्षण हमारे समय का ऐसा मुद्दा बन गया है जिस पर बोलने का साहस कोई नहीं जुटा पा रहा है। राजनीतिक दलों को अपना वोट बैंक बिगड़ जाने का खतरा है तो बुद्धिजीवियों को गैर प्रगतिशील कहे जाने का डर। हमारे समय के लगभग सभी बुद्धिजीवियों ने इस मुद्दे पर चुप्पी साध ली है, जबकि यह बहस की मांग करता है। नामवर सिंह हिन्दी समाज के शिखर पुरुष हैं। दूरदर्शी हैं। समाज पर पैनी निगाह रखते हैं। हिन्दी साहित्य को नयी पहचान दिलाने में उनका योगदान अद्वितीय योगदान है। नामवर सिंह मुंहदेखी नहीं कहते। सत्य यदि कटु भी हो तो उसे कहने में नहीं हिचकते। अखिलेश के इस फैसले के कुछ ही दिनों पहले प्रगतिशील लेखक संघ की पिचहत्तरवीं सालगिरह पर आयोजित समारोह में बोलते हुए नामवर सिंह ने कहा कि यदि आरक्षण का यही हाल रहा तो आने वाले दिनों में सवर्णों के लड़के भीख माँगेगे। उनके वक्तव्य कि चारो ओर आलोचना हुयी। कई लेखकों-बुद्धिजीवियों ने उन्हें आड़े हाथों लिया। उनपर सवर्ण मानसिकता से ग्रसित होने का आरोप भी लगा। चारो तरफ से हो रही आलोचनाओं और हमलों से नामवर सिंह अकेले पड़ गए। इन सबसे विचलित नामवर सिंह ने अपनी बात वापस ले ली। एक बार फिर यह बहस का मुद्दा नहीं बन सका। दरअसल नामवर सिंह उस रोष को,उस वैमनस्य कि ओर इशारा कर रहे थे जो दलितों और सवर्णों के बीच पनप रहा है। गुर्जर-मीणा जैसे हालात पूरे देश में न पैदा हों इसलिए इस पर बातचीत होनी ही चाहिए। अगरचे संविधान में आरक्षण का प्रावधान है। समाज के पिछड़े तबके के लोगों को आगे बढ़ाने और उन्हें मुख्य धारा में लाने के लिए यह जरूरी है। निचले तबके के लोगों को सामाजिक हैसियत दिलाने के लिए आरक्षण व्यवस्था बनायी गयी। संविधान सभा के सदस्यों पर किसी को कोई संदेह नहीं हो सकता है परन्तु पिछले कुछ वर्षों से राजनीतिक दलों ने इसे जिस तरह वोट बैंक कि राजनीति से जोड़ दिया है उससे इस व्यवस्था पर संदेह होना लाजमी है।
आज आरक्षण के स्वरूप और उसके क्रियान्वयन पर कोई चर्चा नहीं होती है। विभिन्न जातियों के लोग जिनके पास थोड़ी सी भी सम्भावना है वे किसी न किसी आरक्षित श्रेणी में शामिल हो जाना चाहते हैं। कई जगहों पर लोगों ने फर्जी प्रमाणपत्रों के जरिये आरक्षण प्राप्त करने कि कोशिश कि है। इसके लिए यदि उन्हें खूनी संघर्ष भी करना पड़े तो वे तैयार रहते हैं। राजस्थान में गुर्जर और मीणा जाति कि लड़ाइयाँ सामने हैं। इस लड़ाई में बहुतों कि जान चली गयी। जब बेरोजगारी कि समस्या इतनी बढ़ गयी है तब आरक्षण व्यवस्था ने भीतर ही भीतर माहौल बिगाड़ने कि कोशिस कि है। कागजी तौर पर अपने को हीनतर साबित करने की इस होड़ को बढ़ावा देने की बजाय रोकने का प्रयास करना चाहिए। सवाल उठाने पर आरक्षण विरोधी कहा जाने लगता है; मुख्य सवाल आरक्षण के विरोध का नहीं है, सवाल है उसके स्वरूप और पात्रों का। आरक्षण का आधार क्या होना चाहिए? जो भी दलित, शोषित, असहाय, गरीब हो उसे मुख्य धारा में लाने के लिए, उसकी मदद करने के लिए होना चाहिए या सिर्फ़ जाति के आधार पर। वे लोग जो पिछली दो पीढ़ियों से आरक्षण का लाभ उठाकर धन-बल इकट्ठा कर लिया है उनकी अगली पीढ़ियां आरक्षण की कितनी हक़दार हैं इस पर तो बहस होनी ही चाहिए। क्या वे अब आरक्षण के मोहताज हैं। इसी तरह क्रीमी लेयर वाला सवाल हमेशा अधूरा छोड़ दिया जाता है। निश्चित रूप से आरक्षण के हक़दार वे नहीं हो सकते जिन्हें जीवन की सारी सुख-सुविधाएँ उपलब्ध हैं। यू.पी.ए. की पिछली सरकार ने जब मेडिकल में प्रवेश के लिए पिछड़ी जाति को सत्ताईस प्रतिशत आरक्षण देने का फैसला किया तब पूरे देश में इसका सबसे ज्यादा विरोध मेडिकल स्टूडेंट ने ही किया। लंबे चले इस आंदोलन में कई होनहार छात्रों की जान भी चली गयी। जब सवाल मेडिकल का हो जहाँ मामला लोगों की जान से जुड़ा हो वहाँ इस तरह के फैसले जल्दबाजी और राजनीतिक लाभ के लिए नहीं होने चाहिए। इस बात पर भी विचार करना चाहिए कि जो आरक्षण व्यवस्था सामाजिक परिवर्तन की सहयोगी बनने चली थी। कहीं वह राजनीतिक दलों की बिसात बनकर तो नहीं रह जायेगी। कहीं ऐसा न हो की आगे चलकर समाज दो वर्गों में बंटकर रह जाए एक आरक्षित वर्ग दूसरा अनारक्षित वर्ग। जब-जब चुनाव आता है आरक्षण वाला मुद्दा तूल पकड़ लेता है। उत्तर प्रदेश के चुनाव में भी अल्पसंख्यक आरक्षण का मुद्दा छाया रहा। कोई चार तो कोई चौदह प्रतिशत आरक्षण देने की बात कर रहा था। इस बात से भी यह अनुमान होता है कि राजनीतिक दल इसे सिर्फ़ चुनावी और वोट बैंक का मामला समझते हैं; जब कि यह बेहद गंभीर और संवेदनशील मामला है।
समाज को तोड़कर बाँटकर उसका विकास नहीं किया जा सकता है। संविधान के अनुसार हमारा देश धर्मनिरपेक्ष देश होगा अर्थात किसी भी धर्म को कोई विशेष सुविधा उपलब्ध नहीं कराई जायेगी। ऐसे में मुस्लिमों को हज सब्सिडी दिये जाने पर सवाल उठते रहे हैं। किसी ने भी इसे स्पष्ट करने कि जरूरत नहीं समझी कि यह क्यों जरूरी है। यह सीधे-सीधे धार्मिक मामला है; इससे अन्य धर्मों के लोगों में इस्लाम के प्रति रोष पैदा हो सकता है। जनता में भीषण असन्तोष है। मेरे कहने का आशय यह है कि जिस आरक्षण व्यवस्था को समाज जोड़ने के लिए लाया गया था वह समाज तोड़ने का काम कर रही है। गैर-आरक्षित वर्ग के लोगों में आरक्षित वर्ग के प्रति जबरदस्त रोष और क्रोध पनप रहा है। दोनों वर्गों में वैमनस्य बढ़ रहा है। इसे रोकने पर विचार करना चाहिए सिर्फ़ कड़े कानून बना देने से समस्या हल नहीं हो सकती। ‘बांटो और राज करो’ कि नीति अंग्रेजों की थी। अंग्रेज तो बाहरी थे। उनका उद्देश्य सिर्फ़ शासन करना था। लेकिन उन्होंने जो बिज बोया था वह अब पेड़ बन गया है। इस बरोह से निकली कई शाखाएं-उपशाखाएँ आजादी के साठ साल बाद भी उसी नीति पर चल रही हैं। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के एक छात्र ने आरक्षण विषय पर ही इसी साल अपनी पी.एच-डी पूरी की है। जिसमें उन्होंने बताया की आरक्षण का असली लाभ जिन्हें मिलना चाहिए उनके तक यह अभी पहुँच ही नहीं सका है। ग्रामीण इलाकों के लोगों के जीवन में इसका कोई फायदा नहीं दिखायी पड़ता हैव इसका मतलब यह हुआ कि इस व्यवस्था को अभी चलने दिया जाय। लेकिन सवाल उठता है कि कब तक?कब तक उन दूर-दराज के इलाकों में इसकी पहुँच बनेगी। मैंने पहले ही कहा है कि यह एक सामाजिक मुद्दा है, इसे राजनीति से हल नहीं किया जा सकता। सामाजिक आंदोलनों को राजनीतिक आंदोलनों से ऊपर रहना चाहिए, आगे चलना चाहिए; नहीं तो सरकारें बदलती रहेंगी समाज वहीं का वहीं रह जायेगा।
अभी कुछ दिनों पहले अख़बारों में एक आकड़ा प्रकाशित हुआ था, जिसके अनुसार २०१० में अनुसूचित जाति के लोगों पर हुए हमलों में पूरे देश के बीस फीसदी मामले अकेले उत्तर प्रदेश के हैं। यह कुल आंकड़े का सर्वाधिक हिस्सा है। यह इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि उत्तर प्रदेश में पिछले पांच वर्षों से बहुजन समाज पार्टी कि सरकार थी। सामाजिक आंदोलनों में जब राजनीति घुस जाती है तब इसका हश्र क्या होता है इसका भी एक उदाहरण मेरे सामने है। आज राजनीति का जो स्वरूप है उससे लोगों का उसमें विश्वास कम हो गया है। संविधान निर्माण और उसके नेताओं का मुख्य लक्ष्य था देश कि जनता में आपसी भाईचारे को बढ़ावा देना । आपसी सौहार्द्र के लिए जमीन तैयार करना। सामाजिक बंटवारे ने देश का पहले ही बहुत नुकसान किया है उसकी भरपाई कि कोशिस करना। सबको बराबर अधिकार और सम्मान प्रदान करना। लेकिन जो मौजूदा हालात हैं वे कहीं और ले जा रहे हैं। वे उस लक्ष्य को पूरा करते नही दिखायी देते। पिछले दिनों काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में एक उपन्यास का लोकार्पण समारोह था। उपन्यास लेखक दलित थे। समारोह के मुख्य अतिथि थे कालीचरण स्नेही; जिनकी ख्याति एक दलित चिन्तक के रूप में है। अपने एक घंटे के भाषण में उन्होंने उस कृति पर एक शब्द भी नही बोला। बल्कि अपने पूरे भाषण में वे सवर्णों को गलियां देते रहे। सिर्फ़ सवर्णों को ही नही बल्कि उस लेखक कि भी जमकर खिचायी की क्योंकि उसने सभा में सवर्णों को भी आमंत्रित किया था। उन्होंने साफ़ कहा कि दलितों को सवर्णों के साथ नहीं रहना चाहिए। लेखक को उन्होंने यह भी धमकी दी कि उसे दलित लेखकों कि सूची से निकल दिया जायेगा, तुम न इधर के रहोगे न उधर के। यह है साहित्य का आरक्षण; जिसके खतरे कि तरफ नामवर सिंह ने इशारा किया था। तो इस प्रकार हम भाईचारे कि मंजिल कैसे प्राप्त कार सकते हैं? दोनों समुदायों को पास लाने कि बजाय राजनीतिक शक्तियाँ उन्हें दूर ही रखना चाह रही हैं। हम देख रहे हैं कि हर जाति नाम पर एक राजनीतिक पार्टी बन गयी है। ऐसे माहौल में आरक्षण का मुद्दा और संवेदनशील हो जाता है। जिस तरह देश में बेरोजगारी कि समस्या बढ़ रही है। नौकरियां जरूरत के मुताबिक अपर्याप्त हैं। ऐसे में आरक्षण व्यवस्था से गैर आरक्षित वर्ग के लोगों में जबरदस्त रोष और क्रोध का पनपना स्वाभाविक है। इसीलिए जब मेडिकल में पिछड़ी जातियों को सत्ताईस प्रतिशत आरक्षण दिया गया तब पूरे देश में इसका विरोध हुआ। किसी ने उन विरोध करने वालों को यह समझाने कि जहमत नहीं उठाई कि यह क्यों जरूरी है। बल्कि बल प्रयोग से उसे दबाने की कोशिश कि गयी। दरअसल मंडल कमीशन से लेकर अब तक किसी ने भी गैर-आरक्षित वर्ग के लोगों को विश्वास में लेने या उनकी शंका समाधान कि कोई कोशिशि ही नही की। जिसकी वजह से अविश्वास बढाता गया। वे सवाल करते हैं कि योग्यता आधार होनी चाहिए या जाति। जब कि जाति,लिंग,धर्म के आधार पर किसी को कोई विशेष सुविधा नही दी जायेगी। इसका मतलब यह नही है कि अनुसूचित जाति या जनजातियों में योग्यता या प्रतिभा कि कोई कमी है। कमी है तो अवसर की, उनके पास अवसर कम हैं। संसाधन की कमी है। ऐसे में राष्ट्र की यह जिम्मेदारी बनती है की उन्हें बेहतर से बेहतर संसाधन उपलब्ध कराए। जबकि इसके विपरीत राष्ट्र अपनी जिम्मेदारी से भाग रहा है। सत्ताधारी लोग चाहे वे किसी भी वर्ग के हों उनकी मुख्य चिंता सत्ता पर काबिज रहने की है। इसके लिए वे समाज को तोड़फोड़ भी सकते हैं। राजनीतिक दलों की मंशा इस बात से भी पता चलती है कि इस देश में जहाँ महिलाओं कि स्थिति सबसे दयनीय है वहाँ महिला आरक्षण बिल संसद में लगभग बीस वर्षों से लटका पड़ा है। इसका एक कारण यह भी है कि महिलाएं वोट बैंक कि राजनीति में फिट नही बैठती हैं। उनकी कोई अलग जाति नही है। जब यह सुझाव दिया गया कि आरक्षण जनसँख्या के आधार पर देनी चाहिए। प्रत्येक जाति कि अलग-अलग जनगणना करा के, देश कि जनसंख्या में उस जाति का जितना फीसदी हिस्सा हो उसे उतना प्रतिशत आरक्षण दिया जाय। इसमें महिलाएं कहीं नही आएँगी। इसका विरोध भी किया गया।
बहरहाल कुल मिलाकर मुद्दा यह है कि आरक्षण जैसे संवेदनशील मामले पर गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए। यह समस्या राजनीतिक नही बल्कि सामाजिक है। सामाजिक कार्यकर्ताओं, सगठनों, बुद्धिजीवियों और सरकार सबको मिल इस पर विचार करना चाहिए। कोई ऐसी तरकीब निकली जाय जिससे वंचितों को उनका हक भी मिल जाय और किसी को यह भी न लगे कि उनका हक छीनकर दूसरे को दिया जा रहा है। समतामूलक समाज के निर्माण के साथ-साथ बंधुत्व को भी ध्यान में रखना चाहिए। घृणा का यह खेल कब तक चलता रहेगा। समाज में भाईचारे को बढ़ाना मुख्य लक्ष्य होना चाहिए। राजनीतिक दलों के मनमानेपन पर अंकुश लगाना जरूरी है। दलितों-सवर्णों के बीच जो संघर्ष और दुर्घटनाएं हो रही हैं उसके पीछे यह आरक्षण भी एक कारण है। इस मामले को और स्पष्ट करने कि जरूरत है। सबको विश्वास में लेना होगा। गैर-आरक्षित वर्ग के लोगों का असन्तोष निवारण करना ही होगा। तभी समाज में समता और बंधुत्व पनपेगा। विकास भी तभी होगा। पूना पैक्ट के खिलाफ़ जब गाँधी ने अनशन किया और मानाने पर भी नही माने, उनकी हालात बिगड़ती जा रही थी; तब अम्बेडकर ने अपनी मांग वापस ले ली। इसलिए नही कि वे गाँधी या किसी और से डरते थे, बल्कि इसलिए कि जिद में यदि गाँधी कि मृत्यु हो जाती तो इसका कारण दलितों ठहराया जाता और फिर हमेशा हमेशा के लए इस देश में दलितों के खिलाफ़ इसका इस्तमाल किया जाता। अम्बेडकर कि दूरदर्शिता ने इस दुर्घटना को बचा लिया। इससे भी हमें सीखना चाहिए। 

Friday, June 1, 2012

दिन लद गए पद्मिनी नायिकाओं के


दिन लद गए पद्मिनी नायिकाओं के

यूँ तो वह हमेशा खड़ी ही रहती है
कहीं आती जाती नही
मानों कभी-कभार कही चली भी गयी तो
फिर आकार वहीं खड़ी हो जाती है
उसके खड़े होने का स्थान नियत है
लोगों को ऐसी आदत हो गयी है
कि वहाँ कोई और खड़ा नही होता

मेरे ड्राईंगरूम कि खिड़की से दिखती रहती है
सुबह-सुबह खिड़की का पर्दा हटाते हुए
जब हम सबसे पहले यह कहते हैं
कि सड़क किनारे के घरों में धूल बहुत आती है
तब वह मुहल्ले भर की गर्द ओढ़े हमपर मुस्कुराती है
मृगदाह की चिलचिलाती धुप में
पूस की कड़कड़ाती रात में
भादों की काली डरावनी तूफानी बारिश में
वह वहीं खड़ी रहती रहती है
शहर दक्षिणी से उठने वाली आँधियों में भी
वह ज़रा भी विचलित नही होती
और वैसे ही खड़ी रहती है बे मौसम बरसात में

वह लोगों के बहुत काम भी आती है
सड़क से गुजरता हुआ कभी कोई
अपनी कुहनी टिका सुस्ता लेता है थोड़ी देर
तो कोई पीठ टिका बतिया लेता है फोन पर
कई बच्चों के लिए श्यामपट का भी कम करती है
अपना नाम लिखने के लिए
बस ऊँगली फिराने भर से नाम उभर आता है
आई लव यू तो उसकी पूरी पीठ पर लिखा रहता है
मिसेज पाण्डेय और मिसेज पाठक तो
अलसुबह नाईटड्रेस में उसके सामने
खड़ी होकर घंटों बतियाती हैं
पर उसने किसी की बात किसी से नही कही
अपने मालिक से भी नही

मैं तो उसे बहुत पसंद करता हूँ
आज से नही उस ज़माने से जब पढ़ा था
गुनाहों का देवता
वह है उसमें, और भी कई जगह है
उसका अतीत बेहद गौरवशाली है
अपने समय की पहली पसंद हुआ करती थी वह
राजनेताओं से लेकर कवि-कथाकारों तक की

सड़क पर हर आने जाने वालों को
अपनी मटमैली कातर निगाहों से निहारती रहती है
मैं भी घर से निकलते वक्त उसे
एक नजर देख जरूर लेता हूँ
कभी-कभी लगता है
वह चल देगी मेरे साथ
और ले जायेगी उन सारी जगहों पर
जहाँ मैं चाह कार भी नही जा पाता

मेरा पता गर पूछे कोई
तो बताता हूँ कि
वहीं जहाँ खड़ी रहती है पद्मिनी! फिएट पद्मिनी
हाँ पद्मिनी नाम है उसका
दिन लद गए अब पद्मिनी नायिकाओं के 

Wednesday, May 2, 2012

मेरी कुछ कविताएँ: बृजराज सिंह


स्टेशन पर बच्चे


1.आज राजधानी लेट है
जोर से भूख लगी है
राजधानी से बड़े लोगों का
आना जाना रहता है
बड़े लोग जिनके पास
फेंकने के लिए बड़ी-बड़ी चीजें होती हैं

समय से होती तो
पेट भर              सो लिए होते
पर आज देर से आएगी
ये स्साले लोकल वाले
लार्इ भी नहीं फेंकते

राजधानी के आते ही दौड़ पड़े
अपना-अपना थैला लेकर

किसी ने फेकी रोटी, किसी ने सब्जी
किसी ने देसी घी की पूड़ियाँ फेकी हैं चार
राजधानी चली गयी
इकठ्ठा हो सब बाँट लिया
खा लिया, जा रहे हैं सोने
पहले ही देर हो गयी है
भला हो इन राजधानी वालों का
ये फेकें न, तो हम खाएंगे क्या ?


2.स्टेशन के आखिरी प्लेटफार्म पर
सबसे अंत में, भीड़ से अलग
अपने थैले और एल्युमीनियम के कटोरे के साथ
वह बैठा है,           खुले आसमान के नीचे

ऊपर देख रहा है              एकटक
जाने क्या सोच रहा है
आसमान बिल्कुल साफ है
खूब तारे उगे हैं
चन्द्रमा बड़ा दिखार्इ दे रहा है

शायद सोच रहा है
चाँद को भेजा है उसकी माँ ने
थपकी दे सुलाने के लिए
हवाओं से बाप ने भेजी है लोरी
अभी सब तारे सिक्के बन
गिर जांएगे उसके कटोरे में
सुबह से उसे भीख नहीं मांगना पड़ेगा

प्यार की निशानी

तुम्हारे दातों में फंसे पालक की तरह
दुनिया की नजरों में गड़ रही है
तुम्हारे प्यार की अंतिम निशानी

बहुत-बहुत मुश्किल है
उसे बचा कर रख पाना
और
उससे भी मुश्किल है
उसे एकटक देखते रहना
क्योंकि
दुनिया के सारे नैतिक मूल्य उसके खिलाफ़ हैं


लाल

ज़िद तो अब अपनी भी यही है
कि चाहे जीवन एकरंगी हो जाय
पर सिर्फ और सिर्फ लाल रंग ही
पहनूंगा ओढ़ूंगा बिछाउंगा
क्यूबा से मंगाउंगा लाल फूलों की
नर्इ किस्म, अपने आंगन में लगाऊंगा
लाल रंग के फूल ही दूंगा उपहार में
और लाल ही लूंगा
पत्नी के जूड़े में सजाऊंगा लाल गुलाब
किताबों पर लाल जिल्द ही चढ़ाउंगा
झण्डा भी लाल डण्डा भी लाल होगा
साथी! आसमां के तारे सब होंगे लाल-लाल


समझाओ अपनी कलम को 
(अरूंधती राय के लिए)
     1.
देश आज़ाद है, तुम नहीं
अपनी कलम से कह दो
प्रशस्ति लिखना सीख ले
कसीदे गढ़ना तुमने, उसे नहीं सिखाया
अब जबकि लिखने का मतलब है झूठ लिखना
तब आदमी की बात न करो
आदमखोर के साथ रहना सीख लो

बड़े-बड़े गुण्डे देश की संसद चलाएंगे
बलात्कारी सड़क पर सीना ताने घूमेंगे
सच लिखने वाले जेल जाएंगे
अपना हक मांगने वाले देशद्रोही कहे जाएंगे

जन, जंगल, जमीन की बात न करो
ठेकेदारों का साथ दो
पूँजीपतियों के साथ रहो
अपनी कलम को समझाओ
उसे बताओ कि
आज़ाद देश का आज़ाद नागरिक
आज़ाद खयाल नहीं हो सकता

हमारा क्या है
हमारे लिए अपनी जान खतरे में न डालो
हम जानते हैं
तुम्हारे लिए लिखने का मतलब है
भूख से मर रहे आदमी के पेट की गुड़गुड़ाहट लिखना
तुम्हारे लिए लिखने का मतलब है
शोषित की जबान में कविता लिखना

देश की पूँजी कुछ अमीरों के पास है
देश की जनता सौ गुन्डों के हाथ है
देश की बागडोर सौ चोरों के पास है
और तुम्हारा विश्वास लोकतंत्र के साथ है
यह तुम्हारे स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है

(2)
हुक्म हुआ, झुको
झुक गया
हुक्म हुआ, और झुको
और, झुक गया
और झुको, और झुको
इतना झुको कि
सिर्फ टांगो के बीच से देख सको
झुको और चुप रहो
इतना चुप रहो कि
भूल जाओ बोलना
और देश के अच्छे नागरिक बनो
और देखो न मेरी मुस्तैदी कि
मैं हर आवाज पर झुकता गया
चुप रहने की ऐसी आदत पड़ी
कि कूंथ भी न सका

जेठ की नाचती दुपहरिया में
दूर झिलमिलाते चेहरे को आंकते
पिताजी तंज आवाज में
मेरी दस वर्षीय बेटी से कहते हैं
अरूंधती आ रही है

मैं बार-बार तय करता हूँ
अब न चुप रहूँगा, न और झुकूँगा


अर्नाकुलम में 
1.
यह शाम भी
अर्नाकुलम की
उदास, नीरस,
झिंगुरों की चिचिआहट से भरी
झुरमुटों से उतरता अंधेरा
धीरे-धीरे भर जाता
बस्ती, गांव, बाजार, शहर
अंधेरे की चादर तन जाती
दुनिया भर की शामों की तरह

2.
यह सुबह भी
अर्नाकुलम की
उल्लास, उत्साह से भरी
अंधेरे को धकियाता
बादलों के पेड़ों से उतरता
लाल प्रकाश धीरे-धीरे
जैसे मछुआरे ने फेंकी हो
जाल किरणों की
उगते जाते धीरे-धीरे
बस्ती, गांव, बाजार, शहर
हुर्इ नये दिन की शुरुआत
दुनिया भर की सुबह की तरह


अभी खत्म नहीं हुआ है सब कुछ


अभी खत्म नहीं हुआ है सब कुछ
अभी भी बहुत कुछ बचा हुआ है
गाछ में हरापन, फूलों में गुलाब
आखों में सपने और दिल में आग

बहुत कुछ खत्म हो जाने के बाद भी
गुब्बारा बेचता हुआ बच्चा अपने चेहरे पर
बचाया हुआ है मुस्कान
खत्म करने की लाख कोशिशों के बाद भी
जंगलो में अदिवासी, रंगो में लाल
अभी तक बचा रह गया है
वियतनाम

संगीनो के साये में दिन-रात रहते
चाहे कश्मीर हो चाहे आसाम
अभी भी वहां निकल ही आता है
मुठ्ठी बधा हांथ

उठो और चमका लो अपने-अपने हथियारों को
अंतिम और निर्णायक लड़ार्इ का
समय आ गया है


मुअनजोदड़ो*

मुअनजोदड़ो के सबसे ऊँचे टीले पर चढ़कर
डूबते सूरज को अपलक देखना
एक अनकही कसक और अज़ीब उदासी भर देता होगा
कि कैसे एक पूरी सभ्यता
बदल गयी मुअनजोदड़ो (मुर्दों का टीला) में
नाम भी हमने क्या दिया उसे, मुअनजोदड़ो

शायद ऐसी ही कोर्इ शाम रही होगी
डूबा होगा सूरज इन गलियों में रोज की तरह
बौद्ध स्तूप की ऊँचार्इ खिंच गयी होगी सबसे लम्बी
अपनी परछार्इं में उस दिन
और दुनिया की आदिम नागर सभ्यता डूब गयी होगी
अंधेरे में, हमेशा-हमेशा के लिए
सिंधु घाटी की उन गलियों में
सूरज फिर कभी नही उगा होगा

उस दिन की भी सुबह, रही होगी पहले की ही तरह
नरेश ने सजाया होगा अपना मुकुट
नर्तकी ने पहना होगा भर बांह का चूड़ा
बच्चे खेलने निकले होंगे रोज की तरह
किसी शिल्पी ने अपना चेहरा बनाकर तोड़ी होगी देह
कुत्ते रोए होंगे पूरी रात
और सबसे बूढी़ महिला की आंखें चमक गयी होंगी
टूटकर गिरते तारे को देखकर, सूदूर
बदलने लगे होंगे पशु-पक्षी, जानवर, मनुष्य
कंकाल में, र्इंटें रेत में

निकलता जा रहा है समय हमारी मुठ्ठीयों से रेत-सा
रेत होते जा रहे अपने समय में जो कुछ हरा है
उसे बचाकर रखना है ताकि
आने वाली पीढ़ियाँ हमे न कहें मुअनजोदड़ो के वासी

*ओम थानवी की पुस्तक मुअनजोदड़ो पढ़कर


शहर की देह गंध

उसके पास कोर्इ पहचान-पत्र नही है
न तो कोर्इ स्थार्इ पता
जैसा कि मेरा है
-सुंदरपुर रोड, नरिया, बी.एच.यू. के बगल में-
फिर भी वह लोगो को बाज़ार से
उनके स्थार्इ पते पर पहुँचाता रहता है
वह कभी गोदौलिया तो कभी लक्सा
कभी कैण्ट तो कभी कचहरी
कभी मंडुआडीह की तरफ से भी आते हुए
आप उसे देख सकते हैं
(जिससे आपकी ज़ीभ का स्वाद बिगड़ जाने का ख़तरा है)
मुझे तो अक्सर ही मिल जाता है लंका पर
गंगा आरती अैर संकटमोचन में भी उसे देख सकते हैं

परन्तु इतने से आप उसे जान नही सकते
क्यों कि आप में आदमी को उसके पसीने की गंध से
पहचानने की आदत नही हैं
आप मेरे शहर को भी नहीं जान सकते
क्योंकि मेरे शहर की देह-गंध
उस जैसे हज़ार-हज़ार लोगों की गंध से मिलकर बनी है

 

छोटू


वह मुझे अक्सर मिल ही जाता है
सुबह टहलते वक्त , दोपहर चाय की दुकान पर
कभी-कभी देर रात खाना खाकर टहलते वक्त
और अजीब बात है कि जिस किसी भी शहर जाऊँ
वह मिल ही जाता है

मैने उसे जब भी देखा है
एक ही तरह का लगा है
पीठ पर एक बड़ा सा पालीथीन बैग लिए है
जिसमें कुछ पानी की बोतलें, प्लास्टिक का कचरा,
टूटी साबुनदानी , पुरानी कंघी, टूटी चप्पलें, वगैरह-वगैरह

बहरहाल
नाम उसका मशहूर है ‘छोटू’
वह हंसता नहीं है
परन्तु रोते हुए भी किसी ने नहीं देखा है
उसके बाप का पता नहीं है, न माँ का
न तो कोर्इ घर है
दीवारें नहीं हैं उसके चारो तरफ
कचरे से बासी खाने की गंध सूंघता
कुरेदता मिल ही जाता है

भूख तो सबको लगती ही है
एक दिन भूख पर विजय पा ली उसने
उसके लिए जीवन अब आसान हो जायेगा
क्योंकि अब उसे भूख नहीं लगेगी
एक ब्रेड आयोडेक्स के साथ खाओ
और दिन भर की छुट्टी पाओ

इधर वह आयोडेक्स लगा ब्रेड खा रहा था
उधर उसी समय टेलीविजन पर एक लड़का
मैकडॉनल का लाल लाल पिज्जा खाता दिख रहा था
अब वह काला ब्रेड नहीं खाना चाहता
आज वह सोच रहा है
कि लाल वाला ब्रेड खाने के लिए
शहर के किस हिस्से वाले
कचरे के ढेर पर जाना चाहिए  

                       

Tuesday, May 1, 2012

एक शाम उसके साथ















एक शाम उसके साथ

जब मैं उसके घर के लिए चला  
भूख और भय से सर चकरा रहा था
आशंकाओं के बोझ से मन दबा जा रहा था
चित्र-श्रृंखला मन में उमड़-घुमड़ रही थी

एक निर्वसना-विक्षिप्त-औरत सड़क पर लेटी
जांघों के बीच की जगह को हाथों से छिपाती है

गर्भवती-किशोरी टांगे फैलाये चलती और अपने
गर्भस्थ के नाम पर रूपये मांगती

दुधमुहें छौने के साथ भीख मांगती नाबालिग लड़की

एल्यूमीनियम के कटोरे में संसार समेटे बच्चा

इन सबको धकियाते निकल आता है
कूड़े के ढेर से बासी खाने की गंध टोहता  
एक अधेड़ चेहरा सबको धकियाते निकल आता है

इन चित्रों से जूझता मैं अकेला
सिर झटककर दूर कर देना चाहता हूँ
और याद करता हूँ

विश्वविद्यालय की झाड़ियों में चुंबनरत जोड़े

सिगरेट के धुएं का छल्ला बनाने की कोशिश करते बच्चे  

खिलखिलाती लड़कियां, रंगविरंगी तितलियाँ

कि तभी
याद आने लगता है
स्कूल से छूटी लड़कियों की पिंडलियाँ निहारता नुक्कड़ का कल्लू कसाई

मैं जहाँ के लिए निकला था उसके घर की दहलीज पर खड़ा हूँ
अब कुछ याद करना नहीं चाहता
बार-बार सिर झटक रहा हूँ
खटखटा रहा हूँ दरवाजा लगातार
धूल जमी है कुंडों पर
लगता है वर्षों से नहीं खुला है यह दरवाजा
और मैं यहीं, मानों महीनों से खड़ा हूँ  
खड़ा खटखटा रहा हूँ लगातार, लगातार
कि तभी एक मुर्दनी चरचराहट के साथ खुलता है दरवाजा
मैं अन्दर घुसता हूँ
इस कदर डर चुका हूँ
लगता है पीछे ही पड़ा है कल्लू कसाई

सामने ही पड़ा है आज का अखबार
पूरे पेज पर हाथ जोड़े खड़ा है कल्लू मुझे घूरता
नजर बचाकर आगे बढ़ गया
खोजने लगा कविता की कोई किताब
डर जब हावी हो जाए
तब उससे बचने के क्या उपाय बताएँ हैं कवियों ने   
मुझे मुक्तिबोध याद आये  
‘अँधेरे में’ जी घबराने लगा मेरा

याद आया मैं तो मिलने आया हूँ उससे
घर की चार दीवारों के बीच महफ़ूज हूँ
दीवारें ही तो महफ़ूज रखती हैं हमें
फ़ौरन तसल्ली के लिए यह विचार ठीक था

उस शाम गर्मजोशी से स्वागत किया था उसने
हम दोनों गले मिले और एक दूसरे का चुंबन लिया
मेरा हाथ पकड़ अपने बगल में सोफे पर बिठाया
और पूछा ठंडा लेंगे या गरम
मैंने कहा दोनों
वह खिलखिलाकर हंसी
और चूड़ियों के खनकने की आवाज के साथ खड़ी हो गयी
सबसे पहले उसने टी.वी. बंद किया
जहाँ दढ़ियल समाचार वाचक
एक लड़की की नस कटी कलाई और
खून से रंगी चादर बार-बार दर्शकों को दिखा रहा था

रोस्टेड काजू और वोदका के दो ग्लास लिए वह वापस आयी
मुझसे क्षमा मांगी कि वह चाय नहीं बना सकती
फिर मेरे बिलकुल सामने बैठ गयी
दुनियादारी की बहुत सी बातों के बीच हमने बातें कि
कि समय बहुत डरावना है
इसमें कविता नहीं हो सकती
और उसने पढ़ी हैं मेरी कविताएँ
मेरी प्रेम कविताएँ उसे बहुत पसंद हैं परन्तु  
उनमें जीने की कोई राह नहीं दिखती
यथार्थ के अवगुंठनों से कविता लुंठित हो गयी है
उसने अपनी कामवाली को सुबह जल्दी आने को कहकर विदा किया

इस बीच उसने कई बार अपने बाल ठीक किये
और दर्जनों बार पल्लू सवाँरे
अपने झबरे सफ़ेद कुत्ते को डपटते हुए
कहा कि वह चुप नहीं रह सकता   


मैंने उससे कहा अब मैं चलूँगा इस उमीद के साथ कि
वह कहेगी थोड़ी देर और बैठिए
पर उसने कहा, ठीक है
वह मुझे छोड़ने बाहर तक आयी
और हाथ पकड़कर कहा कि कभी फुरसत से आइएगा
फिर गले लगाया और कहा शुभरात्रि

बाहर अँधेरा हो गया था
झींगुर सक्रिय हो गए थे

सुबह के अखबार में उसकी नस कटी कलाई से
सफेद चादर रंगीन हो गयी थी 

Friday, April 27, 2012

कबीर को याद करते हुए


कबीर को याद करते हुए


1.यूँ तो मैं बेखता हूँ, पर
मन भर खता का बोझ
मन पर लदा रहता है
क्यों कि मैंने मैली कर
बापैबंद धर दीनी चदरिया
दास कबीर ने बीनी
ज्यों की त्यों दे दीनी
सात पुस्त से ओढ़ा-बिछाया
न जाने किस कुमति में फंसकर
तार-तार कर दीनी चदरिया
 

2. हे महागुरु!
कहाँ से पाया तुमने नकार का इतना साहस
दुनिया को ठेंगा दिखाने का अदम्य साहस
तुम तो बार-बार कहते रहे कि
सुनो भाई साधो, सुनो भाई साधो
पर हमने एक न सुनी तुम्हारी
बुड़भस हो, सठिया गए हो
बस बक-बक करते रहते हो
जान तुम्हारा उपहास उड़ाते रहे
अब जबकि ठगवा आता है और
लूट ले जाता है हमारी नगरिया
तुम बहुत याद आये महागुरु!




ठेकैत 


अंजोरिया रात में दूर से आती तुम्हारी ढोलक की थाप
चाँदनी उजास के साथ मिलकर चैती रुमानियत से भर देती थी
जब तुम आपनी ढोलक पर ठेका लगाते
पूरा गाँव कहता ठेकैत जग गए
तुम्हारा कोई घराना नहीं था
न ही तुमने कहीं कोई गुरु बनाया
अलबत्ता तुम्हारा असली नाम किसी को याद नहीं रह गया था
बस ठेकैत के नाम से तुम प्रसिद्द थे
सुनने में कितना अजीब लगता है यह नाम
डकैत,लठैत से मिलता जुलता परन्तु इन सबसे एकदम अलग
तुमने कभी कोई गिला-शिकवा नही किया इस नाम को लेकर
कहते थे कि जीवन बर्बाद कर लिया ढोलक के पीछे
पर जो ढोलक नही बजाते थे उनका कौन-सा आबाद हो गया

निकल जाते थे तुम कुछ-कुछ दिनों के लिए गाँव से बाहर
और जब घूम-घाम कर आते तो तुम्हारे साथ
करताल पर द्वारिका पहलवान, हारमोनियम पर रमापति यादव
विजयी मास्टर के साथ लालजी बाबा
जब बिरहे की तान छेड़ते तो तुम्हारे ठेके के साथ मिलकर
राग विरहाग्नि बजने लगती
बच्चे तुम्हे ढोलक बजाते देख कर खिलखिलाते
तुम पूरा ढोलक पर सवार जो हो जाते थे और
तुम्हारे कमर के उपर का हिस्सा नृत्य करने लगता था

अब तुम नही रहे तो गाँव मे ढोलक भी नही रही
फटी पड़ी रखी है मंदिर में बहुत दिनों से
पहलवान भी नही रहे, होरी चैता कजरी भी नही रही
कीर्तनिया भी नही जुटते
अब कोई ठेकैत नही रहा
अब गाँव गाँव नही रहा
तुमने शागिर्द भी तो नही बनाया था


ओह किसान तुम भी न 

रहे होगे तुम कभी के राजा
बलिराजा रहा होगा तुम्हारा नाम
रहे होगे, अभी नही न

तुम्हारे पसीने से बना होगा कभी लहू
बना होगा, अभी नही न

तुम्हारे खेतों में कभी उतरा होगा वसंत
उतरा होगा, अभी नही न

अब तो वसंत आता है
चुपके से सहमा-सा और भाग जाता है
तुम जान भी नही पाते, है न
मेरे समय में डर-डर के जीता है हर आदमी
डरे हुए हैं तुम्हारे अलसी और ज्वार के पौधे
डर साफ़ दिख रहा है तुम्हारे बैलों की आँखों में
कुम्हलाए हैं तुम्हारे कपास के फूल
सरसों के फूल पीले पड़ गए हैं

तुम्हारे ही खेतों से निकले धागे
तुम्हारे गले की फांस बन गए हैं
तुमने खेला होगा कभी फाग,अब नही न
रंग उड़ गए तुम्हारे गीतों के

कुछ नही रह जाने पर भी तुम खोज ही लेते हो
जिन्दा रहने के कोई न कोई बहाने





आधे से मेरा काम नहीं चलता 

मुझे आधा-आधा कुछ नहीं चाहिए
आधे से मेरा काम नहीं चलता
आधी नींद, आधा स्वप्न
आधी दुनिया, आधा प्यार

जब सोता हूँ
पेट भर सो लेना चाहता हूँ
जब रोता हूँ
रो लेना चाहता हूँ पेट भर
आधा नहीं
जब-जब प्यार करता हूँ
मन भर कर लेता हूँ
आधा अधूरा नहीं

मुझे स्वप्न चाहिए पूरी पृथ्वी के
आधी दुनिया से मेरा काम नही चलता
मुझे चाहिए सम्पूर्ण जीवन
सभी रंगों का, श्याह के साथ सफ़ेद भी

इसीलिए कहता हूँ
जब मिलो
पूरा-पूरा मिलो मुझसे
अपने कोनों-अतरों के साथ
आधे से मेरा काम नही चलता
मुझे चाहिए पूरी की पूरी प्रकृति
पलास के साथ-साथ कपास भी
नदियाँ, पहाड़, झरने,रेत और कैक्टस भी

वसंत लूँगा मैं तो ग्रीष्म लेगा कौन?



वह 

वह जब आती है
आती ही चली जाती है
दुःख दिन की तरह

और जब जाती है
तो चली जाती है
जैसे अच्छे दिन

उसका आना और जाना
दोनों ही पसंद नहीं है मुझे

क्यों की पढ़ रखा है मैंने
अति अच्छी नहीं



पूनम के लिए 

यह और बात है कि तुमने
कभी कुछ नहीं कहा मुझसे
पर तुम्हे कितना अटूट विश्वास था
कि एक दिन तुम्हारे सारे कष्ट
दूर करूँगा मैं ही,
तुम्हारे इस नरक जीवन से छुटकारा दिलाऊंगा

तुम इंतज़ार करती रही, सहती रही
चुप रहकर रोज मरती रही
अंतिम साँस तक तुम्हारा यह विश्वास बना रहा
कि सब ठीक कर दूँगा मैं
सब कहते हैं तुम्हारी पीठ पर आया था मैं
जिस पीठ पर तुमने परिवार के सड़े-गले चाबुक से
ना जाने कितनी मार सही सबके हिस्से की

मैं तुम्हारा भाई
जो तुम्हारे जीते-जी कुछ कर न सका
तुम्हारे मरने पर कविता लिख रहा हूँ
तुम नहीं जानती कविता क्या है
तुम कविता नहीं समझती
तुमने कभी कोई कविता नहीं पढ़ी
फिर भी मैं लिख रहा हूँ
क्योंकि इसके अलावा और कुछ नहीं कर सकता
नहीं काट सकता कैद और शोषण की आदिम बेड़ियों को
लेकिन मेरा विश्वास करना
मैं कविता लिखना नहीं छोडूंगा




अभिव्यक्ति के खतरे 


अभिव्यक्ति के सारे माध्यम खतरे में पड़ गए हैं
अभिव्यक्ति भी स्वयं खतरे में है
कलाकृतियाँ बंदूकों के साये में अनावरित होती हैं
संगीनों से स्केच बनाये जा रहे हैं
कलाकार गोलियों की भांति तटस्थ हैं
सब कलावंत स्तब्ध और चुप हैं
सिपाही सूंघ कर देखते हैं कलाकृतियों को

यह समय है
बाजार से खुशियाँ खरीदने लाने का
और उन्होंने मुहैया करायीं हैं बहुत सी चीजें
हमारे खुश रहने को

यहाँ प्यार और प्रतिरोध
सामान रूप से वर्जित हैं

फिर भी
फौजी बूटों से कुचली उँगलियाँ
बार-बार उठा लेती हैं पेंसिल
और खींचने लगती हैं एक चेहरा
यह कैसा इत्तफाक है कि
दुनिया भर में कहीं भी खींचा जाए
यह श्याह-सफ़ेद स्केच
मिलने लगता है सबसे क्रूरतम और लोभी राष्ट्राध्यक्ष से

ऐसा क्यों है कि
उन कुचली उँगलियों में ही बचा रह गया है
इतना साहस है कि वे बना लेती हैं उसका चेहरा
जब कि साबुत और सीधी उंगलियां
एक सीधी रेखा भी नहीं खींच पातीं




Thursday, April 26, 2012

भाषा का सम्बन्ध जातीय चेतना से जुड़ा होता है



भाषा का सम्बन्ध जातीय चेतना से जुड़ा होता है
बृजराज सिंह
भाषा के सवाल पर जब लगभग चुप्पी सी है तब बोलने का जोखिम कोई नही उठना चाहता है| इसके कई खतरे हैं-राजनीतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक| मणीन्द्र नाथ ठाकुर ने जनसत्ता के माध्यम से यह जोखिम उठाया है| जब देश के हुक्मरानों में अमेरिका का पिछलग्गू बनने कि होड़ लगी हो, देश का अमेरिकीकरण करने को विकास का पर्याय बताया जा रहा हो; ऐसे समय में भाषा का सवाल उठाने पर विकास विरोधी कहे जाने का खतरा रहता है| अंग्रेजी का विरोध करना पिछड़ेपन की निशानी मानी जाती है| अक्सर यह कहा जाता है कि पढ़ने-लिखने में कमजोर लोग एवं पिछड़े इलाकों के लोग ही ऐसे सवाल उठाते हैं| जब की यह सवाल इससे कहीं बड़ा है|
      भारत के सन्दर्भ में भाषा समस्या थोड़ी जटिल जरूर है पर ऐसा नही है कि इसे हल नही किया जा सकता| जरूरत है बेहतर कार्ययोजना की| अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग भाषाएँ बोली-समझी जाती हैं| अपने देश में आज भी अंग्रेजी जानने वालों की संख्या बहुत कम हैं परन्तु परिस्थितियाँ कुछ ऐसी हैं कि अंग्रेजी न जानने वाला काम्प्लेक्स्ड हो जाता है; हीनग्रंथि का शिकार हो जाता है| ज्ञान=विज्ञान के क्षेत्र में उसकी प्रमाणिकता संदिग्ध कर दी जाती है| अंग्रेजी का संकट मात्र भाषा संकट नही है, वह सांस्कृतिक संकट भी है| भाषा हमारी सोच और दृष्टीकोण को प्रभावित करती है| वह हमारे खयालात को बदल कर रख देती है| हम जिस भाषा का व्यवहार करेंगे उसी भाषा में सोच पायेंगे| अंग्रेजी हमारे शासकों की भाषा रही है| वह हमें हमारी गुलामी याद दिलाती रहती है| सिर्फ़ अंग्रेज ही भारत के लोगों को असभ्य नहीं समझते थे, कुछ अंग्रेजीदाँ भारतीय भी बाकी लोंगों को असभ्य और तुच्छ समझतें हैं| भारत में पहले से ही इतनी भाषाएँ हैं कि उन्हें मैनेज करना मुश्किल हो रहा है| अंग्रेजी उपर से थोप दी गयी; जब कि अंग्रेजी किसी भी प्रान्त कि भाषा नही है| सरकारी कामकाज अंग्रेजी में होता है, न्यायालयों के फैसले अंग्रेजी में सुनाये जाते हैं| राजभाषा,राष्ट्रभाषा नाम कि कोई चीज नही रह गयी है| किसी भी राष्ट्र के लिए राजभाषा-राष्ट्रभाषा का क्या महत्व होता है यह बताने कि जरूरत नही है| अंग्रेजी को कुछ इस तारह पेश किया जाता है कि इसके बिना काम ही नही चल सकता| मेरे मन में यह सवाल उठता है कि जब अंग्रेजी इस देश के लोगों के व्यवहार में नही थी तब कैसे काम चलता था| शंकराचार्य ने जब उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम की चार बार यात्रा की होगी तब उनके सामने यह समस्या नही आयी होगी| वे इस समस्या से कैसे निबटे होंगे? भारत में सत्तानशीन लोग अंग्रेजी का विकल्प खोजने के बजाय उसी को एक मात्र विकल्प के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं| भाषा का सम्बन्ध जातीय चेतना से जुड़ा होता है| अंग्रेजी ने भारतीय भाषाओँ को हाशिए पर डाल दिया है| यही कारण है की भारतीय लोगों में जातीयता का अभाव है| यदि अंग्रेजी का विकल्प नही खोजा गया तो हम अपनी पहचान खो देंगे| किसी और राष्ट्र की भाषा को लागू करने का मतलब उसकी सांस्कृतिक गुलामी करने जैसा है|
      देश भर में हो रही आत्महत्याओं के सिलसिले ने हमारी शिक्षा व्यवस्था पर बहुत बड़ा प्रश्न चिन्ह लगा दिया है| हमारी शिक्षा व्यवस्था कहीं हृदयहीन तो नही हो गयी है| इस शिक्षा प्रणाली से हम देश को कहाँ ले जाना चाहते हैं? देश में छात्रों द्वारा की जा रही आत्महत्याओं में बनारस भी पीछे नही है| काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में भी ख़ुदकुशी की खबरें बढ़ गयी हैं| पिछले दो-तीन महीनों में तीन-चार छात्र-छात्राओं ने आत्महत्या कर ली| यूँ तो पहले भी जब परीक्षा का समय आता था तब ऐसी ख़बरें सुनने को मिलतीं थीं, परन्तु जब से सेमेस्टर पद्धति लागू हुयी है तब से इनकी आबृत्ति बढ़ गयी है| काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना का मुख्य उद्देश्य नागरिकों में राष्ट्रीय एवं जातीय चेतना का विकास करना था| उसी विश्वविद्यालय में सारे कामकाज अंग्रेजी में ही हो रहा है| पता नही ऐसी कौन सी मजबूरी है कि जहाँ अधिकांश छात्र एवं कर्मचारी हिंदी भाषी हैं वहाँ सारे काम अंग्रेजी में होते हैं| वे सारे कामकाज जो हिंदी में बड़े आसानी से हो सकते हैं उन्हें हिंदी में करने से किसे सहूलियत होती होगी| विश्वविद्यालय के चपरासी जो कार्यालयी चिट्ठियों को पहुंचाते हैं उन्हें अंग्रेजी नही आती; वे अनुमान पर ही काम करते हैं| हिंदी संपर्क भाषा के रूप में विकसित हो रही है| वह राष्ट्र भाषा भी बन सकती है| परन्तु उसके लिए हमें हिंदी के प्रति अपने विश्वास को मजबूत करना होगा| वह ज्ञान विज्ञान कि भाषा भी बन सकती है| उसे ज्ञान-विज्ञान की भाषा बनाने के लिए थोड़ा उदार होकर सोचना पड़ेगा| हिंदी की अपनी बोलियों के साथ-साथ अन्य भारतीय भाषाओँ के साथ भी मैत्रीपूर्ण व्यवहार अपनाना पड़ेगा| अंग्रेजी समर्थक हिंदी को अन्य भारतीय भाषाओँ के लिए खतरा बताते हैं; जब कि असली खतरा हिंदी से नही बल्कि अंग्रेजी से है| सामान्य जनमानस के इस भ्रम को दूर करना होगा और उन्हें वास्तविकता से अवगत कराना होगा| वैसे इसके जिम्मेदार हिंदी के लोग भी हैं| हिंदी का अपनी बोलियों से ही जिस प्रकार सम्बन्ध बिच्छेद हो गया है उससे हिंदी प्रदेश के लोगों में भी उस जातीयता का अभाव है| समूचे अखिल भारतीय सन्दर्भ में हिंदी रास्ट्रीयता-जातीयता का भाव उत्पन्न करने में असफल रही है| भारत जैसे औपनिवेशिक देश में भाषा कि यह समस्या हिंदी भाषियों के साथ अन्य भारतीय भाषा भाषियों को भी हीनता-ग्रंथि से भर देती है| एक अध्यापक जो कुछ दिनों के लिए जापान गए थे| वहाँ से लौटने पर उन्होंने बताया कि पहले कुछ दिन तक उन्हें जैपनीज़ सीखनी पड़ी| तब उनका काम चल सका| वहाँ भी लोग अंग्रेजी जानते हैं और वे भी अंग्रेजी जानते थे, लेकिन उन्हें जैपनीज़ सिखनी पड़ी| यह उनकी जातीयता और रास्ट्रीयता का सवाल है; जिससे वे समझौता नही करते| मैंने कहीं सुना था कि रवीन्द्र नाथ ठाकुर के कोई मित्र जो बहुत दिन विदेश रह कर आये थे| रवीन्द्र नाथ से मिलने पहुंचे तो बातचीत अंग्रेजी में ही कार्टा रहे| कुछ देर बाद रवीन्द्र नाथ ने कहा कि तुम्हारी दिक्कत यह है कि अंग्रेजी तुम्हारी नही है इसलिए तुम ठीक से बोल नही पाते हो और बंगला बोलना नही चाहते हो| इसलिए बीच में अटक गए हो| यह समस्या हर भारतीय के साथ है कि अंग्रेजी तो आती नही और अपनी भाषा से काम नही चल सकता| सब बीच में झूल रहे हैं|
      कहा जाता है कि जब किसी पेड़ को सुखाना होता है तो उसकी जड़ों में छाछ दल दिया जाता है| अंग्रेजी हमारी जड़ों में छाछ का काम कर रही है| मणीन्द्र नाथ कहते हैं हैं कि भाषा का सम्बन्ध रास्ट्रवाद से नही रह गया है| रास्ट्रवाद से भले न हो परन्तु रास्ट्रीयता से तो है ही,और उसी से आत्मसम्मान भी जुड़ा है| उत्तर भारत खास तौर पर हिंदी प्रदेश में यह अफ़वाह खूब काम करती है कि दक्षिण भारतीय लोगों ने अंग्रेजी को आश्रय दे रखा है| यह बात कुछ इस तरह रखी जाती है गोया समूचे दक्षिण भारत कि भाषा अंग्रेजी है| जबकि वहाँ भी अंग्रेजी जानने-समझने वालों कि संख्या उतनी ही है जितनी उत्तर भारत में| अपने को संभ्रांत कहने वाला तबका वहाँ भी है और यहाँ भी| अंग्रेजी जिनकी भाषा है वे अपनी जाति और संस्कृति को सबसे ऊपर मानते हैं| वे अपने को सभ्य कहते हैं और जो उनकी भाषा,संस्कृति को नही अपनाएगा वह असभ्य माना जायेगा| यदि हम भारतीय भी अंग्रेजी का व्यवहार नही छोड़ते हैं तो हम उनकी मान्यता से हाँ में हाँ मिला रहे हैं| औपनिवेशिक गुलामी कि यह निशानी हमारे साथ चली आ रही है|
आज बहुत जरूरत है भारत की  भाषा समस्या पर विचार करने की| हिंदी को अगर आगे बढ़ाना है तो उसमें सबके लिए जगह बनानी पड़ेगी| यह काम उतना भी मुश्किल नही है जितना बताया जाता है| इसमें वर्चस्व की बू नही आणि चाहिए वर्ना कदम-कदम कदम पर विरोध होंगे| हिंदी में तो उतनी भी जातीयता नही है जितनी अन्य भारतीय भाषाओँ में यथा-बंगला,तमिल, असमिया| सामजिक समरसता एवं न्याय के क्षेत्र में भी भाषा का महत्व है| आज की युवा पीढ़ी के सामने बहुत से संकट हैं| उसी में यह समस्या भी है| यह समस्या ज्ञान के माध्यम से ज्यादा बड़ी समस्या है| भाषा की इस बहुआयामी समस्या और उसकी जरूरत को समझ कर उसका हल खोजने की जरूरत है| इसमें बुद्धिजीवियों के साथ राजनीतिक पहल की भी जरूरत है| अपनी राष्ट्रीय अस्मिता और पहचान के संकट से जूझ रही जनता को राहत पहुँचाने के लिए स्पष्ट राजनीतिक ददृष्टीकोण की जरूरत है| क्षेत्रीय एवं जातिगत राजनीति के इस दौर में इस समस्या की तरफ किसी राजनीतिक दल का ध्यान नही है| भाषा की जरूरत के साथ हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए की हम किसी की भावनाओं को किसी प्रकार आहत न करें| भाषाओँ का ज्ञान रखना चाहिए| किसी भी भाषा के प्रति छुआछूत का भाव नही रखना चाहिए|

बृजराज सिंह
H 2/3 वी.डी.ए. फ्लैट्स,
नारिया, बी.एच.यू. वाराणसी-221005
Mob.9838709090