Thursday, November 14, 2013

बच्चे समाज के उपनिवेश नही हैं


आज 14 नवम्बर है. यह दिन दो वजहों से याद किया जाता है. एक तो भारत के पहले प्रधानमंत्री और सच्चे नायक जवाहरलाल नेहरू का जन्म आज के ही दिन हुआ था, और दूसरा भी उन्हीं से जुड़ा है. आज के दिन को बाल दिवस के रूप में भी मनाते हैं. इसकी वजह यह है कि उन्हें बच्चों से बेहद लगाव था. वैसे तो उन्हें देश और देश में रहने वाले हर प्राणी से प्यार था. यहाँ के नदी नाले पहाड़ जंगल और रेगिस्तान से भी उन्हें उतना ही प्यार था. वे सच्चे अर्थों में देश के ‘नेता’ थे. अगर यह कहा जाये कि वे अंतिम अखिल भारतीय लोकनायक थे तो अतिश्योक्ति न होगी. वे विश्व से होड़ लेने वाले नायक थे. एक कृतज्ञ राष्ट्र होने के नाते हमारा यह फर्ज बनता है कि हम उन्हें शिद्दत से याद करें; लेकिन साथ-साथ आज के दिन हमें ना सिर्फ बच्चों के साथ मिलकर उत्सव मनाना चाहिए बल्कि उनके अधिकारों के प्रति सचेत भी होना चाहिए. भारतीय समाज में आज भी बच्चों को लेकर उतनी संजीदगी दिखाई नहीं देती जितनी होनी चाहिए. बच्चों का जीवन आज भी हाशिए पर ही स्थित है या यूँ कहें कि बच्चे भारतीय समाज में हाशिए पर हैं तो गलत न होगा. परिवार से लेकर समाज स्कूल तक बच्चों के अधिकार को लेकर सचेत नहीं हैं. पिछले कुछ दशकों में भूमंडलीकरण और बाजारवाद के सबसे ज्यादा और आसान शिकार बच्चे ही हुए हैं; और उसका सबसे ज्यादा दुष्प्रभाव भी बच्चों पर ही पड़ा है. बच्चों के पठन-पाठन से लेकर उनके खिलौने और कपड़ों तक में बाजार इतनी बुरी तरह घुस चुका है कि उनका बचपन प्रभावित हो रहा है. उनके मनोरंजन के साधनों में भी यह बुरी तरह घुस चुका है. बच्चे अपने अधिकारों के लिए खुद नहीं लड़ सकते. उसके लिए समाज को ही आगे आना पड़ेगा.
आमतौर पर बच्चों के अधिकार की बात आने पर बाल श्रम का जिक्र सबसे पहले आता है. यह इतनी तेजी से आता है कि बाकी के मुद्दों पर कोई चर्चा ही नहीं हो पाती. बालश्रम एक बड़ी मुसीबत जरूर है लेकिन जैसे कि हर अच्छी बात की तरह शुरुआत घर से होनी चाहिए उसी तरह इस मुद्दे पर भी परिवर्तन की शुरुआत घर से ही होनी चाहिए. यह बात कहने में थोड़ी अजीब लग सकती है परन्तु यह सच है कि बच्चों के अधिकारों का सबसे ज्यादा हनन घर में ही होता है; बल्कि और कोई नहीं उनके माँ-बाप द्वारा ही किया जाता है. उन्हें हमेशा अपनी मर्जी के खिलाफ काम करना पड़ता है. आज भी कई लोग ऐसा मानते हैं कि बच्चों को मारपीट कर ही कुछ सिखाया जाता सकता है. स्कूलों में भी अधिकांश शिक्षक इसी तरह सिखाने का भ्रम पालते हैं. परिवार और समाज कितना कुछ चाहता है बच्चों से. बच्चे इस तथाकथित सभ्य समाज के उपनिवेश बनकर रह गए हैं. हम अक्सर अपनी अधूरी महत्वाकांक्षाओं को बच्चों के ऊपर थोप देते हैं. संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा ने 20 नवम्बर 1059 को बच्चों के अधिकारों से संबंधित कुछ निर्देश जारी किये थे. उन निर्देशों को देखने के बाद आश्चर्य होता है कि इतने सालों के बाद भी हमारी पहुँच उन तक नहीं हो पायी है. इसमें उनकी शिक्षा, रहने का वातावरण, घर के भीतर उनके अधिकार तथा परिजनों के शोषण से बचाने के बारे में बताया गया है. भारतीय समाज में यह और भी मुश्किल मुकाम है. अक्सर हम अपनी असफलताओं को अपने बच्चों के माध्यम से पूरा करने की कोशिश करते हैं. कई बार बच्चों को उन आकांक्षाओं और उम्मीदों को पूरा करने में अपनी जान भी गंवानी पड़ जाती है. वे तनाव ग्रस्त और काम के बोझ से दबे जा रहे हैं. बचपन से ही उन्हें कुछ बड़ा बन जाने का दबाव महसूस होने लगता है. माँ-बाप भी यह सोचने लगते हैं कि हमारा बच्चा कितना कुछ एक साथ सीख ले. बोलने आने के पहले वह अंग्रेजी अक्षरों को पढ़ना सीख जाये. पब्लिक स्कूलों में जहाँ उन्हें एक नयी दुनिया दिखाई जाती है जो उनके आस-पास से बिल्कुल अलग होती है वहीं सरकारी स्कूलों में पढ़ाई का बुरा हाल है. घर के भीतर जहाँ बच्चों को अन्य के मुकाबले समान अधिकार नही होते वहीं बाहर उन्हें नागरिक ही नहीं समझा जाता. यह तो उनका हाल है जिनके घर परिवार हैं जरा उनके बारे में सोचा जाये जिनके कोई ठिकाने नहीं हैं. ऐसे बच्चे सड़कों पर, रेलवे स्टेशनों पर अपना जीवन बिताने के लिए मजबूर हैं. क्या इतने बड़े देश और इतनी बड़ी अर्थव्यस्था में उन कुछ हजार या लाख बच्चों के पालन-पोषण करने की क्षमता नही है. आज के यही बच्चे कल के नागरिक और देश के भविष्य हैं. लेकिन इस भविष्य का बोझ हमें उनपर नहीं डालना चाहिए.
बच्चों के अधिकार निर्धारित करने के साथ-साथ अभिवावकों के लिए जागरूकता अभियान भी चलाए जाने चाहिए. प्रत्येक माँ-बाप के लिए यह बड़ी चुनौती है कि वह बच्चों के मनोविज्ञान को समझ सके. बाल साहित्य के लेखकों की भी यह जिम्मेदारी है कि उन्हें सिर्फ मनोरंजन का साधन न मानें. उन्हें समझने की कोशिश करें. देश के पहले प्रधानमंत्री यदि बच्चों से प्रेम करते थे तो इसके पीछे उनका चिंतन और दूरदृष्टि भी थी. वे भारत के आगामी भविष्य को लेकर चिंतित थे; और उन खतरों को भी देख रहे थे जो आने वाले समय में उसे कमजोर करते रहेंगे. उन्हें पता था कि यही बच्चे कल के भारत का भविष्य हैं. हमें उनपर विश्वास करना सीखना चाहिए; और अभी तुम बच्चे हो जैसे जुमलों से बचना चाहिए.




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