Thursday, May 19, 2011

यही हैं मेरे लोग

पुस्तक समीक्षा

समीक्ष्य पुस्तक : यही हैं मेरे लोग(काव्य संग्रह) : बृजराज कुमार सिंह/साखी कविता पुस्तिका 2/अप्रैल2010/




जटिल समय में कविता की रचनात्मक प्रतिबद्धता के गुण-सूत्र की खोज

अविनाष कुमार सिंह





आधुनिकता ने जो मूल्यबोध की मूर्त प्रवृत्ति कविता को थमायी थी, इस प्रवंचक समय ने उस पर एक अजीब सा छद्म डाल रखा है। यह दूसरे अर्थों में रचनात्मक चुनौती है आज की युवा साहित्यिक पीढ़ी पर। किसी भी प्रकार की जल्दी न केवल कवि और कविता को च्युत करेगी बल्कि अगली पीढ़ी के प्रति एक सांस्कृतिक अपराध होगी। अत: ऐसे में रचनात्मक तैयारी और रचनात्मक धैर्य बेहद जरूरी हैं। इतिहास और विचारधारा के अंत की  समीक्ष्य कविता संग्रह यही हैं मेरे लोग अपने लघु कलेवर में भी गहरी रचनात्मक सूझ का संकेत देती है। कवि बृजराज का यह पहला संग्रह नर्इ सदी के आरंभिक दषक में आकर कुछ नये रचनात्मक गुण-सूत्र खोजता-दिखाता चलता है। संग्रह की कुछ कविताएं विभिन्न पत्रिकाओं में पहले से छपती रही हैं। कविताओं का आकार प्राय: छोटा है लेकिन कुछ बड़े जीवन मूल्य गुंथे पड़े हैं। लगभग छियालीस छोटी बड़ी कविताओं की सबसे बड़ी विषेशता है इनकी सहजता। जो कथ्य और भाशा दोनों धरातलों पर कवि को विषिश्ट करती है। पहली ही रचना कविता समय में बृजराज समय और सभ्यता के उन संकटों को खोजते हैं जो आज की और स्वयं उनकी रचनात्मकता को तय करती हैं:

खोज रहा था/एक अरब लोगों का देष/जो कुछ सौ लोगों का स्वर्ग है/कि खोज रहा था एक अरब फुटबाल चेहरे सब अलग-अलग/फुटबाल सब एक ही तरह के/फुटबाल में बदल जाने पर/चेहरों को पहचान पाना कितना मुष्किल है
कविता यदि अपने समय से टकराती है तो बहुस्तरीय संवाद में भी “ाामिल होते चलती है और यह संवादधर्मिता रचे जाने के स्वरूप को भी तय करती जाती है। बृजराज की कविता में कहने की जो सहजता है वह जटिल के समानांतर सरल, अमूर्तन के समानांतर मूर्तन का प्रतिपक्ष खड़ा करती है। कविता कवि से बात करती है अंतरतम में तो बाहर निकलते ही पाठक को भी इस बतकही में साझा कर लेती है :बहुत कुछ बतिया लेने के बावजूद/जो बच जाता

है/वही तो बतियाने की कोषिष करता हूँ/कविता से

इस बतकही के सार्थक कंटेट की तलाष में कवि की बेचैनी दिखती है जो, एक तरफ कवि की मौलिकता को संकेतित करती है तो दूसरी तरफ पूर्व स्थापित विचारधाराओं के क्लोन काव्यरूपों से बचने का प्रयास करती है : क्या दूं मैं/क्या दूं कि/लगे कि मैंने ही दिया है यह देना संभव हो इसके लिए कवि किसी निवीड़ में जाने के बजाय वहीं जाता हैं जहां उसके अपने लोग हों, अपनी मुष्किलों और दुष्वारियों से जूझते हुए और एक अकृत्रिम जीवन का सुख चेहरे पर लिए हुए : यही, यही है मेरे भारत का चेहरा/और यही है मेरे देष के लोग/

और मेरे लोग/ जो आज भी खा लेते हैं/प्याज से रोटी और

नीम के पेड़ के नीचे चारपार्इ पर/काट लेते हैं दुपहरिया

यह अहा! गा्रम्य जीवन की अभिजात्यता को तोड़ कवि की उस मानसिक द्वन्द्व की व्यावहारिक स्थिति को प्रकट करता है जो उसके “ाहराती होने और गांव से क्रमष: दूर होते जाने की नियति से उपजा है। प्रच्छन्न रूप में ही सही लेकिन भाशा के प्रयोग में कवि की यह क्रमष: होती कंडिषनिंग को पुश्ट करता है। मेरा गांव कविता में तो कवि का यह द्वन्द्व और उसकी विडंबना साफ दिखार्इ पड़ती है : गांव की सबसे बूढ़ी महिला/के गालों पर, झूर्रियों की

संख्या बढ़ी है/जब जब गांव जाता हूं एकलकीर/बढ़ी पाता हूं

यह लकीर केवल बुढ़िया के माथे पर नहीं बढ़ रही बल्कि एक गहरी तड़प के रूप में कवि के अंत:करण पर भी गाढ़ी होती जाती है, तभी तो एक छद्म आत्मतुश्टि के बावजूद उसे स्वीकार करना पड़ता है : गांव में पेड़ों की संख्या/बढ़ने के बावजूद/अब कोर्इ पेड़ के नीचे/चारपार्इ
डालकर नहीं सोता फिर भी इन्ही लोगों से अपने वजूद को बचा लेने की गुजारिष भी कर बैठता है : मुझे बचा लो/मेरे गांव की पगडंडियों/थोड़ी धूल ही

न और बढ़ेगी/पर समो लो अपने में

कविता के संवेद्य भूगोल के पसारे में जो कुछ भी आ पाया है, जो अपने लोग आ पाये हैं, वे “ााइनिंग या सफरिंग इंडिया के राजनीतिक चुहलबाजी से बाहर के हैं। इनके इतिहास तो कभी बन ही न सके, इनका भूगोल और कम ही होता गया। इनकी आकांक्षाएं राश्ट्रीय महत्वाकांक्षा की परछार्इं भी नहीं छू सकीं हैं। परंतु ये उसी वृहत् वर्ग समाज के लोग हैं जिनसे कवि का गहरा संवेगात्मक जुड़ाव है। गांव के प्रति, उसकी सुस्त जिंदगी के प्रति कवि का जो नॉस्टेल्जिया है वह यही संकेत देता है। “ांकरवा बो कविता की भाशा और उसका कंटेट कवि की इस जद्दोजहद का ही प्रतिबिंब है :
चटख रंग की साड़ी/ललाट पर टह-टह लाल टिकुली/

बीच मांग खूब लम्बा सेन्दुर/पहने निकलती थी वह/

थोड़ा पतले कपड़े का ब्लाउज/पहनती थी “ांकरवा बो यह किसी रीतिकालीन अभिजात्य नायिका से ज्यादा वास्तविक और पहचाना सा सौंदर्य वर्णन है। कवि का यह कहना कि गांव की हिरोइन थी “ांकरवा बो और फिर यह बताना कि : तीन साल हुए नहीं रही “ांकरवा बो/

किसी को अब याद नहीं/ कि चांद उगा था पिछली रात/या नहीं एक गहरी टीस पैदा कर जाता है। त्रिलोचन के के बाद हिन्दी कविता में यह पहला मौलिक काव्यप्रयास है। नॉस्टेल्जिक होना पष्चगामी होना नहीं है यदि वहां स्मृतियों को आज के संदर्भ में रखा और महसूसा जाय। स्मृतियों में कोर्इ बड़ी घटना या दुर्घटना जगह पाये यह जरूरी नहीं। सबकुछ पीछे छोड़ती, भूलती दुनिया में स्मृतियां भर ही हों क्या यह जीवित होने का आभास बनाये रखने के लिए ही पर्याप्त नहीं! एक चिठ्ठी नामक कविता भी संग्रह की उपलब्धि के रूप में देखी जा सकती है। चिठ्ठी का फॉर्मेट कविता में आना आकस्मिक नहीं। संचार क्रांति की जल्दी में संवेदनाओं का अचानक से सिकुड़ जाना गहन सांस्कृतिक संकट का संकेत है। यहां कवि के अंदर परंपरा का व्यामोह या भागते समय से पीछड़ते जाने के भय से उपजा “ाोकराग नहीं बल्कि जीने के कुछ भदेस तरीकों की नॉस्टेल्जिया के बहाने तलाष है। यदि कवि की रचनात्मकता में गांव ने ज्यादा स्पेस पाया है तो इसका कारण भी यही है। यांत्रिकता और सबकुछ पाने या अच्छे दिन की तलाष में कर्इ अच्छे दिन गंवा देने की कष्मकष कविताओं में मौजूद है : कितना एकरस/हो गया है जीवन/मुंह उठाये

रविवार के बाद/आ जाता है सोमवार/

कोर्इ इसे बदल क्यों नहीं देता
यह बदलना यांत्रिकता और उससे जुडे़ किसी भी प्रकार के वर्चस्ववाद का प्रतिकार है। दुनिया का दरोगा और दुनिया घोर अषांति में जी रही है कविताएं अमेरिकी साम्राज्यवाद और सांस्कृतिक वर्चस्ववाद का ही प्रतिवाद करती हैं। कामरेड अब तुम क्या करोगे कविता लोकतंत्र के लाक्षागृह में छले गये नक्सल आंदोलन के दमन के क्रूर तरीकों पर रची गयी है:
तुम इस देष के सबसे बड़े खतरे हो, कामरेड/क्यों?/क्योंकि तुम/लूट का विरोध करते हो/न्याय की बात करते हो
यह सही है कि नक्सलवादी आंदोलन अपनी दिषा से भटका हुआ है, हालांकि इसका कारण भी यही लोकतांत्रिक सरकारें हैं, परंतु सलवा जुडूम और ऑपरेषन ग्रीन हंट जैसे दमनकारी मिलिट्री प्रयास क्या तानाषाही परंपरा को पुख्ता नहीं करते! बंबर्इ के सीने पर हत्या का तांडव करने वाले आतंकियों और प्रायोजक संस्थाओं के आगे लाचार सरकार अपने लोगों के साथ जो कर रही है वह देष के भविश्य को क्या दिषा देगी, जाहिर है। अभिव्यक्ति के खतरे और ज्यादा विकट रूप में प्रत्यक्ष हैं। ऐसे में यदि कवि प्रतिरोध में उठने वाले हर कदम की परिणति जानते हुए भी विरोधियों के लिए एक नयी दुनिया रचे जाने की तरफदारी करता है तो वह सहज ही है : एक “ाहर ऐसा बसाया जाय/जिसमें सिर्फ घर से भागे हुए लोग हों/

घर से भागी हुर्इ लड़कियां और उनके प्रेमी/जिनके अपने घर नहीं हैं/

वे भी रहें इस “ाहर में क्योंकि ये प्रतिरोधी लोग किसी तयषुदा खांचे में अंट नहीं सकते : जो भागता है/वह सिर्फ भाग नहीं रहा होता/वह तोड़ रहा

होता है कुछ कायदे कुछ कानून/उसमें विरोध की इच्छा

होती है/जो चल रहा होता है/उसे वैसा ही नहीं चलने देना चाहता है

दु:ख और प्रतिरोध के कर्इ “ोड्स कवि ने स्त्री जीवन की विडंबना में देखे हैं। पिता के मूंछों की लाज और पांच गज की पगड़ी का भार बेटी के साथ जीवन भर साड़ी बनकर लिपटा रहता है और “ार्त होती है कि अथ्र्ाी निकलते वक्त भी यह भार कम न हो। मां की झुकी पीठ कोर्इ आकस्मिक “ाारीरिक वक्रता नहीं बल्कि पुरूश वर्चस्ववाद द्वारा मर्यादा और परंपरा के बोझ से सदा के लिए तोड़ दी गर्इ स्त्री जाति की रीढ़ है :

“ाायद बचपन में ही/तोड़ दी गर्इ थी उसकी रीढ़ की हडडी/यह सोचकर कि/

लड़कियों की पीठ थोड़ी झुकी ही होनी चाहिए

कवि इस बोझ से मुक्ति की सामूहिक चेतना के उत्स की खोज में बरबस कह उठता है :

मुझे इंतजार है उस दिन का/जब

अपने “ारीर पर घूमते/किसी मर्द के हाथ

को/रोककर, कोर्इ लड़की कहेगी/रहने दो, बस करो..
संग्रह में कवि ने प्रेम को गहरे धरातल पर महसूस कर रचा है। यहां प्रेम है लेकिन सिर्फ सुंदर से परे, असुंदर और अभावों के बीच से अंकुआते हुए। इसलिए इष्क द्वारा स्थान मांगने पर भी कवि कहता है कि मुझे सिर्फ एकाकी और एकांगी प्यार नहीं चाहिए :मैं एक कमरे के

मकान में/अपने मां,बाप, जवान बहन/

और भार्इ के साथ रहता हूं/तुम्हें रखने के

लिए मेरे पास जगह नहीं



कवि की अधिकांष कविताओं में कुछ नये बिम्बों का प्रयोग तो हुआ है, परंतु संदर्भों का अभाव उसके इतिहासबोध को सीमित करता है, और “ाायद यही कारण है कि कुछ कविताएं जो अपने रचाव में लम्बी होने की मांग करती हैं, कवि उनका आकस्मिक समापन कर देता है। राजनीतिक और विचारधारात्मक कंटेट को रखने वाली एक कविता है सपना। सपने में क्रांतिपुरूशों और विचारों का आपसी संवाद (जिसमें स्वयं कवि का ज्ञानात्मक संवेदन भी “ाामिल है) कवि को वैचारिक प्रतिबद्धता देने के साथ ही कविता में हाषिये के लोगों का पक्षधर होने का नैतिक साहस प्रदान करता है। तभी तो वह कहता है :



मैंने सपने में देखा है/उसके अंडकोशों को पत्थर पर रखकर/

दूसरे पत्थर से ‘फचाक’ से फोड़ते हुए/वह कौन था?/

जगा तो वह भीड़ में खो चुका था

परंतु कवि अच्छी तरह जानता है कि “ाोशण के बिगड़ैल अंडकोशों को पत्थरों के बीच फचाक से फोड़ने का यह क्रांतिदष्र्ाी नाद-बिंब व्यवस्था में घुटते-पिसते-कुंथते आम मन की सामूहिक प्रतिक्रिया है। परंतु इस इकलौती कविता के अलावे जो अन्य राजनीतिक या वैचारिक कविताएं हैं वे प्राय: सपाटबयानी की ओर चली जाती हैं। कवि त्रिलोचन, मुक्तिबोध और केदारनाथ सिंह से वैचारिक संवाद तो करता है लेकिन सृजनात्मकता के प्र्रति कुछ-कुछ बचता सा चलता है। बहरहाल पहले काव्य संग्रह से जो कुछ कवि ने दिया है वह उसी परंपरा बोध से उपजा है जो सबकुछ खत्म हो जाने की साजिष में भी सपनों को बचा लेने की आष्वस्ति दे पाता है : ...और हम जियेंगे/साथ-साथ मिलकर/सूरज की लाल किरणों के बीच
कवि को इन सपनों को बचा लेने की यह जिजीविशा यदि मिलती है तो उन संकेतों से जो उसे स्त्रियों के प्रतिरोधों से, धर्म और सत्ता के विरोधियों से तथा उस दस साल के चाय वाले बच्चे से जिसे देखकर कवि आष्वस्त है : यह “ाुभ संकेत है/मेरे देष के भविश्य के लिए/

कि अब भी/एक दस साल का बच्चा/

पहचान लेता है तितली/अभी भी बची है उसमें/

रंगों के पहचान की क्षमता

1 comment:

  1. Sabhi Kavitaein Aur Aalekh Padhe. Bahut Achcha Lga Bhai. Aap Inta Sakriy Hain, Yh Sukhd Hai. Badhai Aur Shubh kamnaien.

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