Saturday, September 21, 2013

क़दमों ने ही बनाए हैं सारे रास्ते

क़दमों ने ही बनाए हैं सारे रास्ते

एक कहावत के अनुसार कहा जाता है कि जब दुनिया बनी थी तब इस पर रास्ते नहीं थे. सारे रास्ते लोगों ने ही चल चल कर बनाये हैं. पगडंडियाँ आज भी इस कहावत को चरितार्थ करती हैं. किसी एक रास्ते पर बार-बार चलने से पगडंडियाँ बनती हैं. यह व्यक्ति की अदम्य जिजीविषा और उसके दृढ़ आत्मविश्वास का परिचायक होती है. ये पुरुष और प्रकृति के साहचर्य का सबसे जीवंत उदाहरण होती हैं. बालक उंगली पकड़ कर चलना सीखता है तथा पगडंडियाँ पकड़ कर मंजिल की ओर बढ़ता है. मनुष्य का बालहठ कि उसे रास्ता चाहिए ही चाहिए. प्रकृति लम्बे समय के मनुहार के बाद उसे पतली-सी धारीनुमा रास्ता बनाने की अनुमति देती है. पगडंडियाँ मनुष्य को रास्ता बताती हैं; उसे अपने पूर्वजों के बनाये रास्ते पर चलना भी सिखाती हैं. पगडंडियाँ मनुष्य को परम्परा से जोड़ती हैं; आदमी के लम्बे संघर्ष की द्योतक होती हैं. पगडंडियों की गवाही देना अपनी परम्परा से जुड़ना है; लगाव है. चमचमाते नेशनल हाइवे के जमाने में पगडंडियों की गवाही देना मनुष्य के लम्बे जीवन संघर्ष को स्वीकार करना और उसे आदर देना है. यह आधुनिकता और परम्परा के द्वंद्व जैसा है. अत्याधुनिक औजारों ने पगडंडियाँ नहीं बनायीं हैं. आदमी के अनवरत चलने वाले पैरों की गवाह हैं पगडंडियाँ. दैत्याकार मशीनों द्वारा पृथ्वी का सीना चीर कर बनाये गए रास्तों में इतनी आत्मीयता नही हो सकती.
डिगे भी हैं/लड़खड़ाए भी/ चोटें भी खाई कितनी ही/ / पगडंडियाँ गवाह हैं/ कुदालियों, गैतियों/ खुदाई मशीनों ने नहीं/ क़दमों ने ही बनाए हैं-/ रास्ते.
पगडंडियों की गवाही देना साबित करता है कि कवि की चिंता का केंद्र सामान्य मनुष्य है जिसका जीवन उसकी परम्परा से गहरे जुड़ा होता है. इससे कवि कि पक्षधरता का सहज ही अनुमान लग जाता है कि उसकी आत्मीयता उस बहुसंख्यक समाज से है जो आज भी अपनी धरती और अपने लोगों से प्यार करते हैं. कवि को कंकड़ छांटती औरत, पत्थर चिनाई तथा रंग पुताई करता मजदूर, लोक वृक्ष, एवं अन्य कविता के लिए प्रेरित करते हैं. कवि को धरती से बहुत लगाव है. इसीलिए वह कहता है-
पृथ्वी पर लेटना/ पृथ्वी को भेटना भी है/ खास कर इस तरह/ जिंदा देह के साथ/ जिंदा पृथ्वी पर लेटना.
उसे पृथ्वी की अवमानना बिल्कुल भी पसंद नहीं. एक तरफ वह जहाँ अत्याधुनिक कहे जाने वाले समय में पगडंडियों की गवाही देता है, वही दूसरी तरफ पृथ्वी और उससे जुड़े पुराने मुहावरों को दुरुस्त भी करता जाता है. कृष्ण कुमार ने अपने एक भाषण में कहा था कि कवि शब्दों में नया अर्थ भरता है. शब्दकोश में पड़े शब्द किसी कवि का इंतजार करते हैं. कहने की जरूरत नहीं कि भाषा को परिष्कार की जरूरत होती है. आधुनिक साहित्य ने तमाम ऐसे मुहावरों को बाहर कर दिया या उनके अर्थ बदल डाले जो किसी न किसी रूप में मनुष्यता और सामाजिक व्यवस्था के अनुकूल नहीं थे. यहाँ कवि ने पृथ्वी से जुड़े महावरों पर नया दृष्टिकोण दिया है-
मिट्टी में मिलाने/ धूल चटाने जैसी उक्तियाँ/ विजेताओं के दंभ से निकली हैं/ पृथ्वी की अवमानना है/ इसी दंभ ने रची है दरअसल/ यह व्याख्या और व्यवस्था/ जीत और हार की.
कवि की यह पक्षधरता कोरी भाउकता भर नहीं है. वह पृथ्वी के साथ-साथ उन लोगों पर भी कविता लिखता है जो इस पृथ्वी को सुंदर बनाने में दिन रात लगे रहते हैं. अत्मरंजन ने कामगारों पर कविताएँ लिखी हैं. इनमें एक मजदूर को सिर्फ उसकी मजबूरी से उपजी विवशता के तहत प्रदर्शित नहीं किया गया है बल्कि उसके काम के प्रति लगाव और तन्मयता को बखूबी चित्रित किया गया है. मजदूर सिर्फ मजदूर नहीं होता. वह सर्जक होता है. वह एक तरह का कलाकार होता है. जिस एकाग्रता और रचनात्मकता के साथ वह काम करता है वैसा सिर्फ एक कलाकार ही कर सकता है. अत्मारंजन के यहाँ पत्थर चिनाई करने वाला एक मूर्तिकार से कम नहीं है और घरों में रंग पुताई करने वाला मजदूर किसी चित्रकार से कम नहीं है. सबसे बड़ी और लोगों को आश्चर्यचकित कर देने की छमता रखने वाली पंक्तियाँ कि पत्थर से चौबीस घंटे के  संग-साथ के बावजूद वह मजदूर पत्थर का नहीं हुआ है. वहीं रंग पुताई करने वाला मजदूर घर की दीवारों से सीलन निकालने के क्रम में पृथ्वी की सीलन को निकल रहा है. उसके हुनरमंद हाथ पृथ्वी की देह पर मरहम लगाने का काम करते हैं. विकास की अंधी दौड़ में शामिल होने के लिए प्रकृति से जो जबरदस्ती की जा रही है उससे उपजे घावों पर यही लोग मरहम लगाते हैं. याद रखना चाहिए कि यही लोग पगडंडियाँ बनाते हैं और उसपर चलते भी हैं.
पत्थर चुनता है वह/ पत्थर बुनता है/ पत्थर गोड़ता है/ तोड़ता है पत्थर/पत्थर कमाता है पत्थर खाता है/../ पत्थर के हैं उसके हाथ/ पत्थर का जिस्म/ बस नहीं है तो रूह नहीं है पत्थर// एक एक पत्थर को सौंपता अपनी रूह.
आत्मारंजन के यहाँ पहाड़ों का जन जीवन अपनी पूरी शिद्दत के साथ प्रकट होता जरूर है परन्तु इन्हें केवल पहाड़ी जीवन के साथ सीमित कर के देखना उन्हें कम कर के आंकने के बराबर है. उनकी चिंता में लुप्तप्राय लोक गीतों का अमर वृक्ष मदनू और लोकगीतों का एक प्रकार जुल्फिया शामिल है जो पूरे भारतीय एवं वैश्विक परिदृश्य पर समकालीन चिन्तन के केंद्र में हैं. विकास और विनाश के बीच झूझती मानवीयता के लिए इन प्रश्नों का महत्त्व बढ़ गया है. ये वे संस्कृतियाँ हैं जो कवि के शब्दों में कहें तो इन्हें ‘पीपल की तरह बस्ती के बीचो-बीच शुचिता के ऊँचे चबूतरे बिराजमान’ तथा ‘देवदार की मानिंद देव संस्कृति से जुड़े होने का गौरव’ प्राप्त नही है. बेहतर समाज निर्माण के स्वप्नों में श्रम के महत्त्व को दुनिया भर में स्वीकृति मिली है. लोक जीवन और लोक संस्कृति को अपनी चिंता में स्थान देना उसी श्रम के महत्त्व को स्वीकार करना है. उसी बेहतर दुनिया के स्वप्न में शामिल होने जैसा जिसमें श्रम की केन्द्रीयता होगी. जुल्फिया लोक गायन शैली के विलुप्त होने के दुःख के साथ कवि कवि प्रश्न करता है –
कैसे और किसने किया/ श्रम के गौरव को अपदस्थ/ क्यों और कैसे हुए पराजित तुम खामोश/ अपराजेय सामूहिक श्रम की/ ओ सरल सुरीली तान/ कुछ तो बोलो जुल्फिया रे!



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