Wednesday, September 4, 2013

भाषा की क्षति आर्थिक क्षति भी है

भाषा की क्षति आर्थिक क्षति भी है

बृजराज सिंह


वडोदरा के भाषा शोध और प्रकाशन केंद्र के पीपुल लिंगुइस्टिक सर्वे के अनुसार पिछले पचास वर्षों में भारत की बीस फ़ीसदी मातृभाषाएं बिलुप्त हो गयीं हैं. यह कहना है पीपुल लिंगुइस्टिक सर्वे के मुख्य संयोजक गणेश दवे का. पिछले दिनों इस सम्बन्ध में पीपुल लिंगुइस्टिक सर्वे ने एक रिपोर्ट पेश की है. 1961 की जनगणना के बाद भारत में करीब 1650 मातृभाषाओं का पता चला था. इसमें सरकार ने माना था की लगभग 1100 भाषाएँ अस्तित्व में हैं; और यह भी तब जब प्रत्येक भाषा को बोलने वाले कम से कम 10 हजार की संख्या में हों. गणेश दवे का कहना है कि उसके बाद ऐसी कोई भी सूची नहीं बनाई गयी. इस पूरे सर्वे में लगभग तीन हजार लोग शामिल थे जिन्होंने मिलकर कुल 800 के आसपास भाषाओँ की खोज कर सके. बाकी की भाषाओँ का पता नहीं चला. इसका मतलब था कि बाकी की भाषाएँ मर गयीं. इस सर्वे के अनुसार जो भाषाएँ लुप्त हुयी हैं उनमें ज्यादातर समुद्री किनारे के क्षेत्रों तथा बंजारा समुदायों की भाषाएँ थीं. शहरों का बढ़ता दायरा भी उसके पीछे कारण है. इसीलिए वे कहते हैं कि शहरों में भाषाओँ को बचाने के लिए जगह रखनी चाहिए. रमेश दवे ने एक और बहुत अच्छी बात कही है कि भाषाओँ की क्षति आर्थिक क्षति भी है. भाषा के सम्बन्ध में यह एक नयी बात है. वे कहते हैं कि हर भाषा में पर्यावरण से संबंधित एक खास तरह का ज्ञान जुड़ा होता है. जब एक भाषा चली जाती है तो उसे बोलने वाले पूरे समूह का ज्ञान लुप्त हो जाता है. जो एक बहुत बड़ा नुकसान है क्योंकि भाषा  एक ऐसा माध्यम है जिससे लोग अपनी सामूहिक स्मृति और ज्ञान को जीवित रखते हैं.
अब यह देखना भी दिलचस्प होगा कि जिनकी भाषाएँ मर रही हैं वे लोग खुद भी मर रहे हैं. उन्हें मारने के लिए पहले उनकी भाषाओँ को मारा जा रहा है. देश में आदिवासी आज भारी संकट में हैं. उन्हें उनके मूल निवासों से भगाया जा रहा है ताकि वहां पर खनन का लूटतंत्र निर्बाध रूप से चलाया जा सके. देश को बड़ी बड़ी कंपनियों के हवाले करने का खेल जोरो शोरो से चल रहा है. उनकी भाषा को, उनकी अभिव्यक्ति को, उनकी सोच को पहले मार दिया जाये तो फिर उनको मारना आसान हो जाएगा. उनके लिए बोलने वालों को डरा दिया जाएगा. फिर जंगलों, पहाड़ों को बिना रोक टोक के लूटा जा सकेगा. भाषा का संबंध जातीय चेतना से जुड़ा होता है; सामूहिक चेतना से जुड़ा होता है. भाषा आत्मसम्मान तथा आत्मगौरव सिखाती है.
भाषा का संबंध सत्ता और बर्चस्व की संस्कृति से भी जुड़ा होता है. अगर ऐसा नहीं होता तो डोगरी संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल नहीं हो जाती-जिसे बोलने वाले बहुत ही कम रह गए हैं-और भोजपुरी, ब्रजी, अवधी तथा अन्य कई भाषाओँ को आज तक इतने लम्बे आंदोलनों के बावजूद जगह नहीं मिल पाई है. अंग्रेजी के बढ़ते बर्चस्व को भी हमें इसी रूप में देखना चाहिए. उपभोक्तावादी संस्कृति के समर्थक और उसके वाहक लोगों की भाषा अंग्रेजी ही है. विश्व को एक गाँव बना देने की मंशा तभी सफल हो पायेगी जब विश्व की भाषा भी एक हो. यह तभी होगा जब दुनिया की बाकी भाषाएँ दम तोड़ देंगी. दुनिया के कुछ देश इस समस्या और षड़यंत्र से सचेत रूप से लड़ भी रहे हैं. लेकिन भारत स्थानीय स्तर पर और वैश्विक स्तर दोनों पर असफल है. जो लोग आज छोटी मोटी भाषाओँ के मरने पर चिंतित नहीं हैं वे कल देश की बड़ी भाषाओँ के लुप्त होने पर भी चिंतित नहीं होंगे. अंग्रेजी आज हिंदी के साथ-साथ अन्य भारतीय भाषाओँ के लिए खतरे उत्पन्न कर रही है. दुनिया के व्यापार में भारत एक बड़े बाजार के रूप में देखा जा रहा है. अंग्रेजी के स्वीकार से यहाँ व्यापार करना आसान हो जाएगा. यही तो चाहती हैं उपभोक्तावादी और साम्राज्यवादी शक्तियाँ. जिस तरह से यह कहा जाता है कि ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में स्थानीय भाषाएँ हिंदी का मुकाबला नहीं कर पाएंगी उसी तरह बाद में यह कहा जाएगा कि हिंदी अंग्रेजी का मुकाबला नहीं कर सकती इसलिए हिंदी छोड़ अंग्रेजी को अपना लिया जाए. इसीलिए कभी-कभी हिंदी को भी रोमन लिपि में लिखने का सवाल उठ खड़ा होता है.
कोई भी व्यक्ति अपनी मातृभाषा में ही सबसे बेहतर सोच सकता है तथा उसे अभिव्यक्त कर सकता है. आजादी का मतलब भी अपनी भाषा में ही समझ और समझा सकता है. मैकाले का भारतीय शिक्षा नीति को लेकर ब्रिटेन की संसद में दिया गया भाषण तो सबको याद ही होगा जिसमें उन्होंने कहा था कि यदि भारत को लम्बे समय तक गुलाम बना कर रखना है तो उसे उसकी भाषा से दूर करना होगा. साम्राज्यवादी शक्तियों का मुकाबला अपनी भाषा को महत्व देकर ही किया जा सकता है. आजादी मिलने के इतने सालों बाद भी हम पूरी तरह से औपनिवेशिक मानसिकता से उबर नहीं पाए हैं. अंग्रेजी हमारी सोच को हर स्तर पर प्रभावित कर रही है. शिक्षा व्यवस्था पब्लिक स्कूलों के चंगुल में फसती जा रही है. सरकारी प्राथमिक स्कूल सिर्फ उनके लिए रह गए हैं जो किसी तरह से पब्लिक स्कूलों में नहीं जा सकते या जो आज भी बेहतर शिक्षा के प्रति उदासीन हैं. सरकारें जिस तरह से पब्लिक स्कूलों को सुविधाएँ मुहैया करा रही हैं तथा सरकारी स्कूलों के प्रति उदासीनता दिखा रही हैं; उससे तो साफ जाहिर है कि आने वाले दिनों में भारतीय शिक्षा व्यवस्था भी प्राइवेट हाथों में चली जाएगी. यह वैश्विक षड़यंत्र और उससे उपजे संकट हैं. अंग्रेजी को इन्टरनेशनल लैंग्वेज का नाम दिया जा रहा है. उसे आर्थिक अथवा व्यापार की भाषा के रूप में प्रस्तावित किया जा रहा है. यही साम्राज्यवादी एजेंडा है. ऐसे में कोई लेखक बुद्धिजीवी भाषाओँ को बचाने और उनकी अस्मिता के लिए लड़ने को साम्राज्यवादी एजेंडा या एजेंट कहे तो उसे क्या कहा जा सकता है.

छोटी छोटी अस्मिताओं का उभरना साम्राज्वाद के लिए सबसे बड़ा खतरा बन रहा है. इसीलिए थ्योंगो जैसे लोग गिरफ्तार किये जाते हैं. थ्योंगो ने कहा भी है कि जब मैं उनकी भाषा में लिखता था तब वे मुझे पुरस्कार देते थे  और जब मैं अपनी भाषा में लिखने लगा तो जेल में डाल दिया. हिंदी और उससे जुड़ी भाषाओँ (आम तौर पर जिन्हें बोलियाँ कहा जाता है) के संबंध में भी यही सच है कि जो लोग इन भाषाओँ के अस्तित्व को नकार रहे हैं वे जाने अनजाने साम्राज्यवादी एजेंडे को मदद पहुंचा रहे हैं. जो व्यवहार अंग्रेजी का हिंदी के प्रति है वही व्यवहार हिंदी को अपनी अन्य भाषाओँ के साथ नहीं करना चाहिए. संविधान कें शामिल सिर्फ 22 भाषाओँ को ही नहीं बल्कि भारत की सभी भाषाओँ को सरकारी सहायता और संरक्षण मिलना चाहिए. छोटी भाषाओँ को बचाने के हर संभव प्रयास किए जाने चाहिए. और यकीन मानिए इससे हिंदी को कोई नुकसान नहीं होगा.

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