
बृजराज सिंह
दिवाली आ रही है. विज्ञापन का बाजार गर्म है. अभी महीने भर भी नहीं बीता है जब
भारत की आर्थिक स्थिति के ख़राब होने की ख़बरों से अख़बार और न्यूज चैनल भरे पड़े थे.
महंगाई दर बढती जा रही थी. अचानक ऐसा क्या हो गया कि सब ठीक हो गया. अब कोई खबर
नहीं आ रही है. संदेह होता आंकड़ों पर. देश में गरीबों की संख्या यदि लगभग अस्सी प्रतिशत
है तो यह बाजार किनके भरोसे चल रहा है. त्यौहार का मौसम सबके लिए कमाई का होता है.
अख़बारों के पन्ने विज्ञापन से ढके पड़े हैं. अद्भुत है यह देश. सच में खबर का मुंह
विज्ञापन से ढका है. अमेरिका जैसे देशों में भी शटडाउन की नौबत आ गयी है. अभी
दशहरा बीता है. क्या कहीं ऐसा लगा कि किसी को कोई दिक्कत है. बाजार में भीड़ उसी
तरह थी जैसी पिछले साल देखी गयी थी. कुछ लोगों को शिकायत भी रहती है कि त्योहारों
पर आजकल बाजारों में बहुत भीड़ रहती है, पहले इतनी भीड़ नहीं हुआ करती थी. अमीर लोग
मध्यवर्ग को कोसते हैं कि ये सब भीड़ बढ़ा रहे है और मध्य वर्ग बहुसंख्यक निम्न वर्ग
को कोसता है कि बाजार में अब क्लास मेंटेन नहीं रह गया है. उन्हें शिकायत रहती है
कि अब ये मॉल और मल्टीप्लेक्स में भी आने लगे हैं.

उपभोक्ता को अंग्रेजी में कंज्यूमर कहते हैं. अंग्रेजी में कंज्यूम शब्द का
इस्तेमाल पहले ख़त्म कर देने या नष्ट कर देने के अर्थ में किया जाता था. इसीलिए आज
भी जल कर ख़त्म हो जाने या खाक हो जाने के लिए ‘कन्ज्युम्ड बाय फायर’ पद का इस्तेमाल किया जाता है. त्यौहार पहले भी आते
थे परन्तु उनपर बाजार का प्रभाव इतना नहीं था. दिवाली पर मिट्टी के दिए तेल में जलाये जाते थे. अब
इलेक्ट्रिक बल्ब ने उसकी जगह ले ली है. अब बाजार हमें यह बताता है कि हमें त्यौहार
कैसे मनाना चाहिए. उसमें बाजार आपकी मदद करेगा. इस त्यौहार खुशियाँ घर लाना चाहते
हैं तो डेरी मिल्क का उपहार पैकेट लायें. यदि आप अपने घरवालों से प्यार करते हैं
तो उन्हें पेप्सी पिलाएँ. अब बाजार हमारी आवश्यकताएं भी निर्मित करता है. छद्म
आवश्यकताओं का सृजन किया जाता है. भारत के लोग अपरिग्रह और संचय में विश्वास करते
थे. गमछे(तौलिया) को महीनों पहले कंधे पर रखते थे, फिर उसे तौलिया के रूप में
इस्तेमाल करते थे. पुराना हो जाने पर उसे कई और कामों में लाया जाता था. फिर अंत
में उससे घर में पोछा लगाने का काम लिया जाता था. कहने का मतलब यह है कि वस्तु के
रेसे- रेसे का इस्तेमाल किया जाता था. अब हर चीजें बाजार में उपलब्ध हैं. हर वर्ग
के लिए. जुगाड़ तकनीक इतनी भी बुरी चीज नहीं है. बाजार जाने वाला हर व्यक्ति अब
केवल उपभोक्ता है, ग्राहक नहीं. उपभोक्तावाद के सबसे बड़े शिकार महिलाएं और बच्चे
हैं. अभी एक दिन एक खिलौनों के दूकानदार ने बताया कि एक सज्जन रोज अपने बच्चे के
लिए नया खिलौना ले जाते हैं. एक दिन किसी कारण से खिलौना नहीं ले जा पाए तो बच्चे
ने रात में खाने से इंकार कर दिया. रात हो चुकी थी.बाजार बंद हो चुके थे. उन्होंने
दूकानदार को फोन किया. दुकानदार घर से आकर उन्हें खिलौना दिया.
इतने सब के बावजूद आज जब खुदरा बाजार में एफडीआई का विरोध किया जाता है तो
सरकार को यह विकास विरोधी बात लगती है. उपभोक्तावाद जन विरोधी नीति है. इसपर अंकुश
लगाना चाहिए. देर से ही सही. इस मामले में गाँधी जी सचमुच दूरदृष्टि वाले ठहरते
हैं. बाजार का वैसा सतर्क विरोध और कोई नहीं कर पाया. अपनी आवश्यकताओं को इतना कम
कर लेना कि बाजार की कोई भी ताकत उसे छल ना सके. आज इस बात की बेहद जरूरत है कि हम
समय के साथ चलते हुए अपनी जड़ों से जुड़े रहें. उत्तराखंड और फिलिन जैसे प्राकृतिक
आपदाओं बाद तो यह और भी जरूरी है.