Friday, April 27, 2012

कबीर को याद करते हुए


कबीर को याद करते हुए


1.यूँ तो मैं बेखता हूँ, पर
मन भर खता का बोझ
मन पर लदा रहता है
क्यों कि मैंने मैली कर
बापैबंद धर दीनी चदरिया
दास कबीर ने बीनी
ज्यों की त्यों दे दीनी
सात पुस्त से ओढ़ा-बिछाया
न जाने किस कुमति में फंसकर
तार-तार कर दीनी चदरिया
 

2. हे महागुरु!
कहाँ से पाया तुमने नकार का इतना साहस
दुनिया को ठेंगा दिखाने का अदम्य साहस
तुम तो बार-बार कहते रहे कि
सुनो भाई साधो, सुनो भाई साधो
पर हमने एक न सुनी तुम्हारी
बुड़भस हो, सठिया गए हो
बस बक-बक करते रहते हो
जान तुम्हारा उपहास उड़ाते रहे
अब जबकि ठगवा आता है और
लूट ले जाता है हमारी नगरिया
तुम बहुत याद आये महागुरु!




ठेकैत 


अंजोरिया रात में दूर से आती तुम्हारी ढोलक की थाप
चाँदनी उजास के साथ मिलकर चैती रुमानियत से भर देती थी
जब तुम आपनी ढोलक पर ठेका लगाते
पूरा गाँव कहता ठेकैत जग गए
तुम्हारा कोई घराना नहीं था
न ही तुमने कहीं कोई गुरु बनाया
अलबत्ता तुम्हारा असली नाम किसी को याद नहीं रह गया था
बस ठेकैत के नाम से तुम प्रसिद्द थे
सुनने में कितना अजीब लगता है यह नाम
डकैत,लठैत से मिलता जुलता परन्तु इन सबसे एकदम अलग
तुमने कभी कोई गिला-शिकवा नही किया इस नाम को लेकर
कहते थे कि जीवन बर्बाद कर लिया ढोलक के पीछे
पर जो ढोलक नही बजाते थे उनका कौन-सा आबाद हो गया

निकल जाते थे तुम कुछ-कुछ दिनों के लिए गाँव से बाहर
और जब घूम-घाम कर आते तो तुम्हारे साथ
करताल पर द्वारिका पहलवान, हारमोनियम पर रमापति यादव
विजयी मास्टर के साथ लालजी बाबा
जब बिरहे की तान छेड़ते तो तुम्हारे ठेके के साथ मिलकर
राग विरहाग्नि बजने लगती
बच्चे तुम्हे ढोलक बजाते देख कर खिलखिलाते
तुम पूरा ढोलक पर सवार जो हो जाते थे और
तुम्हारे कमर के उपर का हिस्सा नृत्य करने लगता था

अब तुम नही रहे तो गाँव मे ढोलक भी नही रही
फटी पड़ी रखी है मंदिर में बहुत दिनों से
पहलवान भी नही रहे, होरी चैता कजरी भी नही रही
कीर्तनिया भी नही जुटते
अब कोई ठेकैत नही रहा
अब गाँव गाँव नही रहा
तुमने शागिर्द भी तो नही बनाया था


ओह किसान तुम भी न 

रहे होगे तुम कभी के राजा
बलिराजा रहा होगा तुम्हारा नाम
रहे होगे, अभी नही न

तुम्हारे पसीने से बना होगा कभी लहू
बना होगा, अभी नही न

तुम्हारे खेतों में कभी उतरा होगा वसंत
उतरा होगा, अभी नही न

अब तो वसंत आता है
चुपके से सहमा-सा और भाग जाता है
तुम जान भी नही पाते, है न
मेरे समय में डर-डर के जीता है हर आदमी
डरे हुए हैं तुम्हारे अलसी और ज्वार के पौधे
डर साफ़ दिख रहा है तुम्हारे बैलों की आँखों में
कुम्हलाए हैं तुम्हारे कपास के फूल
सरसों के फूल पीले पड़ गए हैं

तुम्हारे ही खेतों से निकले धागे
तुम्हारे गले की फांस बन गए हैं
तुमने खेला होगा कभी फाग,अब नही न
रंग उड़ गए तुम्हारे गीतों के

कुछ नही रह जाने पर भी तुम खोज ही लेते हो
जिन्दा रहने के कोई न कोई बहाने





आधे से मेरा काम नहीं चलता 

मुझे आधा-आधा कुछ नहीं चाहिए
आधे से मेरा काम नहीं चलता
आधी नींद, आधा स्वप्न
आधी दुनिया, आधा प्यार

जब सोता हूँ
पेट भर सो लेना चाहता हूँ
जब रोता हूँ
रो लेना चाहता हूँ पेट भर
आधा नहीं
जब-जब प्यार करता हूँ
मन भर कर लेता हूँ
आधा अधूरा नहीं

मुझे स्वप्न चाहिए पूरी पृथ्वी के
आधी दुनिया से मेरा काम नही चलता
मुझे चाहिए सम्पूर्ण जीवन
सभी रंगों का, श्याह के साथ सफ़ेद भी

इसीलिए कहता हूँ
जब मिलो
पूरा-पूरा मिलो मुझसे
अपने कोनों-अतरों के साथ
आधे से मेरा काम नही चलता
मुझे चाहिए पूरी की पूरी प्रकृति
पलास के साथ-साथ कपास भी
नदियाँ, पहाड़, झरने,रेत और कैक्टस भी

वसंत लूँगा मैं तो ग्रीष्म लेगा कौन?



वह 

वह जब आती है
आती ही चली जाती है
दुःख दिन की तरह

और जब जाती है
तो चली जाती है
जैसे अच्छे दिन

उसका आना और जाना
दोनों ही पसंद नहीं है मुझे

क्यों की पढ़ रखा है मैंने
अति अच्छी नहीं



पूनम के लिए 

यह और बात है कि तुमने
कभी कुछ नहीं कहा मुझसे
पर तुम्हे कितना अटूट विश्वास था
कि एक दिन तुम्हारे सारे कष्ट
दूर करूँगा मैं ही,
तुम्हारे इस नरक जीवन से छुटकारा दिलाऊंगा

तुम इंतज़ार करती रही, सहती रही
चुप रहकर रोज मरती रही
अंतिम साँस तक तुम्हारा यह विश्वास बना रहा
कि सब ठीक कर दूँगा मैं
सब कहते हैं तुम्हारी पीठ पर आया था मैं
जिस पीठ पर तुमने परिवार के सड़े-गले चाबुक से
ना जाने कितनी मार सही सबके हिस्से की

मैं तुम्हारा भाई
जो तुम्हारे जीते-जी कुछ कर न सका
तुम्हारे मरने पर कविता लिख रहा हूँ
तुम नहीं जानती कविता क्या है
तुम कविता नहीं समझती
तुमने कभी कोई कविता नहीं पढ़ी
फिर भी मैं लिख रहा हूँ
क्योंकि इसके अलावा और कुछ नहीं कर सकता
नहीं काट सकता कैद और शोषण की आदिम बेड़ियों को
लेकिन मेरा विश्वास करना
मैं कविता लिखना नहीं छोडूंगा




अभिव्यक्ति के खतरे 


अभिव्यक्ति के सारे माध्यम खतरे में पड़ गए हैं
अभिव्यक्ति भी स्वयं खतरे में है
कलाकृतियाँ बंदूकों के साये में अनावरित होती हैं
संगीनों से स्केच बनाये जा रहे हैं
कलाकार गोलियों की भांति तटस्थ हैं
सब कलावंत स्तब्ध और चुप हैं
सिपाही सूंघ कर देखते हैं कलाकृतियों को

यह समय है
बाजार से खुशियाँ खरीदने लाने का
और उन्होंने मुहैया करायीं हैं बहुत सी चीजें
हमारे खुश रहने को

यहाँ प्यार और प्रतिरोध
सामान रूप से वर्जित हैं

फिर भी
फौजी बूटों से कुचली उँगलियाँ
बार-बार उठा लेती हैं पेंसिल
और खींचने लगती हैं एक चेहरा
यह कैसा इत्तफाक है कि
दुनिया भर में कहीं भी खींचा जाए
यह श्याह-सफ़ेद स्केच
मिलने लगता है सबसे क्रूरतम और लोभी राष्ट्राध्यक्ष से

ऐसा क्यों है कि
उन कुचली उँगलियों में ही बचा रह गया है
इतना साहस है कि वे बना लेती हैं उसका चेहरा
जब कि साबुत और सीधी उंगलियां
एक सीधी रेखा भी नहीं खींच पातीं




No comments:

Post a Comment