Thursday, April 26, 2012

भाषा का सम्बन्ध जातीय चेतना से जुड़ा होता है



भाषा का सम्बन्ध जातीय चेतना से जुड़ा होता है
बृजराज सिंह
भाषा के सवाल पर जब लगभग चुप्पी सी है तब बोलने का जोखिम कोई नही उठना चाहता है| इसके कई खतरे हैं-राजनीतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक| मणीन्द्र नाथ ठाकुर ने जनसत्ता के माध्यम से यह जोखिम उठाया है| जब देश के हुक्मरानों में अमेरिका का पिछलग्गू बनने कि होड़ लगी हो, देश का अमेरिकीकरण करने को विकास का पर्याय बताया जा रहा हो; ऐसे समय में भाषा का सवाल उठाने पर विकास विरोधी कहे जाने का खतरा रहता है| अंग्रेजी का विरोध करना पिछड़ेपन की निशानी मानी जाती है| अक्सर यह कहा जाता है कि पढ़ने-लिखने में कमजोर लोग एवं पिछड़े इलाकों के लोग ही ऐसे सवाल उठाते हैं| जब की यह सवाल इससे कहीं बड़ा है|
      भारत के सन्दर्भ में भाषा समस्या थोड़ी जटिल जरूर है पर ऐसा नही है कि इसे हल नही किया जा सकता| जरूरत है बेहतर कार्ययोजना की| अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग भाषाएँ बोली-समझी जाती हैं| अपने देश में आज भी अंग्रेजी जानने वालों की संख्या बहुत कम हैं परन्तु परिस्थितियाँ कुछ ऐसी हैं कि अंग्रेजी न जानने वाला काम्प्लेक्स्ड हो जाता है; हीनग्रंथि का शिकार हो जाता है| ज्ञान=विज्ञान के क्षेत्र में उसकी प्रमाणिकता संदिग्ध कर दी जाती है| अंग्रेजी का संकट मात्र भाषा संकट नही है, वह सांस्कृतिक संकट भी है| भाषा हमारी सोच और दृष्टीकोण को प्रभावित करती है| वह हमारे खयालात को बदल कर रख देती है| हम जिस भाषा का व्यवहार करेंगे उसी भाषा में सोच पायेंगे| अंग्रेजी हमारे शासकों की भाषा रही है| वह हमें हमारी गुलामी याद दिलाती रहती है| सिर्फ़ अंग्रेज ही भारत के लोगों को असभ्य नहीं समझते थे, कुछ अंग्रेजीदाँ भारतीय भी बाकी लोंगों को असभ्य और तुच्छ समझतें हैं| भारत में पहले से ही इतनी भाषाएँ हैं कि उन्हें मैनेज करना मुश्किल हो रहा है| अंग्रेजी उपर से थोप दी गयी; जब कि अंग्रेजी किसी भी प्रान्त कि भाषा नही है| सरकारी कामकाज अंग्रेजी में होता है, न्यायालयों के फैसले अंग्रेजी में सुनाये जाते हैं| राजभाषा,राष्ट्रभाषा नाम कि कोई चीज नही रह गयी है| किसी भी राष्ट्र के लिए राजभाषा-राष्ट्रभाषा का क्या महत्व होता है यह बताने कि जरूरत नही है| अंग्रेजी को कुछ इस तारह पेश किया जाता है कि इसके बिना काम ही नही चल सकता| मेरे मन में यह सवाल उठता है कि जब अंग्रेजी इस देश के लोगों के व्यवहार में नही थी तब कैसे काम चलता था| शंकराचार्य ने जब उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम की चार बार यात्रा की होगी तब उनके सामने यह समस्या नही आयी होगी| वे इस समस्या से कैसे निबटे होंगे? भारत में सत्तानशीन लोग अंग्रेजी का विकल्प खोजने के बजाय उसी को एक मात्र विकल्प के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं| भाषा का सम्बन्ध जातीय चेतना से जुड़ा होता है| अंग्रेजी ने भारतीय भाषाओँ को हाशिए पर डाल दिया है| यही कारण है की भारतीय लोगों में जातीयता का अभाव है| यदि अंग्रेजी का विकल्प नही खोजा गया तो हम अपनी पहचान खो देंगे| किसी और राष्ट्र की भाषा को लागू करने का मतलब उसकी सांस्कृतिक गुलामी करने जैसा है|
      देश भर में हो रही आत्महत्याओं के सिलसिले ने हमारी शिक्षा व्यवस्था पर बहुत बड़ा प्रश्न चिन्ह लगा दिया है| हमारी शिक्षा व्यवस्था कहीं हृदयहीन तो नही हो गयी है| इस शिक्षा प्रणाली से हम देश को कहाँ ले जाना चाहते हैं? देश में छात्रों द्वारा की जा रही आत्महत्याओं में बनारस भी पीछे नही है| काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में भी ख़ुदकुशी की खबरें बढ़ गयी हैं| पिछले दो-तीन महीनों में तीन-चार छात्र-छात्राओं ने आत्महत्या कर ली| यूँ तो पहले भी जब परीक्षा का समय आता था तब ऐसी ख़बरें सुनने को मिलतीं थीं, परन्तु जब से सेमेस्टर पद्धति लागू हुयी है तब से इनकी आबृत्ति बढ़ गयी है| काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना का मुख्य उद्देश्य नागरिकों में राष्ट्रीय एवं जातीय चेतना का विकास करना था| उसी विश्वविद्यालय में सारे कामकाज अंग्रेजी में ही हो रहा है| पता नही ऐसी कौन सी मजबूरी है कि जहाँ अधिकांश छात्र एवं कर्मचारी हिंदी भाषी हैं वहाँ सारे काम अंग्रेजी में होते हैं| वे सारे कामकाज जो हिंदी में बड़े आसानी से हो सकते हैं उन्हें हिंदी में करने से किसे सहूलियत होती होगी| विश्वविद्यालय के चपरासी जो कार्यालयी चिट्ठियों को पहुंचाते हैं उन्हें अंग्रेजी नही आती; वे अनुमान पर ही काम करते हैं| हिंदी संपर्क भाषा के रूप में विकसित हो रही है| वह राष्ट्र भाषा भी बन सकती है| परन्तु उसके लिए हमें हिंदी के प्रति अपने विश्वास को मजबूत करना होगा| वह ज्ञान विज्ञान कि भाषा भी बन सकती है| उसे ज्ञान-विज्ञान की भाषा बनाने के लिए थोड़ा उदार होकर सोचना पड़ेगा| हिंदी की अपनी बोलियों के साथ-साथ अन्य भारतीय भाषाओँ के साथ भी मैत्रीपूर्ण व्यवहार अपनाना पड़ेगा| अंग्रेजी समर्थक हिंदी को अन्य भारतीय भाषाओँ के लिए खतरा बताते हैं; जब कि असली खतरा हिंदी से नही बल्कि अंग्रेजी से है| सामान्य जनमानस के इस भ्रम को दूर करना होगा और उन्हें वास्तविकता से अवगत कराना होगा| वैसे इसके जिम्मेदार हिंदी के लोग भी हैं| हिंदी का अपनी बोलियों से ही जिस प्रकार सम्बन्ध बिच्छेद हो गया है उससे हिंदी प्रदेश के लोगों में भी उस जातीयता का अभाव है| समूचे अखिल भारतीय सन्दर्भ में हिंदी रास्ट्रीयता-जातीयता का भाव उत्पन्न करने में असफल रही है| भारत जैसे औपनिवेशिक देश में भाषा कि यह समस्या हिंदी भाषियों के साथ अन्य भारतीय भाषा भाषियों को भी हीनता-ग्रंथि से भर देती है| एक अध्यापक जो कुछ दिनों के लिए जापान गए थे| वहाँ से लौटने पर उन्होंने बताया कि पहले कुछ दिन तक उन्हें जैपनीज़ सीखनी पड़ी| तब उनका काम चल सका| वहाँ भी लोग अंग्रेजी जानते हैं और वे भी अंग्रेजी जानते थे, लेकिन उन्हें जैपनीज़ सिखनी पड़ी| यह उनकी जातीयता और रास्ट्रीयता का सवाल है; जिससे वे समझौता नही करते| मैंने कहीं सुना था कि रवीन्द्र नाथ ठाकुर के कोई मित्र जो बहुत दिन विदेश रह कर आये थे| रवीन्द्र नाथ से मिलने पहुंचे तो बातचीत अंग्रेजी में ही कार्टा रहे| कुछ देर बाद रवीन्द्र नाथ ने कहा कि तुम्हारी दिक्कत यह है कि अंग्रेजी तुम्हारी नही है इसलिए तुम ठीक से बोल नही पाते हो और बंगला बोलना नही चाहते हो| इसलिए बीच में अटक गए हो| यह समस्या हर भारतीय के साथ है कि अंग्रेजी तो आती नही और अपनी भाषा से काम नही चल सकता| सब बीच में झूल रहे हैं|
      कहा जाता है कि जब किसी पेड़ को सुखाना होता है तो उसकी जड़ों में छाछ दल दिया जाता है| अंग्रेजी हमारी जड़ों में छाछ का काम कर रही है| मणीन्द्र नाथ कहते हैं हैं कि भाषा का सम्बन्ध रास्ट्रवाद से नही रह गया है| रास्ट्रवाद से भले न हो परन्तु रास्ट्रीयता से तो है ही,और उसी से आत्मसम्मान भी जुड़ा है| उत्तर भारत खास तौर पर हिंदी प्रदेश में यह अफ़वाह खूब काम करती है कि दक्षिण भारतीय लोगों ने अंग्रेजी को आश्रय दे रखा है| यह बात कुछ इस तरह रखी जाती है गोया समूचे दक्षिण भारत कि भाषा अंग्रेजी है| जबकि वहाँ भी अंग्रेजी जानने-समझने वालों कि संख्या उतनी ही है जितनी उत्तर भारत में| अपने को संभ्रांत कहने वाला तबका वहाँ भी है और यहाँ भी| अंग्रेजी जिनकी भाषा है वे अपनी जाति और संस्कृति को सबसे ऊपर मानते हैं| वे अपने को सभ्य कहते हैं और जो उनकी भाषा,संस्कृति को नही अपनाएगा वह असभ्य माना जायेगा| यदि हम भारतीय भी अंग्रेजी का व्यवहार नही छोड़ते हैं तो हम उनकी मान्यता से हाँ में हाँ मिला रहे हैं| औपनिवेशिक गुलामी कि यह निशानी हमारे साथ चली आ रही है|
आज बहुत जरूरत है भारत की  भाषा समस्या पर विचार करने की| हिंदी को अगर आगे बढ़ाना है तो उसमें सबके लिए जगह बनानी पड़ेगी| यह काम उतना भी मुश्किल नही है जितना बताया जाता है| इसमें वर्चस्व की बू नही आणि चाहिए वर्ना कदम-कदम कदम पर विरोध होंगे| हिंदी में तो उतनी भी जातीयता नही है जितनी अन्य भारतीय भाषाओँ में यथा-बंगला,तमिल, असमिया| सामजिक समरसता एवं न्याय के क्षेत्र में भी भाषा का महत्व है| आज की युवा पीढ़ी के सामने बहुत से संकट हैं| उसी में यह समस्या भी है| यह समस्या ज्ञान के माध्यम से ज्यादा बड़ी समस्या है| भाषा की इस बहुआयामी समस्या और उसकी जरूरत को समझ कर उसका हल खोजने की जरूरत है| इसमें बुद्धिजीवियों के साथ राजनीतिक पहल की भी जरूरत है| अपनी राष्ट्रीय अस्मिता और पहचान के संकट से जूझ रही जनता को राहत पहुँचाने के लिए स्पष्ट राजनीतिक ददृष्टीकोण की जरूरत है| क्षेत्रीय एवं जातिगत राजनीति के इस दौर में इस समस्या की तरफ किसी राजनीतिक दल का ध्यान नही है| भाषा की जरूरत के साथ हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए की हम किसी की भावनाओं को किसी प्रकार आहत न करें| भाषाओँ का ज्ञान रखना चाहिए| किसी भी भाषा के प्रति छुआछूत का भाव नही रखना चाहिए|

बृजराज सिंह
H 2/3 वी.डी.ए. फ्लैट्स,
नारिया, बी.एच.यू. वाराणसी-221005
Mob.9838709090

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