Sunday, September 22, 2013

जो रचेगा वही बचेगा- बृजराज सिंह


जनसत्ता, 7 सितम्बर को अपने आलेख ‘अभिव्यक्ति की आजादी और दलित’ में एक बार फिर धर्मवीर ने अपना अलगाववादी सुर अलापा है। धर्मवीर बहुत पढ़े लिखे और बुद्धिमान लेखक हैं; लेकिन उनके लेखन को देखकर यह कहा जा सकता है कि उनका सारा ज्ञान केवल किताबी है। कहा जाता है कि जब किसी रेखा को बिना छुए छोटा करना हो तो उसके समान्तर एक बड़ी रेखा खींच देनी चाहिए. लेकिन यह जहमत कौन उठाए. जो पहले से बनी है उसी को मिटा देना चाहिए. धर्मवीर जैसे लोग यही कर रहे हैं. बड़ी रेखा नहीं खींच सकते तो पहले की रेखा को ही मिटा देना चाहते हैं. यह लेख पढ़कर मुझे दो घटनाएं याद आ रहीं हैं; जिसमें से एक इतिहास से संबंधित है तो दूसरी वर्तमान से.
पहली घटना बनारस की है. पिछले दिनों काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में एक उपन्यास का लोकार्पण समारोह था. उपन्यास लेखक दलित थे. कालीचरण सनेही समारोह के मुख्य अतिथि थे; जिनकी ख्याति एक दलित चिन्तक के रूप में है। अपने एक घंटे के भाषण में उन्होंने उस कृति पर एक शब्द भी नही बोला। बल्कि अपने पूरे भाषण में वे सवर्णों को गलियां देते रहे। सिर्फ़ सवर्णों को ही नही बल्कि उस लेखक की भी जमकर खिचायी की; क्योंकि उसने सभा में सवर्णों को भी आमंत्रित किया था। उन्होंने साफ़ कहा कि दलितों को सवर्णों के साथ नहीं रहना चाहिए। लेखक को उन्होंने यह भी धमकी दी कि तुम्हें दलित लेखकों कि सूची से निकाल दिया जायेगा, तुम न इधर के रहोगे न उधर के। यह है साहित्य का आरक्षण; जिसके खतरे की तरफ प्रगतिशील लेखक संघ की पिचहत्तरवीं सालगिरह पर आयोजित समारोह में बोलते हुए नामवर सिंह ने इशारा किया था। दरअसल नामवर सिंह उस वैमनस्य की ओर इशारा कर रहे थे जो दलितों और सवर्णों के बीच पनप रहा है। जिसे गाँधी जी ने कहा था कि अंग्रेज सरकार हिन्दुओं को भी दो फाड़ कर देना चाहती है.
ऐसी स्थिति में समता, समानता और भाईचारे की मंजिल कैसे प्राप्त कर सकते हैं? हम देख रहे हैं कि हर जाति के नाम पर एक राजनीतिक पार्टी बन गयी है। कुछ दिनों पहले अख़बारों में एक आकड़ा प्रकाशित हुआ था, जिसके अनुसार २०१० में अनुसूचित जाति के लोगों पर हुए हमलों में पूरे देश के बीस फीसदी मामले अकेले उत्तर प्रदेश के हैं। यह कुल आंकड़े का सर्वाधिक हिस्सा है। यह इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि उत्तर प्रदेश में पिछले पांच वर्षों से बहुजन समाज पार्टी की सरकार थी। इस तरह की फिरकापरस्त ताकतों को किसी भी तरह से बढ़ावा नही दिया जा सकता. चाहे वह लेखक ही क्यों न हो. प्रकारांतर से धर्मवीर जैसे लेखक भी इन्ही फिरकापरस्तों का साथ दे रहे हैं.
दूसरी घटना ‘पूना पैक्ट’ से संबंधित है. ब्रितानी सरकार ने पूरी तरह से तय कर लिया था कि ‘कम्यूनल अवार्ड’ के तहत अस्पृश्य जातियों को अल्पसंख्यकों और अन्य समुदायों की तरह अलग से संविधान में पृथक निर्वाचन की व्यवस्था की जाएगी. महात्मा गाँधी ने इस फैसले को भारत की एकता को खंडित करने का षड़यंत्र बताकर इसके विरोध में आमरण अनशन करने की घोषणा कर दी. गाँधी जी की तबियत इस अनशन की वजह से बहुत तेजी से बिगड़ने लगी. अब सामने विकट प्रश्न खड़ा था कि क्या होगा। देश के बड़े-बड़े नेता मदनमोहन मालवीय, राजगोपालचारी तथा दलित वर्गों के नेता अंबेडकर और दूसरे प्रतिनिधि इस गुत्थी को सुलझाने के लिए इकट्ठा हुए। । तीन दिन तक खूब विचार विमर्श हुआ। चर्चा में कई उतार चढ़ाव आए। अंत में 24 सिंतबर को सबने एकमत से  समझौते पर हस्ताक्षर कर दिए, जो ‘पूना पैक्ट’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसमें अम्बेडकर को अपने निर्णय से समझौता करना पड़ा. न चाहते हुए भी अम्बेडकर को पीछे हटना पड़ा. उन्होंने अपना फैसला वापस ले लिया इसलिए नही कि वे गाँधी या किसी और से डरते थे, बल्कि इसलिए कि जिद में यदि गाँधी की मृत्यु हो जाती तो इसका कारण दलितों को ठहराया जाता और फिर हमेशा हमेशा के लिए  दलितों के खिलाफ़ इसका इस्तेमाल किया जाता। अम्बेडकर की  दूरदर्शिता ने इस दुर्घटना को बचा लिया। यह अम्बेडकर की कायरता नहीं थी बल्कि कृष्ण की तरह युद्ध की स्थितियों से बचने के लिए रणछोड़ कहे जाने की विवशता थी. अम्बेडकर यह जानते थे कि यदि इस मुद्दे की वजह से गाँधी की मृत्यु हो गयी तो देश भर में अछूतों के खिलाफ हिंसा होगी और  कभी न खत्म होने वाली कटुता फैल  जाएगी. दलित लेखक माता प्रसाद ने एक बार कहा था कि कल्पना कर के देखिए कि यदि अम्बेडकर ऐसा नहीं करते तो क्या होता. अम्बेडकर समर्थकों को इससे भी कुछ सीखना चाहिए या नहीं।
जहाँ तक दलित साहित्य का सवाल है तो हमारी तरफ एक कहावत कही जाती है कि “घी का लड्डू टेढ़ा भला”. लेकिन यह सिर्फ स्वाद का मामला है । यदि लड्डू की बात कहेंगे तो उसे गोल होना ही पड़ेगा. वह लम्बा या अंडाकार नहीं हो सकता. कला या साहित्य का भी कुछ-कुछ यही नियम होना चाहिए. दलित लेखकों की रचनाओं का स्वागत है. उनकी उत्कृष्टता से भी कोई परहेज नहीं है लेकिन शर्त यह कि उसे तुलसीराम की ‘मुर्दहिया’ जैसा होना पड़ेगा. है किसी की मजाल जो मुर्दहिया पर प्रश्न उठा दे सिर्फ इसलिए कि उसका लेखक एक दलित है. साहित्य में आरक्षण जैसी व्यवस्था के हिमायती लोग दरअसल अपनी कमजोरियों को छिपाना चाहते हैं. एक बार तुलसीराम जी ने कहा था कि जो लोग यह कहते हैं कि सिर्फ दलित ही दलित साहित्य लिख सकता है दरअसल वे दलितों और उनके साहित्य के साथ षड़यंत्र कर रहे होते हैं. उसे उसकी समृद्ध परंपरा से काट देना चाहते हैं.
धर्मवीर कहते हैं कि साहित्य में ऐसी दबंगई चल रही है कि लोकतंत्र का नामोनिशान तक नही है. वे भूल जाते हैं कि देश में जो थोड़ा बहुत लोकतंत्र बचा है वह सिर्फ साहित्यकारों, लेखकों और पत्रकारों के जोखिम और साहस से ही बचा है. उन्हें संसद में साहित्य से ज्यादा लोकतंत्र दिखाई पड़ता है. इतनी कमजोर स्मृति होगी उनकी इसकी कल्पना भी नहीं थी मुझे. अभी कुछ दिनों पहले कंवल भारती की गिरफ्तारी उन्हें याद रहती तो वे शायद ऐसा नहीं कह पाते. दरअसल धर्मवीर जिस वर्ग(क्लास) से आते हैं उसे देखते हुए यह कोई अनहोनी बात नहीं है. लेकिन उन्हें चाहिए कि जमीनी सच्चाई से रूबरु हों. इतनी कोशिशों के बावजूद पिछले कुछ वर्षों में अवर्णों और सवर्णों की बीच की दूरियां बढीं हैं. एक बार जब मैंने अपनी इस दुविधा को दलित लेखक(हांलाकि मैं दलित लेखक विशेषण से इत्तेफाक नहीं रखता) मलखान सिंह से साझा किया तो उनका जवाब मुझे कुछ हद तक सही लगा. उन्होंने कहा कि ‘वाद विवाद संवाद’ तीन स्थितियां होती हैं. वाद और विवाद की स्थिति चल रही है फिर संवाद की स्थिति भी आएगी. बस हमें ख्याल रखना चाहिए कि संवाद के लिए जगह बची रहे. धर्मवीर जैसे लोग उस संवाद की स्थिति को भी नहीं रहने देना चाहते हैं.

साहित्य अकादेमी पुरस्कार न पाना कहीं से भी किसी भी लेखक चाहे वह अवर्ण हो या सवर्ण की गुणवत्ता पर प्रश्न चिन्ह नहीं लगा सकता. न वह अभिव्यक्ति की आजादी से जुड़ा मसला है. अभियक्ति की आजादी को इतना तुच्छ करके नहीं देखना चाहिए. कोई भी लेखक पुरस्कारों के लिए नहीं लिखता. कबीर,तुलसी या रैदास को साहित्य अकादेमी नहीं मिला था । किसी भी लेखक का उद्देश्य पुरस्कार पाना नहीं हो सकता. एक छोटी सी कविता याद  आ रही है-वे पेंड़ नहीं/ शाखा लगाते हैं.दरअसल धर्मवीर जैसे लोग भी पेड़ उखाड़कर शाखा की सिचाई करना चाहते हैं.  

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